वास्तव में वैदिक और जैन दोनों ही विचारधारा सनातन काल से एक साथ ही विश्व में चली आ रही है। वैदिक और जैन धर्म दोनों को शुरू करने वाले पहले महापुरुष एक ऋषभदेव ही है।
शुरूआत में राज्य व्यवस्था नहीं थी,, तब कुलकर या मनु व्यवस्था थी जो प्रजा का ध्यान रखती थी, दोनों ही धर्मो में अंतिम कुलकर या मनु “ऋषभदेव के पिता नाभि” ही है।
विश्व में सर्वप्रथम राजा ऋषभदेव ही थे उन्होंने ही राज्य की अर्थव्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए शुद्र,वैश्य,श्रत्रिय इस प्रकार वर्णव्यवस्था सुनिश्चित की। इसीलिए वे प्रजा का पालन करने के कारण विष्णु(विशेष-अणु) कहलाए।(ब्राह्मण वर्ण की स्थापना ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती ने की थी)
विश्व में सर्वप्रथम सन्यासी भी ऋषभदेव ही थे। जिस कारण से वे आदिनाथ और शिव कहलाये।
जब ऋषभदेव को वैराग्य हुआ । तब उनके साथ प्रेमवश अन्य छोटे 4000 दूसरे राजाओं ने भी संन्यास ले लिया था,तब प्रजा को भिक्षादान करने की विधि पता नहीं थी, जिस कारण से जब भी ऋषभदेव किसी घर पर भिक्षा के लिए जाते,तो लोग उन्हें हीरे,मोती,माणिक,हाथी घोड़े और कन्या भिक्षा में देते थे। ऋषभदेव मौन ही रहते थे जिस कारण से ऋषभदेव को पूरे 400 दिन तक भूखे और प्यासे रहना पड़ा था।
दीक्षा के 400 दिन के बाद ऋषभदेव को श्रेयांसकुमार ने इक्षुरस से पारणा(उपवास पुरा करना) करवाया, जिस कारण इश्वांकुवंश की स्थापना हुई। जो पवित्र दिन दोनों ही धर्मों में अक्षय तृतीया पर्व के रूप में मनाया जाता है।
दोनों ही धर्मों में प्राचीनतम वंश इश्वांकु ही माना गया है।
ऋषभदेव के साथ अन्य सन्यासी भूख प्यास सहन नहीं कर पाए और वे स्वयं ही जंगलों में कंदमूल और फल तोड़कर खाने लगे।(ऋषि शब्द ऋषभ से ही बना है)।
फिर जब १००० वर्ष की साधना के बाद ऋषभदेव को केवलज्ञान हुआ तब ब्रह्म(आत्म) ज्ञान देने के कारण वे ब्रह्मा कहलाये।
उनके उपदेशों से कई महापुरुषो ने उनके पास संयम ग्रहण किया ,वे जैन मुनि बने और मोक्ष भी पाया, तभी से जैन मुनि परंपरा शुरू हुई।
इस प्रकार सन्यासी दो भागों में विभक्त हुए मुनि और ऋषि।
स्वयं ऋषभदेव भगवान के पौत्र मरिचि ने भी जैन दीक्षा ली थी लेकिन जैन धर्म की कठोर साधना ना कर पाने के कारण उन्होंने जैन मुनि नियमों का त्याग कर वे ऋषि बन गये,वे स्नान करते, स्वयं केश-लोच करने की जगह वे उस्तरे से मुंडन करवाते, धूप से बचने के लिए छत्र और कांटों से बचने के लिए पादुका रखते, कपिल राजकुमार उन्हीं के शिष्य बने,और फिर कई पाखंड मत उनके द्वारा चालू हो गए ।
जैन धर्म में राम-भरत,हनुमान(जो वास्तव में एक महापुरुष थे जिनके मात्र वंश का नाम वानर था, जिन्होंने लंका को जलाने के लिए वानर रूप ग्रहण किया था)
,नारद,पांच पांडवों आदि सभी महापुरुषों को सिद्ध भगवान माना गया है। जैन नवकार महामंत्र के दूसरे पद नमो सिद्धाणं से इनकी पूजा की जाती है।।
ऋग्वेद की कई ऋचाओं में ऋषभदेव का वर्णन है।।
वाल्मिकी रामायण में राजा दशरथ ने जैन मुनियों का स्वागत किया था ऐसा वर्णन है।
महाभारत में भी युद्ध से पहले निर्ग्रंथ जैनमुनि के दर्शन का वर्णन आया है।
श्रीकृष्ण जैनधर्म अनुसार आने वाली जैन चौबीसी में तीर्थंकर अममनाथ बनेंगे।।
पुराणों में गणेश की उत्पत्ति भी काल्पनिक है वास्तव में जैन धर्म अनुसार तीर्थंकर परमात्मा के प्रमुख शिष्य सभी गणो में प्रमुख होने से गणपति(गणधर)कहलाये गये।
जैन धर्म में परशुराम का वास्तविक नाम श्वेतराम है ,
जिन्होने अपने पिता जमदग्नि ऋषि की हत्या का बदला लेने के लिए परशु विधा की सहायता से कौरववंशी कार्तिकेयन और उसके २१ क्षत्रिय वंशो का नाश किया था और क्षत्रियों कि सारी भूमि उन्होंने ब्राह्मणों को दान दे दी थी,और स्वयं ब्राह्मण होने के बाद भी उन्होंने परशुराम नाम से प्रसिद्ध होकर राज्य किया था और जिनका वध सुभौम चक्रवती ने कर फिर से राज्य क्षत्रियो के हाथों में आ गया था।
दोनों ही धर्मों में चौदह कुलकर (मनु) ,12 चक्रवति,9बलभद्र,9वासुदेव,9प्रतिवासुदेव,,11रूद्र,9 नारद ,24कामदेव का लगभग समान ही वर्णन है।
दोनों ही धर्मों में देवी अंबिका ,देवी सरस्वती, देवी लक्ष्मी , कुबेर और यक्ष यक्षिणियो को समान रूप से माना गया है।
वैदिक धर्म के दक्षिणामूर्ति सहस्त्रनाम ग्रंथ में कहा है-जैन मार्ग में रति करने वाला जैनी क्रोध और रोगो को जितने वाला होता है।
भागवत पुराण के पांचवें स्कंध में आध्याय २से६ तक ऋषभदेव का वर्णन है।
वेदो में २२वे जैन तीर्थंकर अरिष्टनेमि को बार बार धुरी बनाकर वंदन किया गया है, लेकिन कृष्ण,राम,हनुमान किसी का नाम तक वेदो में नही है।
दोनों ही धर्म एक ही साथ समान रूप से सनातन काल से चले आ रहे हैं फिर भी जैन धर्म में वर्तमान चौबीसी(२४तीर्थंकर) से पूर्व में भी अनंत चौबीसी हो चुकी है जिस कारण से सनातन धर्म जैन धर्म को मानना ही उपयुक्त होगा।।
पुर्वजन्म ,स्वर्ग-नरक, 84 लाख जीव योनियों में शाश्र्वत आत्मा के अंनंता फेरे,कर्मफल सिद्धांत,परम लक्ष्य मोक्ष, आत्मा ही ब्रह्मा है, यह सभी बातें दोनों ही धर्मों में समान रूप से मानी जाती है।
इसलिए तीर्थंकर महावीर ने किसी एक धर्म का पक्ष ना लेते हुए अहिंसा को ही परम धर्म कहा है ।