अनादिकाल से सृष्टि कर्म की धुरी पर घूमती चली आ रही है । विश्व में कर्म को ही प्रधानता दी गई है । जो जैसा कार्य करता है, उसी के अनुरूप उसे फल भी भोगना पड़ता है । संसार एक कर्मभूमि है, यहाँ आकर जो जैसा बोता है, उसे वैसा ही काटना पड़ता है ।
अंतःकरण रूपी खेत में विचार, बीज स्वरूप होते हैं । यही विचार अंकुरित होकर कर्मरूपी फसल का रूप धारण करते हैं । व्यक्ति जिस तरह के विचारों को मन में आश्रय देता है, वे ही पुष्पित तथा पल्लवित होते रहते हैं । इस संसार में जो भी सुख-दुःख की परिस्थितियाँ हमें दृष्टिगत होती हैं, वह कुछ और नहीं, हमारे ही बुरे या अच्छे विचारों का परिणाम होती हैं ।
जीवन को श्रेष्ठ एवं समुन्नत बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हम नित्यप्रति के जीवन में उच्च विचारों की दिव्यज्योति से अन्तःकरण को आलोकित करते रहें । मनुष्य महानता से उत्पन्न हुआ है, उसका लक्ष्य महान होना चाहिए । इसके लिए मनुष्य को कर्मरूपी गांडीव लेकर अपने मन में नित्यप्रति उत्पन्न होने वाले विकारों से युद्ध करना चाहिए और अपने को शुद्ध एवं सात्विक बनाते चलना चाहिए । शुभ कर्म तथा विचार वह सीढ़ी है, जिसका सहारा लेकर चढ़ने से मनुष्य उच्च आदर्शवादी एवं महान बन सकता है ।