प्राचीन मथुरा की खोज यात्रा में बौद्ध धर्म के बाद जैन धर्म के संदर्भों की ओर भी ध्यान देना आवश्यक

0
3553

मथुरा में जैन धर्म संबंधी प्राचीन मूर्तियाँ कई स्थानों से प्राप्त हुईं हैं,लेकिन यहाँ दो स्थान प्रमुख हैं जिन की प्रसिद्धि जैन तीर्थ के रूप में है।पहला है सिद्ध क्षेत्र चौरासी , जिस का संबंध महावीर के पट्ट शिष्य सुधर्माचार्य के उत्तराधिकारी जम्बू स्वामी से है।जैन मान्यताओं के अनुसार जम्बू स्वामी ने न केवल यहाँ निवास किया अपितु कैवल्य तथा मोक्ष प्राप्त कर इस स्थान को सदा के लिए सिद्ध पीठ बना दिया।

दूसरा प्रमुख स्थान है कंकाली टीला जो प्राचीनता की दृष्टि से मथुरा के लिए ही नहीं,वरन् जैन धर्म के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।ब्रिटिश काल तक यह क्षेत्र एक विस्तृत टीले के रूप में था।कंकाली देवी का एक छोटा मंदिर होने के कारण इसे ‘ कंकाली टीला ‘ कहा जाता था।सन् 1871 ईस्वी में प्रसिद्ध पुरातत्वविद् कनिंघम की नज़र इस टीले पर पड़ी ।उसने यहाँ से कई जैन प्रतिमाएं प्राप्त कीं ,लेकिन कंकाली टीले पर व्यवस्थित उत्खनन का अभियान सन् 1888-91 ईस्वी के बीच तत्कालीन लखनऊ संग्रहालय के अध्यक्ष डॉ फ्यूरर के नेतृत्व में ही चलाया जा सका ।

यह मथुरा में पुरातात्त्विक उत्खनन का एक बड़ा अभियान था जिसमें कंकाली टीले से सैकड़ों प्राचीन जैन प्रतिमाएँ,भग्नावशेष ,वास्तु खंड आदि प्राप्त हुए।यह विपुल कलाराशि राज्य संग्रहालय,लखनऊ भेज दी गई और आज भी वहीं पर सुरक्षित है।लखनऊ संग्रहालय की सबसे विशाल मूर्ति जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ की है जो मथुरा के कंकाली टीले की ही देन है।

दर्शकों के आकर्षण हेतु इस मूर्ति को संग्रहालय के मुख्य प्रवेश द्वार के सामने ही प्रदर्शित किया गया है।इस के अलावा राजकीय संग्रहालय,मथुरा में भी कंकाली टीले से प्राप्त जैन मूर्तियों एवं पुरा शेषों का विशाल भंडार है।इसे ध्यान में रखकर ही कई वर्ष पूर्व राजकीय संग्रहालय ने मथुरा कचहरी स्थित अपने पुराने भवन को एक स्वतंत्र ‘राजकीय जैन संग्रहालय का स्वरूप प्रदान कर दिया है।जहाँ यह पुरा संपदा अब प्रदर्शित है।
कंकाली टीले के उत्खनन से दो जैन मंदिरों,पुष्करिणी तथा एक स्तूप के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

जैन साहित्य में मथुरा के एक प्रसिद्ध स्तूप का वर्णन मिलता है जिसे ‘ देव निर्मित स्तूप ‘ बतलाया गया है।कंकाली टीले के उत्खनन से प्राप्त कुषाणकालीन एक मूर्ति की पीठ पर उत्कीर्ण अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि इस मूर्ति को देव निर्मित स्तूप में दान स्वरूप प्रतिष्ठापित किया था