तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ, श्री चंद्रप्रभ, श्री श्रेयांशनाथ तथा पारसनाथ के गर्भ, जन्म , दीक्षा, ज्ञान कल्याणकों का सौभाग्य काशी नगरी को

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10 जून 2022/ जयेष्ठ शुक्ल एकादिशि /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/
काशी राजघराने में तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ और उनकी शिक्षाएं

काशी नगरी सर्वधर्म सदभाव के लिए जानी जाती है । धार्मिक -सांस्कृतिक नगरी काशी आज भी एक रहस्य ही है। जो भी काशी को पूरी तरह समझना चाहता है और सोचता है काशी बस यही है यही से काशी की नई गाथा शुरू हो जाती है। सनातन, बौद्ध के साथ ही वाराणसी जैन तीर्थ का बड़ा स्थल है। वाराणसी कई धर्म, स्थान एवं पूजन पद्धतियों के महत्वपूर्ण धार्मिक स्थान और संस्थान के लिए जाना जाता है । विश्व के प्राचीनतम नगरों में से वाराणसी एक प्रसिद्ध धार्मिक एवं सांस्कृतिक नगरी के रूप में विश्व विख्यात है।
आप पाएंगे कि इस शहर में अभी भी विभिन्न संप्रदायों के प्राचीन उपासना पद्धतियों का प्रचलन है। यह बुद्ध, जैन तीर्थंकर, शैव और वैष्णव संतों या कबीर और तुलसी जैसे पवित्र संतों की कर्मस्थली रही है । वाराणसी प्राचीन श्रमण संस्कृति की विभिन्न घटनाओं की साक्षी है। जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों में से 4 तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ, श्री चंद्रप्रभ, श्री श्रेयांशनाथ तथा पारसनाथ के गर्भ, जन्म , दीक्षा, ज्ञान कल्याणकों का सौभाग्य इस नगरी को प्राप्त हुआ है।

वाराणसी में पवित्र गंगा के सुरम्य तट प्रभु जैन घाट पर भदैनी तीर्थ स्थित श्री सुपार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर उसी स्थान पर स्थित है जहां जैन धर्म के सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का गर्भ, जन्म कल्याणक मनाया गया था।
सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के पिता वाराणसी के शासक थे। उनका नाम राजा सुप्रतिष्ठि था तथा उनकी महारानी का नाम पृथ्वीदेवी था। ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का जन्म हुआ । जिसका उल्लेख प्रसिद्ध जैन ग्रंथ तिलोयपण्णत्ति में किया गया है। जिसमें कहा गया है कि -‘सुपार्श्वनाथ देव नगरी में माता पृथ्वी और पिता सुप्रतिष्ठि से ज्येष्ठ शुक्ला 12 के दिन विशाखा नक्षत्र में उत्पन्न हुए।

तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का चिन्ह स्वस्तिक है , जिसे संपूर्ण भारतीय संस्कृति में समादृत एवं सर्वोच्च स्थान मिला हुआ है । कार्यारंभ के पूर्व स्वस्तिवाचन और उसका चिन्हांकन करना अनिवार्य अंग के रूप में स्वीकृत है । तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का संबंध इतिहासवेत्ताओं ने नाग जाति और नाग पूजा के साथ जोड़ा है ।

तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ कि इस जन्मभूमि का संपूर्ण तीर्थक्षेत्र प्राचीन जैन संस्कृति का एक महान केंद्र रहा है। वर्तमान में वाराणसी में स्थित भदैनी क्षेत्र में गंगा किनारे दो दिगंबर जैन मंदिर और मध्य में एक श्वेतांबर जैन मंदिर है । ऐसा लगता है कि गंगा के किनारे तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के पिता का विशाल महल रहा है, जहां इनका जन्म हुआ । इसलिए वर्तमान के तीनों मंदिर इन की जन्मभूमि से गौरवान्वित माने जाते हैं । वर्तमान मंदिर की वेदी में मूलनायक तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की श्वेत पाषाण की पद्मासन प्रतिमा है जिसकी अवगाहना 15 इंच है। इस मूलनायक प्रतिमा के अतिरिक्त दो श्वेत पाषाण की और एक कृष्ण पाषाण की तथा एक पीतल की प्रतिमा भी विराजमान है।

गर्भ गृह के द्वार पर दाएं- बाएं में मातंग यक्ष और काली यक्षी बनी हुई है। यक्ष का वाहन सिंह है और यक्षी वृषभरुढ़ा है।
गर्भगृह के बाहर कक्ष में एक क्षेत्रपाल जी विराजमान हैं । एक आले में चरण विराजमान हैं । मंदिर का शिखर बहुत ही सुंदर बना हुआ है। मंदिर के दोनों ओर खुली छत है। यहां से गंगा का मनोहारी दृश्य बहुत ही आकर्षक लगता है जो अवलोकनीय है। गंगा नदी के तट पर बना हुआ जिनालय स्थापत्य कला को सुशोभित कर रहा है ।
नीचे गर्भ गृह मंदिर में क्षेत्रपाल एवं देवी पद्मावती मंदिर भी विराजमान है । जैनधर्म के 23 वे तीर्थंकर पार्श्वनाथ के जीवन की एक ऐतिहासिक घटना जुड़ी होने से जैन घाट पर तीर्थंकर पार्श्वनाथ के चरण चिन्ह भी विराजमान हैं।

मंदिर का निर्माण प्रभुदास जैन ने किया था। इनके परिवारजन श्री अजय जैन, प्रशांत जैन आरा आदि आज भी इस क्षेत्र की देख-रेख में संलग्न हैं।
इस तीर्थक्षेत्र के नीचे गणेश प्रसाद जी वर्णी जी द्वारा 1905 में स्थापित श्री स्याद्वाद महाविद्यालय स्थित है। सामने जैन छात्रावास स्थित है। हजारों उत्कृष्ट विद्वान इस महाविद्यालय में पढ़कर तैयार हुए, जिन्होंने राष्ट्र, साहित्य, संस्कृति, जैनधर्म की उल्लेखनीय सेवा की और निरंतर अभी भी जारी है। आज भी देश के विभिन्न प्रान्तों के विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों तथा अन्य संस्थानों में इसी महाविद्यालय में पढ़े विद्वान उच्च पदस्थ होकर अपनी महती सेवाएं प्रदान कर रहे हैं।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में यहां के विद्यार्थियों ने जो योगदान दिया वह अपने आप में गौरवशाली है। सन 1921 के असहयोग आंदोलन, सन 1932 के सत्याग्रह, सन 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में यहां के अनेक छात्रों ने अपनी अहम भूमिका निभाई है। सन 1942 जिसे हम अगस्त आंदोलन के नाम से जानते हैं, में तो यह विद्यालय विद्यार्थियों का शस्त्रागार ही बन गया था। यहां के अनेक छात्र इस आंदोलन में पिस्तौल आदि के रखने में जेल भेजे गए, रातों रात जागकर भूखे -प्यासे रहकर इस आंदोलन में यहाँ के छात्र पूरे समर्पण से कूद पड़े थे। ‘रणभेरी’ नाम से पर्चे छापकर वितरित करते हुए भी अनेक छात्र पकड़े गए फिर भी निराश नहीं हुये और आंदोलन में जुटे रहे। इस विद्यालय के संस्थापक गणेश प्रसाद वर्णी ने जबलपुर में अपनी चादर देश के खातिर नीलाम कर दी थी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी इस विद्यालय से बहुत प्रभावित थे।

मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे भी यहाँ पांच वर्ष अध्ययन करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है।
सुपार्श्वनाथ का बचपन व्यतीत होने पर जब उन्होंने युवावस्था में कदम रखा तो महाराजा सुप्रतिष्ठ ने उनका विवाह किया और कुछ ही समय बाद उनका राज्याभिषेक कर स्वयं मुनि-दीक्षा ले ली। इसके पश्चात सुपार्श्वनाथ सैकड़ों वर्षों तक न्यायपूर्वक प्रजा का लालन-पालन करते रहे। राजसी वैभव के बीच भी उनकी वृत्ति संयमित थी। इसी प्रकार दिन बीतते गए और एक दिन वे महल में टहल रहे थे, तभी उनकी दृष्टि वृक्षों से गिरते पत्तों और वहां पड़े मुरझाए फूलों पर पड़ी। उन्हें तत्क्षण ही जीवन की नश्वरता का बोध गया। वे सोचने लगे कि उन्होंने व्यर्थ ही इतने वर्ष सांसारिक सुखों की भेंट चढ़ा दिए। उसी क्षण उन्होंने राज-पाट का भार अपने पुत्र को सौंपकर ज्येष्ठ मास की त्रयोदशी तिथि को वाराणसी में ही मुनि-दीक्षा ली और वन-वन भ्रमण कर कठोर तप करने लगे। आज भी यहाँ आपको उनके जन्म कर्म से जुडी गाथा – चित्र देखने को मिलेगी।

भगवान श्री सुपार्श्वनाथ जी ने हमेशा सत्य का समर्थन किया और अपने अनुयायियों को अनर्थ हिंसा से बचने और न्याय के मूल्य को समझने का सन्देश दिया। उनकी शिक्षायें एक अहिंसक, त्यागपूर्ण तथा प्रेमपूर्ण विश्व व्यवस्था के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं क्योंकि उनकी शिक्षायें सारी मानव जाति के लिए हैं। इतने वर्षों के बाद भी भगवान सुपार्श्वनाथ का नाम स्मरण उसी श्रद्धा और भक्ति से लिया जाता है, इसका मूल कारण यह है कि उन्होंने इस जगत को न केवल मुक्ति का संदेश दिया, अपितु मुक्ति की सरल और सच्ची राह भी बताई। त्याग और संयम, प्रेम और करुणा, शील और सदाचार ही उनके प्रवचनों का सार था। वर्तमान में पूरा विश्व कोरोना वायरस की चपेट में है, ऐसे में तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के उपदेश अधिक प्रासङ्गिक हो जाते हैं।

फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की सप्तमी के दिन भगवान श्री सुपार्श्वनाथ ने सम्मेद शिखर पर निर्वाण को प्राप्त किया था।
जन्मभूमि जैन घाट भदैनी वाराणसी में वार्षिक उत्सव एवं विशाल पूजा पाठ एवं भगवान सुपार्श्वनाथ की जयंती को बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। 11 जून 2022 को भगवान
सुपार्श्वनाथ का अभिषेक, शांतिधारा आदि विधि विधान के साथ किया जाएगा।

भदैनी जैन घाट पर स्थित इस तीर्थक्षेत्र का जैन परंपरा में अत्यधिक महत्त्व होने से प्रतिवर्ष यहाँ हजारों यात्री देश-विदेश से दर्शन के लिए आते हैं साथ ही बड़ी संख्या में पर्यटक भी आते रहते हैं। क्षेत्र का कायाकल्प निरंतर जारी है।

11 जून 2022 को प्रातः 7 बजे से तीर्थंकर श्री 1008 सुपार्श्वनाथ भगवान के जन्म कल्याणक दिवस पर वाराणसी में उनकी जन्म भूमि पर स्थित मन्दिर में जन्माभिषेक महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है।

-डॉ सुनील जैन संचय, ललितपुर