जैन दीपावली या “दीपलिक क्यों मनाते हैं – मंदिरों में निर्वाण लाडू क्यों चढ़ाया जाता है-रुपए-पैसों की पूजा जैन धर्म में क्यों स्वीकृत नहीं

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महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस को दीपावली (दीपलिक) के रूप में मनाया जाता है। महावीर स्वामी (वर्तमान अवसर्पिणी काल के अंतिम तीर्थंकर) को चर्तुदशी के प्रत्युष काल में मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। चर्तुदशी का अन्तिम पहर होता है इसलिए दीपावली अमावस्या को मनानी चाहिए। संध्या काल में तीर्थंकर महावीर के प्रथम शिष्य गौतम गणधर को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।

देवताओं ने इस अवसर पर दीपक द्वारा पावापुरी को प्रबुद्ध किया।उस समय के बाद से जिनेन्द्र (यानी भगवान महावीर) के निर्वाणोत्सव पर उनकी की पूजा करने के लिए प्रसिद्ध त्यौहार “दीपलिक” मनाते हैं

इस दिन सभी जैन मंदिरों में निर्वाण लाडू चढ़ाया जाता है। लड्डू गोल होता है, जिसका अर्थ होता है जिसका न आरंभ है न अंत। अखंड लड्डू की तरह आत्मा होती है, जिसका न आरंभ होता है और न ही अंत। लड्डू बनाते समय बूँदी को कड़ाही में तपना पड़ता है और तपने के बाद उन्हें चाशनी में डाला जाता है। उसी प्रकार अखंड आत्मा को भी तपश्चरण की आग में तपना पड़ता है तभी मोक्ष रूपी चाशनी की मधुरता मिलती है।

जैन धर्म में लक्ष्मी का अर्थ होता है निर्वाण और सरस्वती का अर्थ होता है केवल ज्ञान । इसलिए प्रातःकाल जैन मंदिरों में भगवान महावीर स्वामी का निर्वाण उत्सव मनाते समय भगवान की पूजा में लड्डू चढ़ाए जाते हैं भगवान महावीर को मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति हुई और गणधर गौतम स्वामी जी को केवलज्ञान रूपी सरस्वती प्राप्त हुई, इसलिए लक्ष्मी-सरस्वती का पूजन दीपावली के दिन किया जाता है। लक्ष्मी पूजा के नाम पर रुपए-पैसों की पूजा जैन धर्म में स्वीकृत नहीं है।

जैन धर्म की धार्मिक क्रियायों मे धन,दौलत,मिथ्यात्व व आडम्बर का कोई स्थान नही होता। धार्मिक कार्य केवल भक्ति-भाव से मान्य हैं।

जैन नववर्ष, दीपावली का दूसरा दिन होता है। यह दिन वीर निर्वाणसंवत के अनुसार वर्ष की शुरुआत माना जाता है। वीर निर्वाण संवत (युग) एक कैलेंडर युग है जिसकी शुरुआत ७ अक्टूबर ५२७ ई.पू. से हुई थी। यह २४ वें तीर्थंकमंदिरों में निर्वाण लाडू चढ़ाया जाता है भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण का स्मरण करता है।भगवान महावीर का जन्म करीब ढाई हजार वर्ष पहले (ईसा से 599 वर्ष पूर्व), वैशाली गणराज्य के कुण्डग्राम में अयोध्या इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय परिवार हुआ था। तीस वर्ष की आयु में महावीर ने संसार से विरक्त होकर राज वैभव त्याग दिया और संन्यास धारण कर आत्मकल्याण के पथ पर निकल गये। 12 वर्षो की कठिन तपस्या के बाद उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ जिसके पश्चात् उन्होंने समवशरण में ज्ञान प्रसारित किया। 72 वर्ष की आयु में उन्हें पावापुरी से मोक्ष की प्राप्ति हुई।

हिंसा, पशुबलि, जात-पात का भेद-भाव जिस युग में बढ़ गया, उसी युग में भगवान महावीर का जन्म हुआ। उन्होंने दुनिया को सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया। तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अहिंसा को सबसे उच्चतम नैतिक गुण बताया।उन्होंने दुनिया को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताए, जो है– अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) ,ब्रह्मचर्य उन्होंने अनेकांतवाद, स्यादवाद और अपरिग्रह जैसे अद्भुत सिद्धान्त दिए। महावीर के सर्वोदयी तीर्थों में क्षेत्र, काल, समय या जाति की सीमाएँ नहीं थीं। भगवान महावीर का आत्म धर्म जगत की प्रत्येक आत्मा के लिए समान था। दुनिया की सभी आत्मा एक-सी हैं इसलिए हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखें जो हमें स्वयं को पसन्द हो। यही महावीर का ‘जियो और जीने दो’ का सिद्धान्त है।