कुर्सी से चिपके रहना वर्षों तक और हिसाब ना देना अब तक , क्या हो रहा है कमेटियों को, बदलाव लाना होगा

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24 जुलाई 2022/ श्रावण कृष्ण एकादिशि /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/

जैन समाज में यह कोई नई बात नहीं है कि एक बार जो कुर्सी पर आता है, वह उस पर फेवीकोल लगाकर मानो चिपक जाता है, छूटने का नाम नहीं लेता और चुनाव की बात तो, कभी करो मत । बात यहीं तक नहीं थम थी बल्कि हिसाब किताब तो मानो बेमानी हो जाता है। दान कहां से आया और कहां उपयोग, यह बताने की समाज को जरूरत ही नहीं समझ आती । हर जगह यह सच नहीं है, पर अधिकांश जगह सोलह आने सच भी है। इस पर विशेष टिप्पणी करी है अनिल जैन बड़कुल जी ने, जरा देखिए

देश भर में कई स्थानों पर अक्सर समाजजन के बीच चर्चाएं सुनने मिलती हैं अमुक व्यक्ति वर्षों से समाज का या मन्दिर का प्रमुख बना बैठा है,न तो पद छोड़ना चाहता और न ही समाज को हिसाब देना चाहता….!! इन कारणों से समाज मे गुटवाजी बढ़ती है लोग एक दूसरे के शत्रु बन जाते हैं।

हालांकि यह बात समझ नही आती कि जैन समाज में यह प्रबर्ती आखिर क्यों बढ़ती जा रही है? लोग उम्र बढ़ने के बाद भी अनेक विवादों एवम आलोचनाओं को सहते हुए भी हठ पर अड़े रहते हैं एन केन प्रकारेण, पद हथियाते हैं, पद मिलने पर उसे मरते दम तक छोड़ना भी नही चाहते भले ही सम्पूर्ण समाज मे उनकी किरकिरी हो जावे लोग उनके आर्थिक चरित्र पर उंगली उठाते रहें उन्हें कोई फर्क नही पड़ता बस जिद एक… पद नही छोडूंगा । एक तरह से मन्दिर पर बपौती मानकर उसे निजी संपत्ति की तरह व्यवहार करने लगते हैं। उनकी इस जिद के कारण समाज मे उनका सम्मान तो जाता ही है, समाज मे नए सक्रिय लोगों को अवसर भी नही मिलता।

वर्षों तक मन्दिर की राशि का, बिभिन्न कार्यक्रमों का समय-समय पर या वार्षिक रूप से हिसाब न देना बो भी जैन समाज में, किसी के गले नही उतरता। मंदिर का एक दाना गलत उपयोग को निर्माल्य का दोष मानने बाले समाज के प्रमुख जब वर्षों तक हिसाब पेश न करें तो शंका होना तो बाजिव है। और कहीं-कहीं कुछ गड़बड़ होने की संभावना से इनकार भी नही किया जा सकता। आखिर ऐसी क्या मजबूरी है हिसाब न देने की ? आखिर गड़बड़ क्या है ? मन्दिर की राशि का निजी उपयोग जैसे आरोप भी लगते हैं और अधिकांश आरोप सही भी हो सकते हैं।

यह स्थिति किसी एक जगह की नहीं है देश भर में अनेक स्थानों पर कमोवेश यही स्थिति है। जबकि होना तो यह चाहिए कि सफलता पूर्वक अपना कार्यकाल पूरा होते ही अपने पद का परित्याग स्वयं कर देना चाहिए। अपनी समिति, अपने मन्दिर, अपनी संस्था के एक-एक पैसे का हिसाब वार्षिक रूप से प्रस्तुत किया जाना चाहिए बल्कि डूबत या बकाया उधारी बालों की सूची भी प्रकट की जानी चाहिए जिससे पारदर्शिता बनी रहे एवम समाज का गौरव बना रहे।

कई नगरों में तो अध्यक्षीय कार्यकाल 2 बार से अधिक नही होता इससे नए युवाओं, सक्रिय कार्यकर्ताओं को अवसर मिलता है पूर्व पदाधिकारियों का सम्मान भी बना रहता है यही सम्मानजनक भी है और गरिमापूर्ण भी।

अनिल जैन बड़कुल, गुना