आजकल यह देखने सुनने में बहुत आ रहा है की “जैन समुदाय के कुछ लोग” निरंकुश हो मांस भक्षण करने लगे है। वे यह भूल जाते है की पूर्व संचित सुकर्मों के कारण ही इन्हे जैन कुल / परम्परा में जन्म मिला है। वे यह क्यों भूल जाते है की उनके नाम से साथ “जैन” लिखा है, जिसका मतलब है वे दुनियां में जैनत्व का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। उनका मांसाहार, मदिरापान, व्यसन करना “जैनत्व की छवि” को धूमिल ही नहीं वरन कलंकित भी कर रहा है जिसका स्वर्णिम इतिहास हैं। ध्यान दें, जब किसी अन्य कुल/परम्परा/धर्म में मान्यता वाले व्यक्ति द्वारा ये सब सेवन किया जाता है तो लोग प्रश्न नहीं करते, वे केवल तब प्रश्न करते है जब कोई “जैन” होकर मांसाहर, मदिरापान या व्यसन करता है। इसका मतलब यह है की यह सब देखकर “जैन” के प्रति उनका विश्वास खंडित हुआ है, यह वह विश्वास है जो उन्हें “जैन” संस्कृति एवं जीवनशैली के प्रति है, क्यूंकि वे जानते समझते है की महावीर के शासनकाल में जन्म लेने वाला “महावीर का वंशज” यह सब कुकर्म नहीं कर सकता।
यह प्रश्न करने वाले वही लोग है जो “जैन” लोगो को विस्मयभरे सम्मान की दृष्टि से देखते है कि “जैन” पूर्णतया शाकाहारी एवं अहिंसक होते हैं, ज़िंदा रहने के लिए वे किसी अन्य जीव की जान नहीं कदापि नहीं ले सकते। और इसका जिम्मेदार हर वह व्यक्ति है जो अपने नाम के साथ “जैन” तो लिखता है लेकिन उसकी दिनचर्या में “जैनत्व” नहीं झलकता, जिसकी चर्चा व् चर्या में विरोधाभास है। जिसे अपनी संस्कृति पर नाज़ नहीं, वह पशु से भी बदतर है।
मुझे हैरानी होती है मांसाहार के मोहजाल में फंसते जा रहे लोग मांस खाने को आधुनिकता, संपन्नता और अपना आहार चुनने की स्वतंत्रता से जोड़ने लगे हैं। यहां तक कि वे अपनी ‘गऊमाता’ के मांसभक्षण में भी अब कोई दोष नहीं देखना चाहते, उसके लिए भी उनके पास अपने तर्क है। यानी, उनके लिए मांस खाना ज़रूरत कम, बहाना अधिक है।
जिसके आचरण एवं उच्चारण में खाई है, वह पंडित नहीं कसाई है।
जिसकी चर्चा व् चर्या एक नहीं, वह महावीर की दृष्टि में नेक नहीं।
अपना अमूल्य मानव-जन्म व्यर्थ करने वाले उस मांसाहारी मनुष्य से कड़े शब्दों में अनुरोध है- या तो अपने जीवन से मांस की प्लेट हटा दें या अपने नाम के साथ लिखी “जैन” की नाम प्लेट हटा दे।
ओ, पढ़े लिखे इंसान धर्म-कर्म समझ नहीं आता तो विज्ञान तो समझ में आता ही होगा ? मनुष्य के दांत, जीभ, आँख और आंत की तुलना किसी मांसाहारी जीव से कर के देख तो तुझे पता चलेगा की मनुष्य का प्राकृतिक भोजन मांसाहार नहीं है। तुम प्रकृति के विरुद्ध जा रहे हो, और प्रकृति इतनी शक्तिशाली है की एक सीमा तक सहन करने के बाद वह सहन नहीं करती और उसके दुष्परिणाम तुम्हे स्वयं को ही भुगतने पड़ते है, इसके अलावा अपना अगला भव बिगाड़ा सो अलग। मांसाहार से वह बल और शक्ति भी प्राप्त नहीं होती जो वह दूध और फल का सेवन कर प्राप्त कर सकता है। मांसाहार मनुष्य के कोमल हृदय की भावनाओ को नष्ट-भ्रष्ट कर उसे पूर्णतया निर्दयी और कठोर बना देता है।
आज जैन धर्म एवं उसका जीवन-दर्शन कोरोना के वर्तमान संकट के दौर में समाधान के रूप में उभरकर सामने आया है, शाकाहार एवं मद्यपान का निषेध भी जैन जीवनशैली के आधार है, जिनका बढ़ता प्रचलन कोरोना महासंकट से मुक्ति का बुनियादी सच है। दुनियां को और स्वयं को बचाना है तो मांसाहार का संहार करना होगा।
आशा है जिनकी बुद्धि भ्रष्ट है, जो स्वयं से बेड़ियों में जकड़े है उन्हें यह समझ ही नहीं आया होगा की उन्हें मांसाहार, मदिरापान एवं व्यसन का त्याग कर अपना कल सुधारना है, अपने “जैनत्व” की उज्जवल एवं स्वर्णिम आभा को धूमिल नहीं करना है।
लेखक के ये निजी विचार हैं
लेखक-प्रमोद जैन