इतिहास में मेरे सबसे प्रिय यात्रियों में से एक हैं सोलहवीं शताब्दी में हुए एक जैन भिक्षु समयसुन्दर. वे पैदल एक स्थान से दूसरे स्थान जाकर लोगों को उपदेश दिया करते थे. किसी एक स्थान पर एक दिन से अधिक नहीं ठहरते थे. इस क्रम को बरसात के चार महीनों में विराम लगता क्योंकि उस दौरान इस गति से चल सकना असंभव होता था. जैन परम्परा में इसे विहार करना कहते हैं. यात्रा करने का इससे बेहतर तरीका क्या हो सकता है कि आप हर रोज़ भोर या उससे भी पहले चलना शुरू कर दें और कभी भी किसी वाहन का प्रयोग नहीं करें.
गुजरात के एक साधारण दुकानदार परिवार में जन्मे इस बालक को उनके माता-पिता लीलादेवी और रूपसिंह द्वारा उनकी शुरुआती किशोरावस्था के दौरान ही एक जैन मठ में भेज दिया गया था. भिक्षु बनने की अपनी ट्रेनिंग के दौरान उन्होंने दूसरे बालकों की तरह तमाम जैन ग्रंथों का अध्ययन किया. समयसुन्दर इस मायने में औरों से फर्क थे कि उनके भीतर बचपन से ही कविता करने-समझने के प्रतिभा विकसित हो चुकी थी. जब वे इक्कीस बरस के हुए उन्हें उनके मठ द्वारा लेखन करने की बाकायदा इजाजत दी गयी. उन्होंने मध्य-ग्यारहवीं शताब्दी के महान कश्मीरी संस्कृत विद्वान मम्मट की पुस्तक ‘काव्यप्रकाश’ के कुछ आयामों पर सौ टिप्पणियों की एक पुस्तक लिखी जिसका नाम था ‘भावाष्टक’.
उसके बाद समयसुन्दर ने विहार करना शुरू किया. वे जीवन भर चले और प्रायः अकेले चले. यात्रा के उनके साल दशकों में तब्दील होते गए. बरसातों के मौसम अर्थात चातुर्मास के दौरान जब विहार संभव न होता, उन्हें किसी कस्बे-नगर में ठहरना होता. इस हर साल इस अवधि में वे एक पुस्तक लिखा करते और रचना को समाप्त करने के बाद उसके अंत में वर्ष और स्थान का नाम लिखना न भूलते.
तो सन 1587 से 1648 (इस वर्ष उनकी मृत्यु हुई) के बीच लिखी उनकी किताबें बताती हैं कि वे पैदल खम्भात, लाहौर जैसलमेर, आबू, आगरा, अहमदाबाद, बीकानेर, नागौर, सिंध, मुल्तान, मेडात जैसी जगहों तक गए. उनकी यात्रा का यह इलाका पालनपुर से पाटन, अहमदाबाद और खम्भात के मध्य आज के गुजरात के धुर उत्तर से मध्य गुजरात की नोक तक, और माउंट आबू के बहुत निकट और राजस्थान के रेगिस्तान से अरब सागर के तट तक पसरा हुआ है. अपने जीवन में उन्होंने कोई 60 किताबों की रचना की. इनमें से तीस उनकी उन कविताओं के संग्रह थे जिन्हें वे अपनी यात्रा के दौरान रचते थे और भक्तों को सुनाया करते थे. उनकी कविता इस लिहाज से अद्वितीय है कि उन्होंने एक ऐसी भाषा का आविष्कार किया जो गुजराती, राजस्थानी, उर्दू, अवधी और खड़ी बोली का अनूठा और सम्मोहक रसायन थी. इसी वजह से उनकी कविता उनके हर श्रोता की समझ में आसानी से आ जाती थी.
उनके भिक्षु जीवन का हाई पॉइंट 1592 में आया जब मुग़ल बादशाह अकबर ने लाहौर बुलाकर उनका सम्मान किया.
समयसुन्दर के लिए हमारे देश में न कहीं कोई स्मारक है, न किसी समकालीन या शिष्य द्वारा उनके सम्मान में लिखी कोई प्रशस्ति. तब भी उनके जैसे सुन्दर, समर्पित और सार्थक जीवन का तसव्वुर करने भर से ही उल्लास और प्रेरणा जैसी दुर्लभ चीजें हासिल होती हैं.