सप्तकोंकण का क्षेत्र कभी जैन धर्म का गढ़ और जैन बहुल क्षेत्र था। कदंब, चालुक्य, राष्ट्रकूट, यादव और शिलाहार जैसे जैन राजवंशों ने इस क्षेत्र पर शासन किया। जैन ग्रंथों में इस क्षेत्र के विभिन्न राजाओं के नामों का उल्लेख मिलता है जो जैन धर्म के महान श्रावक थे। प्राचीन जैन ग्रंथों में एक प्राचीन रत्न बहुत क्षेत्र का उल्लेख किया गया है जिसमें एक महान जैन राजा द्वारा नियंत्रित एक बड़ी हीरे की खान शामिल है।
*गोवा और कोंकण की जैन जातियां जो आज धर्मान्तरित हो चुकी है*
*1.शेणवी गौडा/गौड़ सारस्वत ब्राह्मण* -भूस्वामी/व्यापारी समुदाय। यह सोंदा जैन मठ में अकलंक देव और उनके गुरुपीठ के अनुयायी थे। इस क्षेत्र के पारंपरिक अभिजात वर्ग और व्यापारी वर्ग होने के नाते इन्होने राष्ट्रकूट, शिलाहार और यादव जैसे जैन राजवंशों के राज्यकाल में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। ऐसा माना जाता है कि शेणवी/गौड सारस्वत ब्राह्मण कदंब राजाओ के वंशज थे, इनने बाद में ब्राह्मण होने का दावा किया। ये विजयनगर काल में जैन से हिंदू बने और 150 साल पहले ब्राह्मण बन गए।
स्रोत-सर्वश्री बांबर्डेकर की कृतियाँ और केसरी में लोकमान्य तिलक की रचनाएँ।
*2. सोनार/दैवज्ञ ब्राह्मण* – यह कोंकण/गोवा के जौहरी और सुनार थे, जो स्वर्ण आभूषण के कार्य से जुड़े थे। विजयनगर काल में उडुपी अष्टमठों के सोंदा मठ में स्थित वादिराज तीर्थ द्वारा इनका जैन से हिंदू धर्म में धर्मांतरण हुआ। गौड सारस्वत ब्राह्मणों की तरह इन्होंने भी 100 साल पहले ब्राह्मण बनने की कोशिश की और प्रक्रिया अभी भी चल रही है।
स्रोत- वदिराज तीर्थ की आत्मकथाएँ।
*3. गुरव, कलावंत और अन्य मंदिर सेवक जातियाँ* – यह जाति प्राचीन काल में जैन थी,और जैन मंदिरों में पूजा-अर्चना आदि कार्यों से जुड़ी थी।
स्रोत- सी.के. दीक्षित द्वारा लिखित आडिवरेची महाकाली और जयंत बापट की रचनाएँ।
*4. पठारे प्रभु और सूर्यवंशी क्षत्रिय* – यह सूर्यवंशी क्षत्रिय थे, जिनकी उत्पत्ति तीर्थंकर ऋषभदेव से है। इनमें राणे, सुर्वे, शिर्के जैसे कुल आते है और यह मुंबई और उसके आसपास के क्षेत्रों के मूल निवासी भी हैं। इनको पुर्तगाली ईसाईयों ने जैन से इसाई में जबरदस्ती धर्मांतरण किया। गोवा के पोर्तुगालि दस्तावेजों में इन्हे “चारदोस” मतलब चतुर्थ (महाराष्ट्र और कर्नाटक की बड़ी जैन जाति भी हैं) कहा गया है। इनके वंशज खुद को रोमन कैथोलिक क्षत्रिय कहते हैं।
*5. कुणबी, भंडारी, न्हावी, शिंपी(सैतवाळ), वेलिप, कुंभार, तेली, धोबी, मातंग, सुतार, त्वष्टा कासार और वाणी* – इनको ऐतिहासिक रूप से शूद्र कहा जाता था व कुछ को चित्री। यह खुद को विश्वकर्मा मनुमय ब्राह्मण कहते हैं।
भंडारी, शिंपी, कुंभार, कासार बाकी महाराष्ट्र में अभी भी कुछ संख्या में जैन है।
स्रोत-स्व प्रकाशित जाति इतिहास और ब्रिटिश गजेटियर।
इसके अलावा भी कुछ और जातिय समुदाय का इतिहास जैन धर्म से संबंधित है।
*कोंकणी भाषा और जैन धर्म*
श्रवणबेलगोला में गोमतेश्वर बाहुबली की सुंदर मूर्ति के नीचे चामुंडराय शिलालेख कोंकणी भाषा के पहले शिलालेख के रूप में भी जाना जाता है। इसके माध्यम से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि तटीय कर्नाटक और केरल के शेणवी/जीएसबी और सोनार/दैवज्ञ कोंकणी भाषी समुदाय अतीत में भी जैन धर्म के कट्टर अनुयायी व संरक्षक थे।
शेणवी,सोनार और चारडोस समुदायों द्वारा व्यापारिक बही-खातों और औपचारिक दसतावेजो के लिए गोयकानाडी लिपि व कोंकणी भाषा का इस्तेमाल होता था। यह लिपि कदंब लिपि केविकसित हुई है और जैनमुुनियो द्वारा विकसित की गई थी। गोवा में पोरतुगाली शोषण के कारण इस लिपि का प्रचलन बंद हो गया।
*गोवा व कोंकण के प्रमुख परिवर्तित मंदिर*
1. मौखिक परंपरा बताती है कि गोकर्ण का महाबलेश्वर मंदिर मूल रूप से ऋषभनाथ भगवान को समर्पित था।
2. फोंडा के बांदोरा में स्थित महालक्ष्मी और नागेशी मंदिर एक बड़े जैन देवस्थान परिसर का हिस्सा थे, जिनमे मूलनायक देवता तीर्थंकर नेमिनाथ थे। गांव में पाए गए कन्नड़ शिलालेखों से संकेत मिलता है कि यह गांव जैनियों ने बसाया और सबसे पहले यहां तीर्थंकर नेमिनाथ स्वामी का मंदिर बनवाया। यह मंदिर के आज भग्नावशेष बचे हैं। गोवा में अन्य मंदिरों के विपरीत, दोनों मंदिर अपने मूल स्थान पर हैं। इस मंदिर के निर्माण में शेणवी गौड लोगों का बड़ा योगदान रहा और उनके द्वारा दान के शिलालेख भी मिलते हैं।
3. नारवे में सप्तकोटेश्वर मंदिर मूल रूप से तीर्थंकर मल्लिनाथ स्वामी का मंदिर है। जैन मूर्ति के खंडहर अक्सर मंदिर के आसपास पाए जाते हैं। यह गोवा के कदंब राजाओं का कुलदेव था।
4. कासरपाल में कालिका मंदिर को सोनार/दैवज्ञ ब्राह्मणों और त्वष्टा कसारों द्वारा कुलदेव के रूप में पूजा जाता है। यहां एक जैन मूर्ति है जिसे कुछ लोग गलती से बौद्ध बताने लगे हैं।
5. केळोशी/कवळे की शांतादुर्गा और कुशस्थली/मंगेशी की मंगेशी देवी मंदिर जैन मंदिर से परिवर्तित है।
स्रोत-महाराष्ट्र के गुरुव मंदिर के पुजारी जयंत बापट द्वारा।
6. कोंकण में स्थित रवळनाथ मंदिरों को अकलंक देव ने शेणवी जाति को एकत्रित करने व उनके श्रद्धास्थल के रुप में निर्मित कराया। यह अभी भी शेणवी/जीएसबी समुदाय(गौड सारस्वत ब्राह्मण) द्वारा कुलदेवता के रूप में पूजा जाता है, जिसका अर्थ रवळनाथ “रावलों के भगवान” है। रवळनाथ एक लोकप्रिय क्षेत्रपाल/ग्रामदेवता भी हैं।
स्रोत- गु.फ. आजगावकर और अनंत बांबर्डेकर का शोध
7. ब्रह्मदेव कोंकण के सभी गांवों में क्षेत्रपाल/ग्रामदेवता हैं, जो जैन धर्म से संबंधित है।
इसके अलावा भी गांवों में कई मंदिर जैन मंदिरों से परिवर्तित है।