कंकाली टीला: जैनों का अतुलनीय इतिहास – सत्ता या समाज: कोई नहीं कर रहा प्रयास

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कृष्ण जन्मभूमि का जबर्दस्त विकास और 3 किमी. पर मिट रही जैन विरासत
॰ दिल्ली से 148 किमी. की दूरी पर कंकाली टीला, जहां 737 जैन मूर्तियां निकली, आज भी हजारों हो सकती हैं, वहां न जैनों की पहचान, न कोई देखने जा रहा
॰ आचार्य श्री सुनील सागर जी, पिछले 25 वर्षों में केवल तीसरे संत, जो वहां पहुंचे, पर जैन गायब
॰ पुरातत्व विभाग से संरक्षित, पर चारों तरफ अवैध निर्माण
॰ कहां गये शेष 4 स्तूप, मिटाई जा रही जैन संस्कृति…
जहाँ से मिली 737 मूर्तियां, वहां पर जैनों का अता-पता नहीं –

06 मार्च 2024 / फाल्गुन कृष्ण एकादिशि /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/ शरद जैन /EXCLUSIVE
किसी देश के अतुलनीय वैभव की गणना होती है उसकी पुरातन, संस्कृति और किसी समाज धर्म की पहचान होती है, उसके प्राचीन मूर्तियों, ग्रंथों से। अगर किसी का वर्तमान नष्ट करने की शुरुआत करनी है, तो पहले उसका अतीत खत्म कर दो, संकीर्ण कर दो। आज यही कुछ हो रहा है, जैन संस्कृति, धर्म, विरासत-समाज के साथ। अपनी लकीर लम्बी करने के बजाय, दूसरी लकीर को मिटाने के कथित प्रयास यदा-कदा सामने आने लगे हैं। जैन पुरातन की कला के आज इस भाग में मथुरा के कंकाली टीले से सांध्य महालक्ष्मी व चैनल महालक्ष्मी एक शुरुआत करेगा और आशा करते हैं कि इच्छा रहित सत्ता और सोता समाज इस ओर कोई जागरूक कदम जरूर उठायेगा।

गुरुवार 22 फरवरी 2024 को प्रात: आचार्य श्री सुनील सागरजी ससंघ के दर्शन करने पहुंच गई चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी टीम मथुरा चौरासी में। उस समय उनके सान्निध्य में, उनके मुखारबिन्द से मूल वेदी पर तीर्थंकर अजितनाथ जी शांतिधारा पर जारी थी। यहां यह बताना चाहेंगे कि इससे पूर्व आचार्य श्री के सान्निध्य में ऋषभ विहार, दिल्ली चातुर्मास में जैन इतिहास का स्वाध्याय करने का सुअवसर मिला और उनमें से ही एक ‘मथुरा का संस्कृतिक जैन पुरा वैभव’ पुस्तक आचार्य श्री द्वारा मनन करने के बाद हम को दी। अब तक दसियों बार मथुरा चौरासी जाने का सौभाग्य तो मिला, पर यहां की वैभवशाली जैन संस्कृति को जानने का प्रयास नहीं किया और शायद जैन समाज ने भी नहीं किया।

आचार्य श्री सुनील सागर जी कहीं भी विहार करें, वे वहां के एतिहासिक स्थलों, संस्कृति को देखना कभी नहीं भूलते, चाहे दिल्ली रहा हो या फिर अब मथुरा। आचार्य श्री ने कहा – चलो कृष्ण जन्म भूमि औरकंकाली टीला देखते हैं। कृष्ण जन्म भूमि में प्रवेश से पहले मोबाइल, घड़ी, पेन, कोई अन्य सामग्री, सब कुछ रोक दिया जाता है, कहां रखे, अपनी व्यवस्था कर ले, कहां, सुरक्षित रहेगा इसकी कोई गांरटी नहीं, स्पष्ट निर्देश मिल जाता है। जैसी सुरक्षा व्यवस्था यहां है, ऐसी क्यों गिरनार या शिखर जी जैसे जैन तीर्थों पर नहीं की जाती, सरकार-प्रशासन द्वारा यह चिंतन का विषय है। क्या वोटो की राजनीति या खोपड़ियों की बहुसंख्यता से ही सुचारु व्यवस्था का चक्का चलता है, या फिर अन्य प्राचीन संस्कृति को प्राकृतिक व मानवीय मार को झेलने या यूं ही नष्ट होने के लिये छोड़ दिया जाता है?
खैर, आचार्य श्री जी के पूरे संघ के साथ, कृष्ण जन्मभूमि क्षेत्र में पुरातन या हजारों वर्ष प्राचीन तो कुछ खास नहीं मिला, हां! पिछले 50-100 सालों में यहां खूब नव निर्माण कर, वैदिक संस्कृति को और निखारने का खूबी प्रयास किया गया है।

अब चले कंकाली टीले की ओर आचार्य श्री संघ के साथ लगभग 3 किमी की पद यात्रा में दोनों तरफ, संघ को देखते जन-समूह के चेहरे देखने से स्पष्ट लग रहा था कि मथुरावासियों ने निकट अतीत में इतना बढ़ा दिगंबर संतों का संघ पहली बार देखा था। इस बात की पुष्टि साथ चल रहे अशोक जी ने भी कर दी। उन्होंने ही बताया कि पिछले 30-40 वर्षों में आचार्य श्री सुनील सागरजी केवल तीसरे जैन संत हैं, जो कंकाली टीले आदि पर स्वंय जाकर जैन संस्कृति को देख रहे हैं। इससे पहले आचार्यश्री ज्ञानसागरजी और गणिनी आर्यिका ज्ञानमति माता जी ने भी ऐसे प्रयास किये।

आचार्य श्री द्वारा हमें कराये गये मथुरा जैन संस्कृति का अध्ययन, आज हमारे भीतर उत्साह भर रहा था। जानकारी प्राप्त करनी चाही कि टीले का नाम कंकाली क्यों, नहीं पता चला बस पास में ही कंकाली देवी का मंदिर है, इसलिये यह कंकाली टीला कहलाया होगा। इतना तो अध्ययन से स्पष्ट था कि प्रसिद्ध इतिहासकार लूडर्स, व्हूलर, फ्लीट, कनिंघम, भण्डारकर, रैप्सन, स्मिथ, फूहटर, स्टेन, कोनो आदि सभी ने स्वीकार किया है कि बौद्ध और हिंदू प्रमाण के साथ यहां जो 90 फीसदी मूर्ति, शिलालेख, आदि मिले वो जैन ही हैं, जो स्पष्ट करता है कि सबसे पहले यह जैन वैभवशाली क्षेत्र रहा, जिसे आज बिल्कुल गौण कर दिया है, जैसे अयोध्या के जैन इतिहास को। पांच तीर्थंकरों की जन्म-कर्म भूमि, प्रथम चक्रवर्ती भरत की स्थली, जिनके नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा, उस इतिहास को उतनी प्रमुखता नहीं दी जाती, जितनी श्री राम मन्दिर को। हां, तो आचार्य श्री के तेज कदमों के साथ लय मिलाने की कोशिश में यहां की चर्चा, लगभग 3 किमी जारी रही। यह कंकाली टीला बीएसए कॉलेज और भूतेश्वर चौराहे की बीच है। यही पर चौमुंहा गांव बहुत ही प्राचीन है, जो चौमुखा यानि समोशरण को प्रकाशित करता है। इतिहास कहता है कि यहां पारस प्रभु और महावीर स्वामी का समोशरण आया होगा। यह कंकाली टीला उत्तर प्रदेश के मथुरा में यानि दिल्ली से 145 किमी दक्षिण पूर्व तथा 50 किमी आगरा के पश्चिम उत्तर में स्थित है। इसको अब दो एक्सप्रेस-वे तथा एक हाइवे जोड़ता है।

चर्चा में कब तीन किमी की दूरी पूरी हो गई, पता नहीं चला। जब पहुंचे कंकाली टीले पर तो हतप्रभ रह गये। कहा गया कि स्तूप, जिसे देव स्तूप कहते थे, वो क्षरण होते- होते टीला हो गया और अब तो वह कुण्ड बन गया है। सांध्य महालक्ष्मी ने जब यहां का इतिहास खंगाला, तो तब पता चला 1872 में अंग्रेजों के शासन में पुरावेत्ता एफ एस ग्राउज, जब यहां के जिलाधीश बने, तब यहां चारों तरफ तीर्थंकर प्रतिमायें बिखरी मिलती थी और यहां से कलकत्ता, लखनऊ, मुम्बई, वाराणसी ही नहीं बल्कि बोस्टन, लंदन, पेरिस भी यहां से पहुंचाई जाती। तब 1888 से 1891 में इस कंकाली टीले की लगभग 500 X 300 फीट में यहां खुदाई की गई, जहां से 737 जैन कलाकृतियां प्राप्त हुई।

आचार्य श्री सुनील सागरजी महारज का पूरा संघ वहां बैठा, तथा उस क्षेत्र का मुआयना किया, चारों तरफ बाऊंड्री बनी है और यह पुरातत्व विभाग के अंतर्गत है। नियमानुसार यहां 300 मीटर तक कोई कब्जा आदि नहीं होना चाहिये, पर हर तरफ अवैध निर्माण खुलकर हुआ है।

शायद यह जैन संस्कृति से संबंधित है, तो इससे मानो सौतेला व्यवहार हो रहा है, कारण, बाहरी ही लगा एएसआई का शिलापट्ट ‘संरक्षित स्मारक’ जिस पर कहीं भी जैन का उल्लेख नहीं, न ही कोई पहचान रखी, हां! यह लिखा है कि संरक्षित सीमा से 100 मीटर तक और उसके आगे 200 मीटर तक खनन या निर्माण निषेध है। पर इसका खुला उल्लंघन अवैध कब्जे के तले देखा जा सकता है।

वहां की ऐसी दुर्व्यवस्था देखकर आचार्य श्री सुनील सागर जी भी कुछ क्षण स्तबध रह गये। आचार्य श्री ने स्पष्ट कहा कि कंकाली टीला अब कुंड बन गया है, जहां से सैकड़ों जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां, शासन देवी -देवताओं की मूर्तियां व आयग पट्ट मिले, जो आज अनेक म्यूजियमों की शोभा बढ़ा रही हैं, पर यहां एएसआई का बोर्ड तो लगा है, पर जैन संबंधित कोई चिन्ह नहीं है।

सत्ता-प्रशासन की ओर संकेत करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि कहीं पर स्वास्तिक, त्रिशूल, शिवलिंग निकलता है, तो वह हिंदू तीर्थ बन जाता है, बना दिया जाता है, पर जहां जैन तीर्थंकरों की प्रतिमायें निकले, वो जैन तीर्थ क्यों नहीं कहलाता, गिरनार, खण्डगिरी, मंदार गिरि में संस्कृति में बदलाव किया जाता है, कंकाली टीले पर कोई पहचान तक नहीं दर्शाई जाती।

जैन समाज व कमेटियों की ओर इशारा करते हुए कहा कि जैन समाज उदासीन हो गया है। जैन संस्थायें आज ठीक से नहीं संभाल रही अपनी संस्कृति को, अभी भी काफी वैभव बचा है।

100 साल में हिंदू संस्कृति का कैसा निर्माण कर लिया और हमारा उससे कई गुना प्राचीन संस्कृति, पुरातत्व को संगठित करने की कोई कोशिशें नहीं। कृष्ण जन्मभूमि में अधिकांश चीजें नई बनी हैं, पर तब भी वहां जलवा है। ध्यान रखना, जागे रहोगे, तो जिंदा रह पाओगे, वर्ना खत्म कर दिये जाओगे। आदि पुराण के रचयिता जिनसेन स्वामी ने यहां 5 स्तूप बनवाये, जिनमें से एक देव निर्मित स्तूप के क्षेत्र की खुदाई यहां हुई, अभी 4 स्तूप कहां है। अभी भी यहां जैन पुरातन धरा के नीचे भरा पड़ा है, पर यहां भी खुदाई बंद कर दी गई, जैसे अयोध्या में। आचार्य श्री ने यहां मंत्रोच्चारण किया, कमण्डलु के जल का चारों ओर छिड़काव किया। जैन संस्कृति की सुरक्षा का जैसे एक अपनी तप शक्ति से प्रयास किया और चल दिये मथुरा चौरासी की ओर।

इस कंकाली टीले से जो प्रतिमायें निकलीं, वो कहां है, कैसी हैं, कब की हैं? उन सब की जानकारी अगामी जारी रहेगी।
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