खंडेलवाल समाज जैन-धर्म की वह जाति है जिसकी उत्पत्ति 9वीं-10वीं शताब्दी के आसपास राजस्थान में ऐसे समय हुई थी जब उत्तर भारत से जैन धर्म एक तरह से लुप्त ही हो गया था,राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष की भावना पर आचार्य जिनसेन मुनि ने शेखावाटी के लोगों को जैन धर्म में स्थितिकरण का महान कार्य आरंभ किया,सर्वप्रथम खंडेला गांव के चौहान वंशीय राजा खंडेलगिरि ने जैनधर्म अपनाया और अपने अधीनस्थ सामंतों,प्रजाजनों को जैन धर्म अपनाने की प्रेरणा दी।
राजस्थान के इतिहास के आधार पर खोज करने से मालूम होता है कि खंडेलवाल जाति एक दिन में नहीं बनी बल्कि लगभग 6 शताब्दियों तक इस जाति में नए लोग शामिल होते रहे,जहां भी कोई जैन मुनि जाते और वहां की जनता उनसे प्रभावित होती तो उनको अणुव्रत देकर जैन-धर्म स्वीकार कराया जाता था,तब पूर्व का खंडेलवाल समाज उनसे रोटी-बेटी का रिश्ता जोड़ता वह एक नया गोत्र उनको मिल जाता था। कई लोग तो मध्यकाल में खंडेलवाल बने थे, खंडेलवाल जाति में 84 से अधिक गोत्र है यह 84 गोत्र अलग-अलग गांवों के लोगों (खासकर क्षत्रियों) द्वारा जैन-धर्म में घर वापसी करने पर उनके गांव के नाम के आधार पर दिये जाते था,अधिकतर खंडेलवाल जैन राजस्थान के शेखावाटी प्रदेश से है।
शाकंभरी-अजमेर क्षेत्र के चौहान वंश के लोगों ने सर्वाधिक जैन-धर्म में घर वापसी की, इसलिए सर्वाधिक गोत्र भी उन्हीं के है। राठौड़,प्रतिहार,कछवाहा,सोलंकी,तंवर,पंवार,चन्देल,मीणा, राठौड़,सोढ़ा,यादव,गौड़,गहलोत आदि क्षत्रिय शाखाओं के ठिकाने 6 शताब्दियों में जैन बने,क्षत्रियों के अलावा अन्य जातियो के लोग भी जैन बने थे,चूंकि जैन-धर्म में क्षत्रिय को सबमें श्रेष्ठ माना गया है इसलिए अन्य जातीय लोगों को भी इन्हीं में शामिल कर लिया गया,क्षत्रिय कुलों की तरफ दृष्टिपात करने पर मालूम होता है खंडेलवाल अभियान राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र तक नहीं पहुंच पाया था शायद इसलिए शायद गुहिल-सिसोदिया इसमें नहीं जुड़ पाए और राठौडो का गोत्र भी केवल एक ही है। इस तरह खंडेलवाल जाति निर्मित हुई।
पर कालांतर में कई जैन खंडेलवाल भटककर अन्यमत में भी चले गए जो आज खंडेलवाल वैश्य,ब्राह्मण आदि कहलाते है, एक शैव साधू के बहकावे में आकर बहुत से खंडेलवाल शैवधर्मी भी हो गए जिन्हें माहेश्वरी कहा गया।जैन-धर्म से दूर होने के इनके कई कारण रहे। उनकी घर-वापसी हेतु भी कोई विशेष प्रयास शायद नहीं हो पाए। साथ ही एक चिंतनीय पहलू है कि क्या कारण रहे होंगे कि खंडेलवाल जाति में नए श्रावकों का प्रवेश रुक गया ? संभवतः रुचिवन्त साधू या भट्टारक की अनुपस्थिति इस ओर संकेत करती है,ठीक ऐसा ही बघेरवाल,ओसवाल आदि जातियों के साथ है,जिनकी उत्पत्ति भी इसी समय राजस्थान में हुई थी,ओसवाल जाति में तो 18 वीं शताब्दी तक नए लोग सम्मिलित होते रहे।
हमारे पूर्वाचार्यों,भट्टारको,यतियों के हम पर अनंत उपकार है जो उन्होंने इस मरुभूमि में लुप्त हो चुके जैन धर्म को पुनः जीवंत किया और लाखों जैन बनाए आज जैन-धर्म की पताका चारों तरफ फहरा रही है,जिसमें आचार्य जिनसेन,रत्नप्रभ,लोहाचार्य,चारों दादा गुरु आदि अनेको संतों के योगदान हम नहीं भूले सकते। जिनके सद्प्रयासों ने लाखों लोगों को हिंसा का त्याग कराकर सदराह दिखाई और जैन-धर्म को वर्द्धित किया,क्या यह कार्य आज पुनः नहीं होना चाहिए,हमारे पास हजारों की संख्या में श्रमण-श्रमणियां है, लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था है सबको अपने-अपने धर्म के प्रचार करने की छूट है, विज्ञान के माध्यम से हमारे धर्म की सिद्धि हो रही है।
क्या ऐसे समय में पुनः खंडेलवाल,ओसवाल,बघेरवाल जैसी जातियां बनाने की ओर हमें प्रयत्न नहीं करने चाहिए,आगम में एक जीव को मांसाहार का त्याग कराने का पुण्य एक सुमेरु पर्वत जितना सोना दान करने के बराबर माना गया है,तो एक जीव को मांसाहार छुड़ाकर,गलत राह छुड़ाकर वीतराग मार्ग पर लाने का पुण्य क्या होगा हमें सोचना चाहिए, जिन्होंने खंडेलवाल, बघेरवाल जैसी जातियां बनाई उन महान जीवों ने कितना पुण्य बांधा होगा,आज हजारों साल बाद भी खंडेलगिरि राजा के कुल में शाकाहार चल रहा है,वीतराग प्रभु की पूजन-आराधना चल रही है इसके पुण्य का एक अंश निश्चित उस आत्मा को लगेगा जिनने खंडेलगिरि को जैन बनाया। निश्चित हमें इस कार्य को पुनः प्रारंभ करना चाहिए जिससे जैन-धर्म भी आगे बढ़े,और दुनिया में हिंसा का तांडव समाप्त हो ,नशाखोरी खत्म हो,सभी लोग सज्जन बने।आइए इस दिशा में बढ़े और अमोघवर्ष,जिनसेन के सपनों का भारत बनाए।
-सोशल मीडिया पर आई एक पोस्ट से
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