धर्म का स्वरूप सांप्रदायिक नहीं वैज्ञानिक है । अंतर केवल इतना है कि लोक में प्रचलित विज्ञान भौतिक विज्ञान है और यह आध्यात्मिक विज्ञान । धर्म की खोज तुझे एक वैज्ञानिक बनकर करनी होगी, सांप्रदायिक बनकर नहीं । स्वानुभव के आधार पर करनी होगी, गुरुओं के आश्रय पर नहीं । अपने ही अंदर से तत्व संबंधी क्या और क्यों उत्पन्न करके तथा अपने ही अंदर से उसका उत्तर लेकर करनी होगी किसी से पूछ कर नहीं । गुरु जो संकेत दे रहे हैं उनको जीवन पर लागू करके करनी होगी केवल शब्दों में नहीं । तुझे एक फ्लोसफर बनकर चलना होगा कूप मंडूक बनकर नहीं । स्वतंत्र वातावरण में जाकर विचरना होगा सांप्रदायिक बंधनों में नहीं ।
देख एक वैज्ञानिक का ढंग और सीख कुछ उससे । अपने पूर्व के अनेकों वैज्ञानिकों व फिलोसफरों द्वारा स्वीकार किए गए सर्व ही सिद्धांतों को स्वीकार करके उसका प्रयोग करता है वह अपनी प्रयोगशाला में, और एक अविष्कार निकाल देता है । कुछ अपने अनुभव भी सिद्धांत के रूप में लिख जाता है, पीछे आने वाले वैज्ञानिकों के लिए । और वह पीछे वाले भी इसी प्रकार करते हैं , सिद्धांत में बराबर वृद्धि होती चली जा रही है , परंतु कोई भी अपने से पूर्व सिद्धांत को झूठा मानकर ‘उसको मैं नहीं पढूंगा’ ऐसा अभिप्राय नहीं बनाता । सब ही पीछे पीछे वाले अपने से पूर्व पूर्व वालों के सिद्धांतों का आश्रय लेकर चलते हैं, उन पूर्व में किए गए अनुसंधानों को पुनः नहीं दोहराते । इसी प्रकार तुझे भी अपने पूर्व से पूर्व में हुए प्रत्येक ज्ञानी के चाहे वह किसी नाम व संप्रदाय का क्यों ना हो अनुभव और सिद्धांतों से कुछ सीखना चाहिए , कुछ ना कुछ शिक्षा लेनी चाहिए ।
बाहर से ही लेकिन इस आधार पर कि तेरे गुरु ने तुझे ‘अमुक बात अमुक ही शब्दों में नहीं बताई है’ उनके सिद्धांतों को झूठा मानकर उनके लाभ लेने की बजाय उनसे द्वेष करना योग्य नहीं है ,वैज्ञानिकों का यह कार्य नहीं है ।
शांति पथ प्रदर्शन पृष्ठ 11-12