#हाथीगुम्फा में चट्टान पर खुदी हुई सत्रह पंक्तियों वाला प्रसिद्ध #शिलालेख -193 ईसापूर्व कौन थे वो सबसे महान तथा प्रख्यात सम्राट

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भारत वर्ष में बहुत महान सम्राट हुए है जिसमें चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक महान, विक्रमादित्य आदि का नाम भारत के इतिहास में सम्मान पूर्वक लिया जाता है और इनका इतिहास हमें बचपन से पढ़ाया भी गया है। परन्तु भारत वर्ष में बहुत से जैन धर्म को अंगीकार करने वाले सम्राट एवं ठाकुर भी हुए है जिनके बारे में भारत के इतिहास में कभी भी नहीं पढ़ाया गया और ना ही उनको इतिहास में उचित स्थान दिया गया। जैन धर्म के प्राचीन इतिहास को आज तक समाप्त करने की हर सम्भव कोशिशें एक विशेष वर्ग के द्वारा की गई है। इन सब में कहीं ना कहीं हम भी शामिल है क्योंकि जैन लोगों ने भी अपने भव्य एवं प्राचीन इतिहास को नजरअंदाज किया है। इसी का नतीजा है कि आज हमारे मंदिरों एवं जमीनों पर कब्जा जमाए हुए बैठे है। आज जगह जगह हमारे समाज के मंदिरों एवं धार्मिक स्थलों का निर्माण हो रहा है परन्तु हम ऐतिहासिक धरोहरों के प्रति उदासीन है।

मैं आज आपको ऐसे ही एक महाप्रतापी, महापराक्रमी, तेजस्वी जैन सम्राट खारवेल के इतिहास के बारे में जानकारी प्रदान करने जा रहा हूँ जिसने पूरे अखण्ड भारत पे एक छत्र शासन स्थापित करके जैन धर्म की पताका को कन्याकुमारी से अफगानिस्तान तक फहराया थी।

आप सभी से अनुरोध है यह जानकारी हमारी नई पीढ़ी के साथ ज्यादा से ज्यादा शेयर करें ताकि नई पीढ़ी को हमारे गौरवशाली इतिहास के बारे में जानकारी प्राप्त हो सके।


महान जैन सम्राट महाराजा #खारवेल

खारवेल (193 ईसापूर्व) कलिंग (वर्तमान ओडिशा) में राज करने वाले महामेघवाहन वंश का तृतीय एवं सबसे महान तथा प्रख्यात सम्राट थे। खारवेल के बारे में सबसे महत्वपूर्ण जानकारी हाथीगुम्फा में चट्टान पर खुदी हुई सत्रह पंक्तियों वाला प्रसिद्ध शिलालेख है। हाथीगुम्फा, भुवनेश्वर के निकट उदयगिरि पहाड़ियों में है। इस शिलालेख के अनुसार वे जैन धर्म के अनुयायी थे।उन्होंने जैन समणो की एक विराट् सभा का भी आयोजन किया था, ऐसा उक्त प्रशस्ति से प्रकट होता है।
मौर्य साम्राज्य की अवनति के पश्चात् कलिंग में चेदि राजवंश का उदय हुआ। अनुमान किया जाता है कि चेदि वंश बुंदेलखंड के चेदि वंश की ही कोई उपशाखा थी जो कलिंग में स्थापित हो गई थी। खारवेल इस वंश का तीसरा नरेश था और इसे ‘कलिंग चक्रवर्ती’ कहा जाता है। उदयगिरि में हाथीगुफा के ऊपर एक अभिलेख है जिसमें इसकी प्रशस्ति अंकित है। उस प्रशस्ति के अनुसार यह जैन धर्म का अनुयायी था।
१० वर्ष की आयु में युवराज पद प्राप्त हुआ था तथा २४ वर्ष की अवस्था में वह महाराज पद पर आसीन हुआ। राज्यभार ग्रहण करने के दूसरे ही वर्ष सातकर्णि की उपेक्षा कर अपनी सेना दक्षिण विजय के लिए भेजी और मूषिक राज्य को जीत लिया। चौथे वर्ष पश्चिम दिशा की ओर उसकी सेना गई और भोजको ने उसकी अधीनता स्वीकर की, सातवें वर्ष उसने राजसूय यज्ञ किया। उसने मगध पर भी चढ़ाई की। उस समय मगध नरेश वृहस्पति मित्र था। इस अभियान में वह उस जिनमूर्ति को उठाकर वापस ले गया जिसे नंदराज अपने कलिंग विजय के समय ले आया था।

खारवेल, चेदि वंश और कलिंग के इतिहास के ही नहीं, पूरे प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रमुख शासकों में से है। हाथीगुंफा के अभिलेख के विवरण में अतिशयोक्ति की संभावना के पश्चात् भी जो शेष बचता है, उससे स्पष्ट है कि खारवेल असाधारण योग्यता का सेनानायक था और उसने कलिंग की जैसी प्रतिष्ठा बना दी वैसी बाद की कई शताब्दियों संभव नहीं हुई।

15 वर्ष की आयु तक खारवेल ने राजोचित विद्याएँ सीखीं। 16वें वर्ष में वह युवराज बना। 24वें वर्ष में उसका राज्याभिषेक हुआ। सिंहासन पर बैठते ही उसने दिग्विजय प्रारंभ की। शासन के दूसरे वर्ष में उसने सातकर्णि (सातवाहन नरेश सातकर्णि प्रथम) का बिना विचार किए एक विशाल सेना पश्चिम की ओर भेजी जो कण्णवेंणा नदी (कृष्णा) पर स्थित असिक नगर (ऋषिक नगर) तक गई थी। चौथे वर्ष में उसने विद्याधर नाम के एक राजा की राजधानी पर अधिकार कर लिया और राष्ट्रिक तथा भोजों को पराभूत किया, जो संभवत: विदर्भ में राज्य करते थे। आठवें वर्ष में उसने बराबर पहाड़ी पर स्थित गोरथगिरि के दुर्ग का ध्वंस किया और राजगृह को घेर लिया। इस समाचार से एक यवनराज के हृदय में इतना भय उत्पन्न हुआ कि वह मथुरा भाग गया। 10वें वर्ष में उसने भारतवर्ष (गंगा की घाटी) पर फिर से आक्रमण किया। 11वें वर्ष में उसकी सेना ने पिथुंड को नष्ट किया और विजय करती हुई वह पांड्य राज्य तक पहुँच गई। 12वें वर्ष उसने उत्तरापथ पर फिर आक्रमण किया और मगध के राजा बहसतिमित (बृहस्त्स्वातिमित्र) को संभवत: गंगा के तट पर पराजित किया। उसकी इन विजयों के कारण उसकी रानी के अभिलेख में उसके लिए प्रयुक्त चक्रवर्तिन् शब्द उपयुक्त ही है।

खारवेल जैन था। उसने और उसकी रानी ने जैन भिक्षुओं के निर्वाह के लिए व्यवस्था की और उनके आवास के लिए गुफाओं का निर्माण कराया। किंतु वह धर्म के विषय में संकुचित दृष्टिकोण का नहीं था। उसने अन्य सभी देवताओं के मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया। वह सभी संप्रदायों का समान आदर करता था।

खारवेल का प्रजा के हित का सदैव ध्यान रहता था और उसके लिए वह व्यय की चिंता नहीं करता था। उसने नगर और गाँवों की प्रजा का प्रिय बनने के लिए उन्हें करमुक्त भी किया था। पहले नंदराज द्वारा बनवाई गई एक नहर की लंबाई उसने बढ़वाई थी। उसे स्वयं संगीत में अभिरुचि थी और जनता के मनोरंजन के लिये वह नृत्य और सगीत के समारोहों का भी आयोजन करता था। खारवेल को भवननिर्माण में भी रुचि थी। उसने एक भव्य ‘महाविजय-प्रासाद’ नामक राजभवन भी बनवाया था।

खारवेल के पश्चात् चेदि राजवंश के संबंध में हमें कोई सुनिश्चित बात नहीं ज्ञात होती।
तपन जैन(बिनायक्या) , सुजानगढ़ राजस्थान , 7014690336