8 मार्च 2023/ चैत्र कृष्ण एकम/चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/
कुछ जैन लोगों को सुनकर थोड़ा सा अजीब भी लग रहा होगा कि ये क्या बात हुई, जबकि यही सत्य है कि होली का जैन धर्म में कोई महत्व नहीं है उल्टा ऐसे कार्यों की अनुमोदना करना महान पाप बंध का कारण है। जैन ग्रंथ “ज्ञानानंद श्रावकाचार” में इसके बारे में विस्तार से जाना जा सकता है।
• प्रतीक के रुप में लकड़ी, गोबर के कंडों आदि में आग लगाना या इस कार्य को देखकर खुश होना ( अनुमोदना करना) संकल्पी हिंसा है
• अनंत स्थावर छोटे छोटे जीव और बहुत सारे त्रस जीव मरण को प्राप्त हो जाते हैं , और एक जैन कैसे अनंतों जीवों के मरण को देखकर खुश हो सकता है ?
• जैन श्रावक छने हुए जल का भी बहुत सीमित प्रयोग करता है ताकि अधिक से अधिक जीवों की रक्षा की जा सके, बिना प्रयोजन जल बहाना अनर्थदण्ड है अपराध है । इसीलिए हमें ऐसे अनावश्यक पाप बढ़ाने वाली क्रियाओं से बचना चाहिए
• रंगों के प्रयोग से न जाने कितने नए नए रोग पनप रहे हैं शरीर में भयंकर बीमारियां हो रही हैं । शरीर को अनिष्ट कारक होते हुए भी इनका प्रयोग करना तीव्र राग का द्योतक है, जो आत्मा का पतन करने वाला है।
बहुत सारी अन्य भी बातें हैं जिनसे सिद्धि हो सकती है कि होली मनाने का जैन धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। ना करने योग्य कार्यों पर तो चर्चा हो गई अब करने योग्य कार्य क्या हो सकते हैं
• प्रथम में प्रथम तो ज्ञानानंद श्रावकाचार में होली की जी कथा है उसका स्वाध्याय करना चाहिए, मिथ्यात्व के स्वरुप को जिनवाणी के आधार से समझकर उसको त्यागने का तीव्र पुरुषार्थ करना चाहिए
• संसार के स्वरुप और बारह भावना ,वैराग्य भावना आदि का चिंतन करना चाहिए
• अधिक से अधिक समय स्वाध्याय, सामायिक, जिनेंद्र पूजन, भक्ति आदि में लगाना चाहिए
• घरों में सामूहिक धार्मिक पाठ आदि कार्यक्रम रख सकते हैं
• मंदिर जी में सामूहिक विधान आदि कर सकते हैं
• शक्ति अनुसार व्रत उपवास आदि कर सकते हैं , हरी सब्जी फल आदि का त्याग कर सकते हैं
• अब्रह्म और कुशील से जुड़ा हुआ प्रसंग था यह ( होली की कथा) इसीलिए ब्रह्मचर्य और शील संयम से रहने की प्रतिज्ञा अवश्य लेने योग्य है
ज्ञानी जन कैसे होली मनाते हैं इसका वर्णन पं श्री दौलतराम जी इन पंक्तियों से करते हैं
ज्ञानी ऐसे होली मचाई।।
राग कियो विपरीत विपन-घर, कुमति कुसौति भगाई।
मन में बहुत सारे प्रश्न खड़े हो जाते हैं कि जैन धर्म में अब होली भी नहीं मना सकते, तो ऐसा बिल्कुल नहीं है वास्तव में असली होली तो जैन धर्म के दिंगबर मुनिराजों ने ही मनाई है।
आठ कर्मों की ऐसी होली जलाई है कि अपने संसार का अभाव करके सिद्धालय में अनंत सुख भोग रहे हैं । सम्यकत्व रुपी रंग और व्रत रुपी गुलाल से जमकर वैराग्य के रंग में रंगे हुए हैं । ज्ञानमयी पिचकारी से पांचों इंद्रिय रूपी विषयों को परास्त कर दिया है । तप रूपी अग्नि में आठों कर्मों को जलाकर राख कर डाला है।
वास्तव में जो लौकिक होली है इससे संसार ही बढ़ेगा दुःख ही बढ़ेगा ऐसी लौकिक रंगों की होली और होलिका दहन जैसे कार्यों का कृत कारित अनुमोदना से आजीवन त्याग करके हम सभी को स्वयं को आध्यत्मिक सम्यक्त्व रुपी रंग और व्रत रुपी गुलाल से रंगना चाहिए ।
हम भी दिंगबर मुनिराजों की तरह शीघ्र ही आठ कर्मों की होली जला पाएं उनके बताए हुए मार्ग को शीघ्र आत्मसात् कर पाएं जिस क्षण चौदह गुणस्थान पार कर सिद्धालय में तिष्ठेंगे उस क्षण ही हमारी असली होली होगी । तब तक लौकिक गृहीत मिथ्यात्व की पोषक संसार बढ़ाने वाली होली का बुद्धिपूर्वक आजीवन त्याग करने योग्य है।
-सोशल मीडिया से साभार