सान्ध्य महालक्ष्मी / 18 दिसंबर 2020
जैन दर्शन विश्व का सर्वमान्य प्रमाणिक, प्राचीन एवं मानव कल्याण की भावना से ओत-प्रोत वैज्ञानिक दर्शन है। जिसके सिद्धान्त आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने पहले थे। इन सिद्धान्तों का कथन शास्त्रों में है और उनका अनुसरण करने वाले साधु प्रायोगिक धर्माचरण करते हैं। जो श्रमण संस्कृति, जैन दर्शन, धर्म, सिद्धान्त का उद्योतक है। जैन श्रमणचार को पालन करने वाले मुनिराज साधु परमेष्ठी और पालन कराने वाले आचार्य परमेष्ठी होते हैं।
आचार्य – साधुओं की दीक्षा, शिक्षा देने वाले, उनके दोष निवारक, दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार का निरतिचार स्वयं पालन करते हैं एवं दूसरों को भी प्रवृत्त करते हैं और शिष्यों को इन पंचाचारों का उपदेश देते हैं तथा अनेक गुणों से सहित संघ नायक साधु को आचार्य कहते हैं।
अत: आचार्य एकल विहारी नहीं, अपितु संघ सहित ही होता है। जो परमात्मा के परिपूर्ण अभ्यास और अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मल हो गई है, जो निर्दोष रीति से छह आवश्यकों का पालन करते हैं, मेरु के समान निष्कम्प हैं, शूरवीर हैं, सिंह के समान निर्भीक हैं, श्रेष्ठ हैं, देश कुल, जाति से शुद्ध हैं, सौम्यमूर्ति हैं। अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहति हैं, आकाश के समान निर्दोष हैं, ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं।
जो दीक्षा, शिक्षा और प्रायश्चित देने में कुशल हैं, जो परमागम के अर्थ में विशारद हैं, जिनकी कीर्ति सब जगह फैल रही है, जो आचरण, निषेध और व्रतों की रक्षा करने वाली क्रियाओं में निरन्तर उद्यत हैं, वे आचार्य परमेष्ठि हैं।
आचार्य के गुण –
आचार्य आचारवान, आधारवान, व्यवहारवान, कर्ता, आयापाय दर्शनोद्योत और उत्पीलक होता है। आचार्य अपरिस्रावी, निर्वापक, प्रसिद्ध, कीर्तिवान और निर्यापक के गुणों से परिपूर्ण होते हैं।
आचार्य आचारवान, श्रुताधार, प्रायश्चित, आसनादिद: आयापाय, कथी, दोषभाषक, अश्रावक, संतोषकारी, निर्यापक इन आठ गुणों से सहित अनुदिष्ट भोजी, शय्याशन और आरोगभुक्, क्रियायुक्त, व्रतवान, ज्येष्ठ, सद्गुण प्रतिक्रमी, षण्मासयोगी, दोनिषधक, बारहतप, छह आवश्यक सहित छत्तीस गुण वाले आचार्य होते हैं।
एलाचार्य – गुुरु के पश्चात् जो मुनि चारित्र का क्रम मुनि और आर्यिकाओं को कहता है, उसे अनुदिश अर्थात् एलाचार्य कहते हैं। अर्थात् आचार्य के पश्चात् संघस्थ साधुओं को चारित्र, व्रतादिपालन कराने वाला एलाचार्य होता है। वह छोटा आचार्य भी कहा जा सकता है। आचार्य योग्यता, वरिष्ठता के आधार पर एलाचार्य के पद से विभूषित करते हैं।
एलाचार्य और आचार्य कल्प की क्रिया विधि लगभग समान होती है। एलाचार्य की नियुक्ति होने पर संघ को आगामी आचार्य के विषय में निश्चिन्तता हो जाती है। संघ के साधु आचार्य की आज्ञानुरूप एलाचार्य को अपना भावी आचार्य स्वीकार कर लेते हैं।
उत्तराधिकारी के निर्धारण होने से पूर्व यदि आचार्य की समाधि हो जाती है तो संघस्थ साधुओं की सम्मति पूर्वक संघ के वरिष्ठ अनुभवी, ज्ञानवान एवं कीर्तिवान साधु को आचार्य पद प्रदान कर देना चाहिए, क्योंकि संघस्थ साधुओं की शिक्षा, दीक्षा एवं प्रायश्चित आदि का दायित्व निर्वहन करना होता है संघस्थ साधुओं की सहभागिता ही है। आचार्य पद प्रतिष्ठापन क्रिया में कहा भी है कि
सिद्धाचार्यस्तुति कृत्वा सुलग्ने गुर्वनुज्ञया।
लात्वाचार्यपदं शान्तिं स्तुयात्साधु: स्फुरद्गुण:।
अर्थात् जिसके गुण संघ के चित्त में स्फुरायमान हो रहे हैं, ऐसा साधु शुभ लग्न में सिद्ध भक्ति और आचार्य भक्ति करके गुरु की आज्ञा से आचार्य पद ग्रहण कर शान्ति भक्ति करे।
पट्टाचार्य का स्वरूप –
पट्ट – पट्ट वह अधिकार है जो पूर्व अधिकारी के द्वारा प्राप्त होने पर निर्धारित संहिता का पालन करना और कराना अनिवार्य होता है।
पट्ट का अधिकार भी योग्यता के आधार पर पट्ट का अधिकारी ही प्रदान करता है।
परम्परा –
जो क्रम पूर्वक निमित्त कारण होता है, वह परम्परा का द्योतक है।
आचार्य संघ संचालन के लिए एवं जैनागम, दर्शन और सिद्धान्तों की रक्षा के लिए, समस्त शिष्यों के आचार पालन कराने की समस्त जिम्मेदारी, सौंपते हैं। यह शिष्य जो अपने आचार्य के अधिकारों को प्राप्त करता है और वह पट्ट कहलाता है।
पूर्व आचार्य अपने उत्तरवर्ति आचार्य को क्रम पूर्वक अपने पद सौंपते रहते हैं, जिससे आगम, आचार, अध्यात्म और आस्था की श्रृंखला निर्बाध रूप से गतिमान रहती है। उसे परम्परा कहते हैं। इसी क्रम से जैन दर्शन अनादि काल से प्रवाहमान है।
पट्टाचार्य परम्परा के अधिकार और जिम्मेदारियां –
काल का परिवर्तन उतार-चढ़ाव, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि के रूप में श्रावकों के आचार को सरल एवं कठिन बनाता रहता है। समय की अनुकूलता-प्रतिकूलता एवं द्रव्य, क्षेत्र और काल की अपेक्षा आचार्यों ने आचार संहिता में आगम सम्मत कुछ परिवर्तन किये हैं, इसी कारण अष्टमूल गुणों, अणुव्रतों, गुणव्रतों और शिक्षा व्रतों में एकरूपता नहीं देखी जाती है।
पट्टाचार्य को अपने संघ की परम्पराओं के अनुरूप व्यक्ति, समय और क्षेत्र की अपेक्षा आचार परिपालना में परिवर्तन करने का अधिकार होता है। समाधि के समय, प्रायश्चित काल में एवं पृथक विहार के अवसर पर, आगम के परिपेक्ष्य में पट्टाचार्य का निर्णय अन्तिम और सर्वमान्य होता है। पट्टाचार्य आचार परिपालना में साधक को मोक्ष मार्ग में लगाने की जिम्मेदारी पूर्ण निष्ठा से निभाते हैं।
– पं. सनत कुमार विनोद कुमार जैन रजवांस, सागर म.प्र.