सांध्य महालक्ष्मी और चैनल महालक्ष्मी की ओर से एक्सक्लूसिव रिपोर्ट
72 करोड़ 700 मुनियों की मोक्ष भूमि ‘गिरनार’, उसका ऊर्जयन्त शिखर, जिस पर अपने प्राचीन अधिपत्य के लिये जैन समाज, अदालत के आंगन में खड़ा है। पूरा देश मानसून के आने से ठण्डी बयार का आनंद ले रहा है, पर इस केस में जैन समाज को ठण्डी बयार का आज तक इंतजार है। इसकी जो सच्चाई आज हम आपको बता रहे हैं, वह शायद आपने न कभी कहीं पढ़ी होगी और न जानी होगी।
इस समय इस गिरनार को ऐतिहासिक दृष्टि से करीब से जानने वालों में हम तीन को प्रमुख मानते हैं जिनमें तीर्थक्षेत्र कमेटी के बसंत दोषी जी व बण्डी कारखाना के निर्मल बण्डीजी से बातचीत कर यह जानकारी दे रहे हैं। (तीसरे हैं ज्ञान मलशाहजी)
प्रतापगढ़ (राजस्थान) के बण्डीलालजी ने सर्वप्रथम 1879 में, फिर 1902 और तीसरी बार 1933 में पांचवीं (ऊर्जयन्त) टोंक पर सबसे पहले छतरियां बनवाई। और तब जूनागढ़ के नवाब सा. श्री मोहब्बत खां सा. ने जो अनुमति दी, उसमें स्पष्ट लिखा कि अगर किसी अन्य सम्प्रदाय को आपत्ति हो, तो वो हमको सूचित करें। तदोपरांत किसी ने भी आपत्ति नहीं की। 1950 में सरकार ने जैन समाज को सीढ़ियां बनाने की अनुमति भी दी।
फिर 1980 में जूनागढ़ में भीषण तूफान आया, जिसमें बिजली गिरने से यहां छतरी ध्वस्त हो गई। बस यही वह क्षण था, जहां जैनों के अधिकार पर ही मानो बिजली गिर गई। 1985 के लगभग प्रशासन ने इस ऐतिहासिक धार्मिक स्थान को पुरातत्व स्मारक घोषित किया था। यानी अब उसके आसपास कोई भी निर्माण करना अवैध था।
जैन समाज ने पुन: छतरी बनाने का आवेदन दिया और इस बार हिंदू सम्प्रदाय ने भी अलग से आवेदन कर दिया। सरकार ने दोनों का ही आवेदन अस्वीकार कर स्वयं कार्य करने की बात कही। पर 19 सालों तक कुछ नहीं हुआ। फिर 1999 में एकाएक वहां गतिविधि शुरू हो गई, जैन समाज को अहसास हुआ कि कुछ गड़बड़ी हो सकती है।
बात 15 अप्रैल 2004 की है, बण्डी जी उस दिन दिल्ली में थे और आभास हुआ कि कुछ निर्माण सामग्री पांचवीं टोंक पर भेजी जा रही है। उन्होंने तुरन्त गुजरात सरकार के पुरातत्व विभाग और सांस्कृतिक विभाग को पत्र लिखा, प्रतिलिपि सौंपी, जो आज भी केस में अनुग्लनक-एक पर लगी है। आशंका सही थी, उस निर्माण सामग्री से मंदिरनुमा अवैध ढांचा पुरातत्व संरक्षित स्मारक पर कर रहे थे।
जैन समाज स्मारक पर अवैध निर्माण के खिलाफ स्टे लाया। जूनागढ़ कलेक्टर ने इससे पूर्व दोनों – जैन व हिंदू समाज की संयुक्त बैठक भी बुलाई जिसमें कहा कि दोनों छतरी का निर्माण नहीं करेंगे और सरकार यह काम करेगी। पर जब वहां अवैध निर्माण हुआ और मूर्ति बिठाई जाने लगी तब बण्डीलालजी व तीर्थक्षेत्र कमेटी ने अलग-अलग प्राथमिकी दर्ज कराई। परन्तु बदले के स्वरूप उन्होंने हमारे चार कर्मचारियों के खिलाफ इस आरोप के साथ प्राथमिकी दर्ज कराई कि ये ऊपर मूर्ति खण्डित करने गये थे। इस केस में चारों कर्मचारी बेकसूर पाये गये।
स्थिति की गंभीरता को देखते हुए मुंबई से तीर्थक्षेत्र कमेटी के बसंत भाई दोषी व अन्य, बण्डीलाल कारखाने की तरफ से राजा भाई बण्डी तथा सुरेन्द्र कुमार पाडलिया व अन्य मुंबई से पहुंचे। 02 जून 2004 को बसंत दोषी जी ने तत्कालीन सांस्कृतिक मंत्री आनंदी बेन पटेल से इस सबंध में मिलने का समय मांगा पर उन्होंने स्पष्ट कहा कि पहले मंदिर बनने दो, फिर मिलने आओ। स्थिति की नजाकता को भांपते हुए तीर्थक्षेत्र कमेटी व बण्डीलालजी द्वारा 08 जून 2004 को याचिका दायर कर दी गई। इसकी पैरवी अहमदाबाद के मशहूर वकील नानावटी जी कर रहे थे। माननीय न्यायाधीश श्री कुरैशी जी ने स्टे आर्डर देकर काफी राहत दी और यह भी कह दिया कि सरकारी अनुमति के बिना कोई निर्माण नहीं होगा। आर्डर डायरेक्ट सर्विस के लिये उपलब्ध करा दिया गया। निर्मल बण्डी व ज्ञानमल शाह ने व्यक्तिगत रूप से निदेशक पुरातत्व विभाग व सचिव, सांस्कृतिक मंत्रालय को सौंप दी और प्राप्ति रसीद भी ले ली। संस्था के एक कर्मचारी को तुरन्त जूनागढ़ रवाना कर, एक कापी थानाध्यक्ष को सौंपी।
पर इसके उपरांत जैन समाज स्तब्ध रह गया, जब पता चला कि जिस दिन यानी 02 जून को हमने मंत्री से मीटिंग का प्रस्ताव रखा था, ऐसा बताया गया कि उसी तारीख में गुजरात सरकार ने हिंदू समुदाय को अनुमति प्रदान कर दी थी। वो हमारे अनुसार बैक डेट में किया गया। क्योंकि इस 02 जून का आॅर्डर कलेक्टर से 17 जून को मिला। इससे स्पष्ट होता है कि गुजरात सरकार ने सोची समझी रणनीति से यह काम किया। सवाल फिर भी उठता है कि अवैध निर्माण को जामा पहनाने के लिये बैक डेट में काम सरकार ने किया और जैन समाज आवाक रह गया। यह बेक डेट की चाल इस बात से पुख्ता होती है कि अगर 02 जून को ही आर्डर जारी हो गया होता तो सरकारी वकील कुरैशी जी की अदालत में उस आॅर्डर की कापी जरूर रखते कि सरकार तो पहली ही अनुमति दे चुकी है। कैसी चाल खेली गई जैन समाज से?
स्पष्ट कहें कि 1935 से पहले तक बण्डीलाल जी यहां का रखरखाव करते थे और वहां जाने के लिए सीढ़ियां भी बनवाई। इतिहास को देखें तो, सन् 1875 में इंग्लैंड के प्रख्यात पुरातत्व विशेषज्ञ जार्ज वर्गीस ने जो भारत सर्वे के लिये आये थे, उन्होंने रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि गिरनार की पांचवीं टोंक पर नेमिनाथ चरण हैं और उसके ऊपर एक बड़ा घण्टा है और एक नग्न साधु वहां रखवाली के लिये घूमता है। यह भी लिखा कि नेमिनाथ यहां से मोक्ष गये हैं और इस टोंक को नेमिनाथ टोंक व दत्तात्रेय टोंक माना जाता है।
It has a small open shrine or pavillion over the footmarks of paduka of Neminatha cut in the reek and was being ministered to by a naked ascetic, beside it hung heavy Bell.
This Neminatha or Arishnemi, who name to this summit and to whom the Jains consider the whole mount as sacred is the 22nd of the defied saint – men who through their successful austerities, imagined have entered Nirvana and have done with the evils of existence. This one is the object of Worship for Digambara or naked Jains. His complexion they say was black & most if not all of his images here of that colour, like all other Tirthankara.
– James Burgess, Report… pp. 175-176
बाद में हिंदू साधुओं ने दत्तात्रेय टोंक को अपनी बताते हुए पंजीकरण करा लिया। इसका विरोध बण्डीलाल कारखाना ने किया।
यही नहीं, जैन यात्री तो क्या, संतों से भी ज्यादतियां की जा रही हैं। एक जनवरी 2013 का दिन कौन भूल सकता है। मुनि श्री प्रबल सागरजी पर चाकू से चार वार किये गये। दोषी गिरफ्तार भी हुआ और छूट भी गया।
उसके बाद 13 मार्च 2016 को चार महिलाओं की बुरी तरह पिटाई कर दी गई। नीचे उतरकर बण्डीलाल धर्मशाला में उन्होंने आपबीती बताई। उन्हें थाने में रिपोर्ट लिखाने के लिये कहा। हिम्मत दिखाकर उन्होंने थाने में रिपोर्ट लिखा दी। इसके बाद आईजी से स्थिति बताई। पहले पुरुषों की, अब महिलाओं की ऊपर पिटाई। आईजी ने तुरन्त सुरक्षा का आश्वासन दिया।
पिछले 15 वर्षों से अषाढ़ शुक्ल सप्तमी यानी भगवान नेमिनाथ की टोंक पर, वहां की देहरी पर लाडू चढ़ाने दिया जाता रहा है। पर 2018 में कलेक्टर ने लॉ एंड आर्डर की व्यवस्था ना बिगड़े, इस बात को लेकर निर्वाण लाडू चढ़ाने की अनुमति नहीं दी। उससे दो कदम आगे बढ़कर वहां आई पुलिस ने बिना सोचे समझे पहाड़ के प्रवेश द्वार पर ही अमानवीय व्यवहार किया।
यात्रियों के हाथों से लाडू छीनकर फेंक दिये गये। कुछ यात्रियों ने विनती की कि पहली टोंक से बने मंदिर पर तो चढ़ाने दिया जाये। इतने में आचार्य श्री निर्मल सागर जी ऊपर पहुंच गये. पर हमें टोंक पर लाडू चढ़ाने का मिलता अवसर छीन लिया गया।
2018 से अब आषाढ़ शुक्ल सप्तमी को पांचवे टोंक पर निर्वाण लाडू चढ़ाने का सौभाग्य भी जैनों से छीन लिया गया है और इस बार भी पिछले तीन वर्षो की तरह केवल पहली टोंक पर ही निर्वाण लाडू चढ़ा कर संतोष करना होगा
(शरद जैन)