क्या हमारी यही भक्ति है? क्या हमारा यही समर्पण था? अपने गुरु के प्रति हमारी श्रद्धा कितनी खोखली थी? क्या गुरुवर के जाते ही हम अपने रास्ते से भटक गए ?

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जो हर वक्त भक्तों से विभिन्न विकास कार्यो की चर्चा या फिर किसी अगली गोष्ठी की तैयारी या फिर सराकों को मुख्यधारा में जोड़ने के लिए नई योजनाएं या फिर किसी धार्मिक आयोजन के लिए बढ़ते कदम । जो कदम कभी रुकते नहीं, जो कदम कभी थके नहीं, जिन्होंने हर वक्त या यह कहें, अपना पूरा जीवन धर्म के संवर्धन, संरक्षण, विकास में समर्पित कर दिया, जिन्होंने कभी किसी को ना नहीं कहा ,हर को मुस्कुरा कर , खिलखिला कर अपनी मीठी मुस्कान से ही मंत्रमुग्ध करने वाले, ऐसे सराकोंद्धारक आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज को हमने एक साल में ही गुमनामी के अंधेरे में डाल दिया ।

यह कहने का कारण भी है कि उनके द्वारा चलाई जा रही विभिन्न योजनाएं जैसे गुमनामी की ओर अग्रसर हो गई । कहां गए वो वकील , डॉक्टर , आईएएस , वकील , जज , अभिभावक , छात्र , युवा, चार्टर्ड अकाउंटेंट , प्रशासनिक अधिकारी और भी कई गणमान्य गण , जिनकी समय-समय पर गोष्ठी द्वारा जैन समाज से जोड़ने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए उनको दिशा निर्देश देने के साथ ही, जोड़ने का काम करते थे।

सराको को मूल धारा से जोड़ते जोड़ते, उनके जाते ही उस तेज गति पर जैसे ब्रेक लग गया, अनेक ग्रंथों की प्रकाशन की कड़ी एकाएक रुक गई , मासिक पत्रिका सराक-उत्थान की स्याही खत्म हो गई। क्या हमारी यही भक्ति है? क्या हमारा यही समर्पण था अपने गुरु के प्रति? हमारी श्रद्धा कितनी खोखली थी? क्या गुरुवर के जाते ही हम अपने रास्ते से भटक गए ?आज यही मन में प्रश्न उठता है कि जब समाज हित के कार्य जब कोई साधु करता है तो प्रश्न उठाया जाता है कि स्वकल्याण के कार्य करें और पर कल्याण के कार्य तो समाज करता है। पर गुरुवर के कार्य को जारी रखने में ही समाज ने ही जैसे आंख कान बंद कर के बैठ गया।

उनको सच्ची विनयाजलि तभी होगी ,जब उनके अधूरे कार्यों को पूर्णता की ओर हम ले जा सके। चैनल महालक्ष्मी व सांध्य महालक्ष्मी अपनी हार्दिक विनयाजलि इसी संकल्प के रूप में देने के लिए आप सब से विनम्र अनुरोध करता है।

सराकों के राम, एक साल में ही क्यों कर दिए गुमनाम
जैनों को जैनत्व की बात कहना आसान है लेकिन ऐसे जैन जो जैन होकर भी अपने आप को जैन नहीं मानते हैं लेकिन उनके वंशज श्रावक कहलाते थे आज वे ‘सराक’ कहलाते हैं । देश के दुर्गम प्रदेश झारखंड ,बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा में ये घोर जंगल में निवास करते हैं, आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपने ज्ञान के नेत्र खोले और चले गए इन प्रदेशों के बीहड़ क्षेत्र तडाई ग्राम (जिला रांची) में अपने बिछुड़े हुए भाइयों के पास ।

मानो श्रीराम ने पत्थर की अहिल्या की पुकार सुन ली हो । जहाँ श्रावक की चर्या असंभव हो वहां एक मुनि का पहुँचना बड़े आश्चर्य का विषय था, लेकिन स्व-पर कल्याण के लिए निकले संतो को कब परवाह थी कि क्या होगा… सिर्फ एक विश्वास था जो होगा वह जैनत्व के लिए गौरव होगा । आपने सराक बाहुल इलाके में चातुर्मास स्थापित किया, झोपड़ियों में निवास कर अपने बिछुड़े सराको को बताया कि ,तुम ‘श्रावक’ हो तुम्हारे पूर्वजों ने जैनत्व को धारण किया था, तब उपाध्याय श्री ने उन्हें अपना इतिहास बताया व गर्व की अनुभूति करवाई , सराक क्षेत्रों में धार्मिक पाठशाला , मंदिर, अनेक चिकित्सालय चल रहे हैं , छात्रवृत्ति दी जा रही है ,अनेक शिक्षण प्रशिक्षण शिविर चल रहे हैं,तीर्थयात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त कर रहे हैं आदि ।

बेरोजगार सराक बंधुओं को , ड्राइविंग टाइपिंग, सिलाई ,कढ़ाई, बुनाई आदि का प्रशिक्षण प्रदान किया और अनेक सराकों का उद्धार कर उन्हें सच्चा श्रावक बना दिया जिनके वंश गोत्र आज भी शांतिनाथ अनंतनाथ आदि तीर्थंकरों के नाम है ऐसे आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने मुश्किल कार्यो को आसान किया और जैन समाज की मुख्यधारा में सराकों को सम्मिलित कराया ,तभी से वे “ सराकोंद्धारक” के रूप में प्रसिद्ध हो गए ।