जैन समाज के सामने आज कई चिंतनीय विषय है उनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है उनकी घटती जनसंख्या और खत्म होता प्रभाव,एक समय पूरे दक्षिण भारत, पूर्वोत्तर भारत और उत्तर भारत में जैन समाज का सूर्य उदित रहा जो महावीर के निर्वाण के 2 हजार साल बाद तक लहराता रहा,लेकिन आज स्थिति ऐसी है कि दिनों-दिन इसके अनुयायियों की संख्या कम होती जा रही है,समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में जगह-जगह भूगर्भ से निकलती,अजैन मंदिरों में विराजित जैन प्रतिमा, परिवर्तित जैन मंदिर अतीत में समृद्ध जैन इतिहास का प्रमाण देते हैं, किंतु पूर्वकाल में वैभवशाली इस धर्म की आज स्थिति यह हो गई है कि इसके अनुयायी सिमटकर 1-1:50 करोड़ तक आ गए है,बिना अनुयायियों के धर्म का बचना संभव नहीं है,भारत में उदित एक समय आजीवक,चार्वाक आदि कई धर्म जनसंख्या के अभाव में खत्म हो गए आज यही स्थिति बनती नजर आ रही है,आज के 1200 साल पहले आचार्यों ने दक्षिण भारत से आकर उत्तर भारत में शंकराचार्य और अन्य वैदिक आक्रामकों के कोप से लुप्त हो चुके जैन-धर्म को पुनः खंडेलवाल,ओसवाल,अग्रवाल,पोरवाल जैसी सैकड़ों जातियां बनाकर प्रसारित किया और तमाम विपत्तियों, परेशानियों(मुसलमानों का हमला, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य के जैन धर्मान्तरण,इसाई धर्मांतरण आदि) के बावजूद धर्म को पूर्वजों ने बचाए रखा,इसके बावजूद करोड़ों जैन इस काल में धर्मांतरित हो गए।
दुख की बात यह है कि 1000 वर्ष के लंबे इतिहास में नए जैन बनाने का कार्य शायद कहीं नही हो पाया,या हुआ तो बहुत छोटे स्तर पर। तीर्थंकरों का संदेश प्रत्येक आत्मा को सच्चा मार्ग मिले ऐसा था और यही दायित्व हमारे पूर्वाचार्यों पर आया ,इसे हमारे पूर्वाचार्यो ने बखूबी निभाया भी, ज़हां ज़हां श्रमणो का विचरण हुआ वहां-वहां लोग जैन बने। पर कालांतर में यह संदेश खंडित हो गया और अब जो जैन बचे हैं उनको जैन-धर्म में रखे मात्र इतनी दृष्टि हमारे पथ-प्रदर्शकों की हो गई है।
हमें यह सोचना चाहिए कि अगर हमारे पूर्वाचार्यो ने भी यह दृष्टि रखी होती तो क्या आज हम और आप इस महान धर्म की छत्रछाया प्राप्त कर पाते, उन्होंने बहुत आगे की सोची उसका परिणाम आज हम है, जैन-धर्म आज केवल भारत तक सीमित रह गया है,यहां भी यह सबसे छोटा दूसरे नंबर का अल्पसंख्यक धर्म है,यह हमारे लिए दुःख व शर्म की बात है कि तीर्थंकरो ने हमें अरबो-करोड़ों की संख्या में छोड़ा था और आज हम सरकारी आंकड़ों अनुसार लाखों में सिमट गये है,महावीर ने विश्व कल्याण के लिए एक विराट धर्म की छत्रछाया मानवता को प्रदान की थी आज वह एक छोटी सी जाति में सिमट गया है। यह वाकई में चिंतन की बात है।
एक समय भारत से लुप्त हो गया बौद्ध धर्म आज पूरे भारत में तीव्रता से बढ़ रहा है, लाखों लोग हर साल बौद्ध बन रहे हैं पर इसके विपरीत हम है जो और कम होते जा रहे हैं,हमें सोचना होगा कि पतित को पवित्र बनाने वाला तीर्थंकरों का शासन आज क्यों जाति,वर्ण के पचड़ों में उलझ रहा है,कर्मों नहीं हम वह कार्य कर रहे हैं जो जिनसेन,आर्यनंदी(तमिल),वीरसेन,रत्नप्रभ,लोहाचार्य जैसे हमारे महान प्रभावक आचार्यों ने किए थे,तब गांव के गांव इस महान अहिंसा धर्म में दीक्षित हुए,आज लाखों लोग जैन परंपरा में आने को तैयार बैठे हैं, लाखों लोग इससे प्रभावित हैं,और हमारी श्रमण परम्परा,विद्वत परम्परा में आज भी इतनी सामर्थ्य है कि हम लाखों-करोड़ों लोगों को इस जिनशासन की छत्रछाया तले ला सकते हैं आचार्य समन्तभद्र देव ने एक जगह लिखा है कि हे जिनवर! अगर एक भी तार्किक सुयोग्य वक्ता हमें मिल जाए तो जिनशासन का डंका पूरे विश्व में बज सकता है, पुनः इस धर्म को विश्वधर्म बनने से कोई रोक नहीं सकता।
आइए इस महान धर्म को,इस सर्वोदयी धर्म को पुनः विश्व धर्म बनाने की ओर बढ़े।
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