कश्मीर में जैन धर्म पर विशेष अंबेडकर विवि में व्याख्यान का आयोजन
महू। वर्तमान में जैन संस्कृति और कश्मीर दो अलग-अलग धाराएं प्रतीत होती हैं जबकि विगत में जैन संस्कृति के लिए कश्मीर का एक विशिष्ट स्थान है। जिसके साहित्यिक और ऐतिहासिक साक्ष्य अनेक ग्रंथों में उपलब्ध हैं कश्मीर की ऐतिहासिकता पर जानकारी देने वाला प्रमुख प्रमाणिक ग्रंथ कवि कल्हन द्वारा रचित राजतरंगनी है। जिसमें जैन धर्म के कश्मीर में प्रभाव का वर्णन मिलता है। 1445 ईस्वी से पूर्व के अनेक राजाओं का उल्लेख किस में मिलता है।
गोविंद वंश के राजा सत्य प्रतिज्ञ अशोक और उनके पुत्र मेघवाहन, ललितादित्य के समय में जैन धर्म कश्मीर में अपनी पराकाष्ठा पर था। जैन आचार्य वप्पटटसूरी और हेमचंद्राचार्य का संबंध भी कश्मीर से रहा है। कश्मीर के मूल निवासी कश्मीरी पंडित जी मूल रूप से जैन धर्मावलंबी ही थे जो मुसलमान कश्मीर में अपने नाम के आगे भट्ट लगाते हैं वह सब कश्मीरी पंडित थे जो धर्मांतरण के बाद मुस्लिम हो गए आज कश्मीर में एक भी जैन परिवार नहीं है। नालंदा और तक्षशिला से पूर्व कश्मीर विद्या अध्ययन का और साधना का बहुत बड़ा केंद्र था एशिया का यह केंद्र स्थल जैन, बौद्ध और वेदांत परंपरा का सबसे बड़ा केंद्र माना जा सकता है। अमीर की भाषा का सूत्र प्राकृत है और हां प्रचलित शारदा लिपि का स्रोत भी ब्राह्मी लिपि ही है।
ईसामसीह, हेनमांग, नागार्जुन, शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट जैसे ऐतिहासिक आचार्य भी कश्मीर गए थे। अ कश्मीर का नाम कश्यप ऋषि के नाम से है इसके साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध हैं।
अमरनाथ की छड़ी यात्रा परंपरा से चली आ रही जैन छड़ी यात्रा का ही रुप है। सिकंदर लोधी, तैमूर वंश और औरंगजेब आदि शासकों ने यहां की ऐतिहासिकता को नष्ट किया यहां की प्राचीन पांडुलिपियों को जला दिया और महान जैन संत परंपरा के अवशेषों को नष्ट कर दिया आज स्थिति यह है कि कश्मीर में कोई जैन अवशेष नहीं बचा जबकि पुरातात्विक अवशेषों में हजारों की संख्या में जैन मूर्तियों के अवशेष मिलते हैं उक्त विचार “कश्मीर में जैन धर्म” विषय पर आयोजित विशेष व्याख्यान के अवसर पर जैनोलॉजी की विशेषक डा. लता बोथरा ने विगत दिवस में व्यक्त किए।
इस विषेश व्याख्यान का आयोजन ‘जैन दर्शन शोध पीठ’ डा. बी आर अंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय महू के द्वारा किया गया था। जिसकी अध्यक्षता विश्वविद्यालय की कुलपति प्रोफेसर आशा शुक्ला ने की और अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय की शोध पीठ ऐसे विलुप्त हो गए इतिहास को पुनर प्रतिष्ठित करने के लिए शोध कार्य को प्रोत्साहित करना चाहती है जिससे इतिहासिक वास्तविकताएं सामने आ सकें।
राम के प्रारंभ में जैन दर्शन शोध पीठ के मानद आचार्य डॉ जितेंद्र बाबूलाल शाह ने मुख्य वक्ता लता बोथरा का परिचय देते हुए का परिचय देते हुए विषय परिवर्तन किया, कार्यक्रम का संचालन डॉ बिंदिया तातेड शोध पीठ के सहसमन्वयक ने किया आभार प्रदर्शन डा सुरेन्द्र पाठक ने किया। इस विशेष व्याख्यान में अनेकों जैन विद्वानों विश्वविद्यालय के अधिष्ठाताओं, अध्यापकों ने अपनी भागीदारी की।
मानद आचार्य : प्रो. जितेंद्र बी. शाह 9825800126 , समन्वयक : डा. सुरेन्द्र पाठक 8527630124, सह समन्वयक : बिंदिया तातेड़ : 9610958099
– आयोजक , जैन दर्शन शोधपीठ, डॉ. बी.आर. अंबेडकर विश्वविद्यालय, महू (म.प्र.)