आचार्य कुन्दकुन्द देव की जन्मभूमि ‘कोणकुंडला’ – जब भी जलसंकट उत्पन्न होता है, बिम्बों की पूजा से इस क्षेत्र में सुनिश्चितरूप से बारिश होती है

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युगप्रधान आचार्य कुन्दकुन्द देव तब से लेकर आज तक की सम्पूर्ण निर्ग्रन्थ आचार्य-परम्परा के सिरमौर हैं, यह तथ्य सर्व-स्वीकृत है।

कुछ समय पहले आज के एक दिगम्बर जैन मुनिपद-धारक आचार्य ने अपने शिष्यों को कहकर अपने नाम को जैन-आचार्य-परम्परा के सर्वश्रेष्ठ-आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिये षट्खण्डागम के लिपिकर्त्ताओं में से एक आचार्य पुष्पदन्त स्वामी के नाम-सादृश्य की ओट लेकर “मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो” के स्थान पर “मंगलं पुष्पदन्ताद्यो” लिखवाने एवं छपवाकर प्रचारित करने का अतिसाहस किया था।

तब मैंने अनेकों प्रबल-प्रमाणों से पुष्ट आलेख लिखकर इस बात को नितान्त-अनुचित चेष्टा सिद्ध करते हुये यह भी प्रमाणित किया था कि आचार्य कुन्दकुन्द देव सम्पूर्ण दिगम्बर आचार्य-परम्परा में सर्वश्रेष्ठ-आचार्य क्यों हैं और वस्तुतः अनेकों महान् आचार्य भगवन्तों के होते हुये भी उन्हें ही शासननायक भगवान् महावीर स्वामी व प्रधान-गणधर इन्द्रभूति गौतम के बाद सर्वश्रेष्ठ-आचार्य के रूप में क्यों स्मरण किया गया है। और उन्हें अन्य किसी भी आचार्य से स्थानान्तरित (री-प्लेस) नहीं किया जा सकता है।

दिगम्बर जैन आचार्य-परम्परा के इन निर्विवाद-सर्वश्रेष्ठ आचार्यप्रवर के विषय में अनेक प्रकार की किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। जिनमें कुछ को तो अकाट्य-प्रमाणों से मैं प्रमाणित कर चुका हूँ (जैसे कि आचार्य कुन्दकुन्द देव का विदेहगमन, उनके लिये ऋद्धियाँ प्रकट होना, उनके मूलागमों का अधिकारी-वैदुष्य इत्यादि) हूँ, और कुछ की प्रामाणिकता की जाँच-हेतु मैं तथ्य एकत्रित कर रहा हूँ।

इसी क्रम में मैंने आचार्य कुन्दकुन्द देव की ‘तपोभूमि’ एवं विदेहगमन-भूमि ‘पोन्नूरमलै’ की तथा उनकी ‘समाधिस्थली’ ‘कुन्दाद्रि’ की विशेषरूप से यात्रायें कीं और तथ्यों का संचय किया। किन्तु उनकी जन्मभूमि ‘कोणकुंडला’ की वर्तमान-दशा एवं एवं वास्तविकता को तथ्यात्मकरूप से जानने के लिये मैंने मई 2018 माह की 25-26 दिनांकों को उस क्षेत्र की यात्रा की तथा तथ्यों को एकत्रित किया, जिनमें वीडियोज़, स्टिल-पिक्स, कोर्ट के निर्णयों की प्रतियाँ, और अन्य विविधप्रकार के दस्तावेज़ शामिल हैं। उनकी आलेख की मर्यादा में अपेक्षित जानकारियाँ इस आलेख में आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।

आचार्य कुन्दकुन्द देव की जन्मभूमि ‘कोणकुंडला’ वर्तमानआंध्रप्रदेश के अनंतपुर नामक कर्नाटक-सीमान्त जिले में है। जो कि अनंतपुर जिला-मुख्यालय से लगभग 70 किमी. की दूरी पर स्थित है। दक्षिण-रेल्वे के महत्त्वपूर्ण रेल्वे स्टेशन ‘गुंटकल’ से लगभग आठ किमी की दूरी पर ‘गुंटकल’ कस्बे से ‘अनंतपुर’ जिला-मुख्यालय के मार्ग, जो कि ‘स्टेट-हाईवे’ कहा जाता है, पर स्थित है।

यहाँ पर तीन पहाड़ हैं, एक तो राजमार्ग से सबसे निकट व सबसे छोटा पहाड़ है, दूसरा पहाड़ उसके पीछे है व उससे कुछ बड़ा है। तथा तीसरा पहाड़ इन दोनों के पीछे है और इन दोनों से भी कुछ बड़ा है। इनमें से पहला व सबसे छोटा पहाड़ ही आचार्य कुन्दकुन्द देव की जन्मस्थली के रूप में विख्यात है। इस पहाड़ पर जैन-क्षेत्र होने के दो बड़े प्रमाण विद्यमान हैं। ये दोनों ही बगल-बगल में हैं।

पहले में अपेक्षाकृत ऊँचे भाग पर जंबूद्वीप का चट्टान पर उत्कीर्ण एक रेखाचित्र विद्यमान है, जिसे आंध्रप्रदेश राज्य के राजकीय पुरातत्त्व-विभाग के रिकार्ड के अनुसार ‘जम्बूद्वीपचक्रमु’ कहा गया है। इस विषयक राज्य-पुरातत्त्व-विभाग का एक सूचनापट्ट भी वहाँ लगा हुआ है। इसके कुछ निचले भाग में उसी चट्टान पर एक रेखाचित्र के रूप में ही एक दिगम्बर जैन मुनि की आकृति उकेरी हुई है, जिसे लोग आचार्य कुन्दकुन्द देव की आकृति के रूप में बताते हैं। इन दोनों की पिक्स नीचे दी जा रहीं हैं।

इसके बगल में स्थित एक अन्य अस्थायी-कक्ष में भूतल से भी निचली सतह पर (जिसे कहा जा सकता है कि कुछ गहराई में दो अर्हन्त-जिनबिम्ब स्थित हैं, जिनकी स्थानीय-जैन-समाज के न होने के कारण पूर्णतः उपेक्षा हो रही है। स्थानीय व आसपास के पचास किमी. के गाँवों तक के जैनेतर लोग उनकी जलवृष्टि के देवता के रूप में प्रतिष्ठा है। आज भी उस सबसे कम वर्षावाले अनंतपुर जिले में जब भी जलसंकट उत्पन्न होता है, तो सब लोग मिलकर इन बिम्बों की पूजा करते हैं व श्रीफल समर्पित करते हैं। तो जितने लोगों से (पढ़े-लिखे से अनपढ़ तक , व्यापारी से नौकरीपेशा तक, श्रीमन्त से निर्धन तक सभी) मेरी बातचीत हुई, सभी ने एकमत से इसकी पुष्टि की है कि इन बिम्बों की पूजा से इस क्षेत्र में सुनिश्चितरूप से बारिश होती है।

यद्यपि यह एक गृहीत-मिथ्यात्व की मान्यता के अलावा और कुछ नहीं है, परन्तु लोकरूढि आज इसी रूप में प्रचलित है। इसीकारण जैनेतर-समाज से पूजित होने से इनकी जिनाम्नाय के अनुरूप मर्यादा सुरक्षित नहीं रह सकी है। वे लोग पैरों, घुटनों, वक्षस्थल, मस्तक आदि स्थानों पर रोली-चंदन लगाकर पूजा करते हैं और सामने शिलातल पर नारियल फोड़ते हैं। गृहीत-मिथ्यात्व की पराकाष्ठा तो यहाँ तक है कि स्थानीय जैनेतर-समाज तो यह भी पूरे दावे के साथ कहती है कि विशेष-परिस्थितियों में ये दोनों मूर्तियाँ आपस में अपना स्थान बदल लेतीं हैं। उससे स्थानीय लोग कोई बड़े परिवर्तन का शुभ-संकेत मानते हैं। मैं स्वयं इस यात्रा-प्रसंग में ऐसे दशाधिक-लोगों से मिला, जिन्होंने बताया कि वे इन मूर्तियों के स्थान-परिवर्तन की स्थितियाँ देख चुके हैं। जबकि ये मूर्तियाँ स्थिररूप से अविचल स्थित हैं। उन्होंने यह भी बताया कि ऐसा चार-पाँच वर्ष पहले तक होता रहता था। किन्तु जबसे इस पर्वत पर माइनिंग-माफिया ने खननकार्य प्रारम्भ किया है, तबसे ऐसा होना बंद हो गया है।

जी हाँ, इन मूर्तियों के स्थान-परिवर्तन की बात पर तो मैं कोई कमेंट नहीं करना चाहता हूँ, किन्तु यह मैंने प्रत्यक्ष देखा है कि खनन-माफिया ने इस हमारे पवित्र-क्षेत्र का लगभग आधा पहाड़ तोड़कर उसके ग्रेनाइट के पत्थरों को बेच डाला है। अब लगभग आधा पहाड़ ही बचा हुआ है, जिसका भी प्रतिदिन खनन चालू है और लगभग पाँच से दस डंपर/ट्रैक्टर पत्थर इसमें से प्रतिदिन निकाला जा रहा है। पत्थरों से लदे डंपर और ट्रैक्टर मैंने स्वयं अपनी आँखों से देखे हैं। क्योंकि मैं दोपहर साढ़े ग्यारह बजे से दो बजे तक इस पहाड़ पर कड़कती धूप में यह सारा कार्य करता रहा था। लगभग पैंतालीस डिग्री सेल्सियस के ज्वलंत-तापमान में बिना किसी छाता या संसाधन के मुझे अपना शोधकार्य करना पड़ा था। समय की सीमितता एवं परिस्थितियों की विषमता के कारण ऐसा करना पड़ा।

इस गाँव में कहीं आचार्य कुन्दकुन्द देव बालक के रूप में जन्मे थे या कि इस पहाड़ पर उनका जन्म हुआ था?— यह कहना तो पोषक-प्रमाणों के अभाव में कठिन है; किन्तु यह सत्य है कि यह क्षेत्र सर्वश्रेष्ठ-आचार्य कुन्दकुन्द देव की जन्मभूमि रहा है। क्योंकि शिलालेखों से लेकर अन्य विविध-ग्रंथों व लोक-मान्यताओं से इस तथ्य की पुष्टि होती है। तथा “बाधक-प्रमाणाभावात्” की प्रबलतम-युक्ति इस तथ्य कापोषण करती है। क्योंकि अन्य कोई क्षेत्र आचार्य कुन्दकुन्द देव की जन्मभूमि के रूप में विख्यात नहीं है और न ही किसी अन्य ग्राम या नगर का नाम मुझे पर्याप्त शोधकार्य के बाद भी ‘कोणकुंडला’ के नाम से नहीं मिला है।

इसका मूलनाम सुनिश्चितरूप से यह (‘कोणकुंडला’) नहीं रहा होगा। क्योंकि ग्रन्थों में आचार्य कुन्दकुन्द देव की जन्मभूमि का नाम ‘कुन्दकुन्दपुर’ या ‘कोण्डकुण्डपुर’ मिलता है। अतः वही समीचीन मालूम होता है। क्योंकि आचार्य कुन्दकुन्द देव का मूलनाम तो ‘पद्मनंदि’ था। उन्हें ‘कुन्दकुन्दपुर’ का निवासी होने के कारण अन्य पद्मनंदि-नाम वालों से भिन्न पहिचानने के लिये “कौन से पद्मनंदि” “‘कुन्दकुन्दपुर’ वाले” — ऐसा कहे जाने से वे ‘कुन्दकुन्द’ के नाम से ही प्रसिद्ध हो गये थे। अतः इस ग्राम या स्थान का मूलनाम तो ‘कोण्डकुण्डपुर’ या ‘कुन्दकुन्दपुर’ ही रहा होगा।

बाद में इसे युगप्रधान आचार्य कुन्दकुन्द को भूतल पर लाने वाले के रूप में कुन्दकुन्द के नाम के साथ ‘ला’ यानि ‘लानेवाला’ जोड़कर इसे ‘कोणकुंडला’ बना दिया गया होगा। —ऐसा मेरा प्रबल-अनुमान है।

इस क्षेत्र को ‘जैन-तीर्थ’ के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने के लिये पिछले साठ वर्षों से सततरूप से प्रयत्नशील श्री चक्रवर्ती जी, जो कि ‘कोणकुंडला’ ग्राम में सरकारी स्कूल के प्रधानाचार्य रहे और अनेकों राष्ट्रिय एवं अन्तर्राष्ट्रिय सेमीनारों, संगोष्ठियों व सम्मेलनों के मंच पर पूरे पुष्ट-प्रमाणों के साथ अनेकों व्याख्या दिये, स्थानीय से लेकर राज्य-स्तरीय समाचारपत्रों में आलेख प्रकाशित कराये और विभिन्न-अवसरों पर ‘कोणकुंडला’ के ‘जैन-तीर्थ’ होने की पुष्टि करने के लिये विविध-प्रदर्शनियों का भी आयोजन अपने खर्च पर किया। यदि ऐसे जैनेतर-समाज के होते हुये भी दिगम्बर जैनों से सदियों से रहित इस क्षेत्र में इस स्थान को जैन-क्षेत्र के रूप में पहिचान दिलाने हेतु भगीरथ-प्रयत्न करनेवाले महानुभाव से नहीं मिलता, तो मेरी यह यात्रा अधूरी रह जाती।

किन्तु वे ‘कोणकुंडला’ ग्राम के स्कूल से रिटायर्ड होने के बाद उस ग्राम को छोड़कर अनंतपुर जिला-मुख्यालय में जा बसे थे। उनका कोई पता-ठिकाना भी हमारे पास नहीं था। ‘कोणकुंडला’ के सरपंच से लेकर अनेकों व्यक्तियों से मैंने उनके विषय में पूछा, तो उनकी प्रशंसा तो हरएक ने की; किन्तु पता नहीं मिल सका। किन्तु धर्मानुरागी भद्र-परिणामी भाई श्री अनन्तराय शेठ, मुंबई निवासी तो मुझसे भी कई वर्षों पहले से आचार्य कुन्दकुन्द देव के प्रत्येक स्थल के अनुसंधान एवं संरक्षण करके उनके विकास के लिये कृतसंकल्प हैं। अतः उन्होंने आचार्य कुन्दकुन्द देव की ‘तपोभूमि’ ‘पोन्नूरमलै’ में तो पूरा आचार्य कुन्दकुन्द सेंटर ही विकसित कर दिया है, जहाँ भव्य जिनमंदिर जी के निर्माण के साथ ही विशाल अतिथिगृह एवं शोधकेन्द्र स्थापित किया है। और आचार्य कुन्दकुन्द देव की समाधिस्थली ‘कुन्दाद्रि’ के पहाड़ पर जाने का पाँच-छह किमी. का पूरा रास्ता अत्यन्त-विषम-परिस्थितियों में प्रभूत-धनराशि खर्च करके बनवाया, जिससे आज वाहनों द्वारा सीधे पहाड़ के शिखर तक सुरक्षित पहुँचा जा सकता है। अन्यथा तो यह क्षेत्र आज भी सिंह आदि हिंसक-वन्यप्राणियों से भरा हुआ है।

उन्हीं अनंतराय जी शेठ के पास श्री चक्रवर्ती जी का अनंतपुर का आधा-अधूरा पता था, जिसके आधार पर खोजते हुये हम लोग श्री चक्रवर्ती जी के घर तक पहुँच गये। उन्हें हमसे मिलकर अपार खुशी हुई और वे बोले कि “चलो, इतने दशकों के बाद ही सही, कोई स्कॉलर इस क्षेत्र के लिये आया तो।” उन्होंने हर्षपूर्वक अन्य कई प्रमाण इस क्षेत्र के विषय में हमें दिये और अपनी दौहित्री को हमारे साथ भेज कर उनकी छायाप्रतियाँ हमें उपलब्ध करायीं। उन्होंने कहा कि “आप जैन लोग अब पूरा प्रयास करके इस क्षेत्र को बता लीजिये। अन्यथा कुछ और प्रमाद किया, तो यह क्षेत्र भूतल पर देखने को भी नहीं मिलेगा।” मैं श्री चक्रवर्ती जी से मिलकर आश्चर्यचकित व आनन्दविभोर था, क्योंकि उन्होंने ‘कोणकुंडला’ के विषय में पूरे एक कमरे में भरकर सामग्री एकत्रित कर रखा थी। उस जैनेतर-कुल में जन्मे जिनधर्मक्षेत्र के संरक्षक के प्रति हम श्रद्धावनत थे, जिसने अपनी गाढ़ी कमाई के हजारों रुपये खर्च करके इस जैन क्षेत्र की अस्मिता की रक्षा का अनवरत प्रयास किया।

‘कोणकुंडला’ से व अनंतपुर से सारे अपेक्षित प्रमाण संचित करने के बाद हम अनंतपुर जिले के जिला-कलेक्टर एवं जिला-मजिस्ट्रेट श्री जी. वीरापांडियन से मिलने उनके कार्यालय में गये और उन्हें इस क्षेत्र की सुरक्षा एवं विकास के लिये एक पत्र दिया एवं अपेक्षित सामग्री सौंपी। उन्होंने बड़ी आत्मीयतापूर्वक इस विषय में सार्थक प्रयास करने का आश्वासन दिया।

ज्ञातव्य है कि यह घटनाक्रम लगभग चार वर्ष प्राचीन है। तभी मैंने आचार्य कुन्दकुन्द देव की जन्मभूमि ‘कोणकुंडला’ पर यह आलेख लिखा था। तब से अब तक कई लोगों ने जागरुक होकर अपने प्रयास किये हैं और अन्ततः यह क्षेत्र स्थानीय प्रशासन ने दिगम्बर-जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी को सुपुर्द कर दिया है।

प्रो सुदीप कुमार जैन, नई दिल्ली, दूरभाष : 8750332266

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