भारत एक जातिप्रधान देश है, जहां हजारों जातीय समूह है, इनमें भारतीय जनता बंटी है,यह जातियां वर्णों से संचालित होती है,मुख्यतः वर्ण 4 है। ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शूद्र। जैन-धर्म जातिप्रथा का विरोधी धर्म रहा है,यहां कर्म के अनुसार जीव का भविष्य तय होता है।प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से ही वर्ण व्यवस्था प्रारंभ हुई है,जैनाचार्यों ने वर्ण को कर्मणा माना है। वैश्य वर्ण भारत की आर्थिक शक्ति है यह तीर्थंकर ऋषभदेव के सिद्धांत कृषि और व्यापार के आधार पर जीवन चलाते है। आज के जैन समाज में बहुधा अनुयायी वैश्य वर्ण से आते है,जिनकी आजीविका व्यापार व कृषि से चलती है।
वैश्य वर्ण में जातियों की लिस्ट बहुत लम्बी है,जो भारत के अनेक राज्यों में फैली हुई है,कुछ बड़ी वैश्य जातियां अग्रवाल,कलवार,तेली,चेट्टियार,मधेशिया,रोनियार,कोमटी आदि है,जिनकी संख्या करोड़ों में है,इन सब जातियों में अच्छी-खासी संख्या में जैन धर्मावलंबी आज भी है, इन वैश्य जातियों की उत्पत्ति का मूल आधार भी जैन-धर्म में ही है,इनकी सांस्कृतिक चाल-ढाल जैनों की तरह है,वैश्य जातियों आमतौर पर शाकाहारी है,और आज तक इन्होंने मांसाहार को सामूहिक स्वीकृति नहीं दी है।
वैश्य जातियों को वैदिक धर्म में रहकर आजतक वह स्थान नहीं मिल पाया है जो ब्राह्मणों और क्षत्रियों को प्राप्त है, इन्हें वर्ण व्यवस्था में भी सबसे नीचा माना गया है,वैश्यों के बारे में वैदिक ग्रंथों में बहुत गलत बातें लिखी है,वैश्य वर्ग को आम वैदिक समाज में मुनाफाखोर,सूदखोर,चोर जैसे शब्दों से संबोधित किया जाता है, वैदिक पुरोहित वर्ग इस विचारधारा का खुलकर प्रचार भी करते है।
वैश्य समाज हिंदू धर्म को चलाने वाला है,पर अन्य हिन्दू जातियों द्वारा इनको सार्वजनिक रुप से अपमानित किया जाता है,रंगदारी वसूली जाती है,जमीनों पर कब्जे किए जाते है पर वैश्य बन्धूओं को हिंदू होने के कारण मौन होना पड़ता है।
वैश्य जातियां इस देश की रीढ़ है जिसने भारत को आर्थिक,शैक्षिक रुप से सशक्त बनाया है,आज भारत वैश्य जातियों के आधार पर विश्वशक्ति बन सकता है,आज यह जातियां विभिन्न धर्मों में होने के कारण बंटी है, हिन्दू धर्म में छूआछूत होने के कारण आपस में पुरोहित वर्ग इन वैश्यों को ऊंच-नीच के नाम पर लड़ाता है,पर जैनधर्म में इस तरह की भावना ना के बराबर है।
जैन समाज क्या करे
जैन मुनियों, विद्वानों को चाहिए कि हम इन जातियों के वास्तविक इतिहास कि खोज कर उसे इनके सामने रखे,जगह-जगह वैश्य महासम्मेलन आयोजित हो जिनमे ऊंच-नीच के आधार पर वैश्य जातियों में भेद नहीं हो।
तीर्थंकर ऋषभदेव के झंडे के नीचे सब वैश्य जातियों का एक संगठन बने,और वह इस कार्य को आगे बढाए।
वैश्य जातियों में अहिंसा,शाकाहार का प्रचार बड़े स्तर पर हो,आपस में रोटी-बेटी का व्यवहार शुरु हो,और यह केवल जैन-धर्म में ही संभव है।
प्रत्येक जैन युवा अपने वैश्य मित्रों को जैन मंदिर लाना शुरू करे,उन्हें वैचारिक तौर पर जैन बनाए, जैन मन्दिरों में उन्हें भक्ति-पूजा करने हेतु प्रोत्साहित करे।
जैन समाज के कार्यक्रमों में अन्य वैश्य बन्धूओं को आमन्त्रित कर उन्हें जैन परंपरा से जोड़ने के सामूहिक प्रयास हो।
जगह-जगह मुनियो, साध्वियों, विद्वानों के नेतृत्व में वैश्य समाज को जैन तत्त्वज्ञान सिखाने के लिए शिविर लगे।
वैश्य महापुरुषों को जैन इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान मिले इसके लिए प्रयास हो।
सकल जैन वैश्य समाज की बड़ी संस्था निर्मित हो,उसकी मासिक पत्रिका निकले।
गरीब वैश्य छात्रोंं के लिए छात्रावास,स्काॅलरशिप जैसी व्यवस्था हो।
व्यापारिक संगठन,चैम्बर आफ कामर्स आदि पर जैन समाज अपनी पकड़ मजबूत बनाकर अपनी आर्थिक शक्ति बढाए इसके साथ दूसरी छोटी वैश्य जातियों को उचित प्रतिनिधित्व देकर उनकी घरवापसी करवाने के कार्य में जुटे।
वैश्य समाज के कार्यक्रमों में जैन सहभागिता बढाए, उनके पर्व,त्यौहार आदि में तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा प्रारम्भ हो इसके लिए प्रयास करे।
वैश्य समाज की आराध्य देवी महालक्ष्मी है,इसका जैन-धर्म में भी अपना महत्व है, जैन-धर्म में महालक्ष्मी को मंगल स्वरूपा कहा गया है,ऐसे और समन्वयवादी प्रतीकों को खोजकर आगे लाया जाए।
वैश्य उत्थान के लिए एक आंदोलन खड़ा हो,जिसमे वैश्य जातियों को राजनीति,नौकरी में पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिलने का मुद्दा प्रमुख हो।
इस तरह वैश्य समाज और जैन-धर्म की एकता से हम दोनों का भला कर सकते है,और महान सम्राट अमोघवर्ष के सपनों का भारतवर्ष बना सकते है।
– गौरव जैन , कोटा, Gouravj132@gmail.com