दिगम्बर आम्नाय के प्रधान आचार्य, कलिकाल सर्वज्ञ, परम आध्यात्मिक संत #कुन्दकुन्द_स्वामी

0
2043

दिगम्बर आम्नाय के प्रधान आचार्य, कलिकाल सर्वज्ञ, परम आध्यात्मिक संत कुन्दकुन्द स्वामी हुए जिनके विषय में विद्वानों ने सर्वाधिक खोज की, जिनमें मुख्य विवरण इस प्रकार है ।
आप द्रविड़ देशस्थ कौण्डकुण्डपुर ग्राम के निवासी थे इस कारण कोण्डकुण्ड अथवा कुन्दकुन्द नाम से प्रसिद्ध हुए।

कुन्दकुन्दाचार्य के अन्य चार नाम पद्मनन्दि, वक्रग्रीवाचार्य, ऐलाचार्य व गृद्धपिच्छाचार्य थे।

आचार्य कुन्दकुन्द का काल लगभग अठारह सौ वर्ष (1800) पूर्व विक्रम संवत् 138-222 के मध्य माना गया है।आप श्री जिनचन्द्र के शिष्य तथा उमास्वामी के गुरु थे।

आचार्य कुन्दकुन्द के पास चारण ऋद्धि थी। वे धरती से चार अंगुल ऊपर गमन करते थे तथा उन्होंने विदेह क्षेत्र स्थित सीमंधर केवली (तीर्थकर) की साक्षात् वंदना की व उपदेश सुने।

विदेह क्षेत्र से लौटते हुए आचार्य श्री की पिच्छिका मार्ग में ही गिर पड़ी तब उन्होंने गृद्ध पक्षी के पंखों की पिच्छिका धारण की। तबसे आप गृद्धपिच्छिकाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।

विदेह क्षेत्र से लौट आने पर आचार्य महोदय सिद्धान्त के अध्ययन में, लेखन में इतने तन्मय हो गये कि उन्हें अपने शरीर का भी ध्यान नहीं रहा। गर्दन झुकाए हुए अध्ययन की उत्कटता के कारण उनकी गर्दन टेढ़ी पड़ गई और लोग उन्हें वक्रग्रीवाचार्य के नाम से संबोधित करने लगे। जब उन्हें अपनी इस अवस्था का ज्ञान हुआ तब अपने योग साधना के द्वारा उन्होने अपनी ग्रीवा ठीक कर ली थी।

आचार्य कुन्दकुन्द ने चौरासी पाहुड की रचना की थी, जिनमें बारह उपलब्ध है। समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पञ्चास्तिकाय, दर्शन पाहुड़ आदि से सहित अष्टपाहुड़ बारसाणुवेक्खा, सिद्ध, सुद, आइरिय, जोई, णिव्वाण, पंचगुरु और तित्थयर भक्ति ये सभी प्राकृत भाषा की रचनाएँ है एवं षट्खण्डागम ग्रन्थ पर परिकर्म नाम से बारह हजार श्लोक प्रमाण व्याख्या लिखि गई जो अनुपलब्ध है।

प्राकृत भाषा के अतिरिक्त तमिल भाषा पर भी आचार्य श्री का अधिकार था। तमिल भाषा में आपकी सर्वमान्य रचना ‘कुरल काव्य’ के नाम से प्रसिद्ध है यह अध्यात्म, नीति का सुंदर ग्रन्थ है। दक्षिण देश में यह तमिल वेद के नाम से प्रसिद्ध हैं।

एक बार कुन्दकुन्दाचार्य अपने विशाल संघ (594 साधु) सहित गिरनार यात्रा को पहुंचे। उसी समय शुक्लाचार्य के नेतृत्व में श्वेताम्बर संघ भी पहुँचा। श्वेताम्बर आचार्य अपने को प्राचीन मानते थे और चाहते थे कि पहले हमारा संघ यात्रा करें। शास्त्रार्थ के द्वारा निर्णय न होने पर संघ समूह ने निर्णय लिया कि इस पर्वत की रक्षिका देवी जो निर्णय देगी , देवी को आमंत्रित किया, उसने दिगम्बर संप्रदाय की प्राचीनता सिद्ध करते हुए कहा कि आदि दिगम्बरा ,आदि दिगम्बरा । सभी ने उनके निर्णय को स्वीकारा और दिगम्बर संघ ने सर्वप्रथम यात्रा की।