तुम कितना चल कर आये हो, कितना चलना बाकि है
कितना साध चुके निज को तुम, और साधना बाकि है।
मोह योग को कितना छोड़ा, कितनी यात्रा तय करना
गुण स्थान चौदह पर चढकर, सिद्धशिला तक है चढना
ज्वर से पीडित रोगी को ज्यों, मिष्ट बुराई लगता है
मिथ्यादृष्टी जीवों को त्यों, तत्व ज्ञान न रुचता है
आत्म तत्व श्रद्धान बिना जो, तन को ही आत्म माने
उन जीवों का गुणस्थान ही, प्रथम रहा बुद्धजन जानें
सम्यक दर्शन प्राप्त किया था, चौथा गुणस्थान पाया
अनंतानुबंधी कषाय का कर्म उदय में तब आया
गिरे तभी सम्यक्त शिखर से मिथ्या भू तक न आया
वही बीच की दशा गुरु ने सासदन है समझाया
खट्टे मीठे दधि गुड़ जैसा स्वाद अनोखा है जिसका
कुछ सम्यक कुछ मिथ्या रहता ऐसा मिश्र स्वाद उसका
इसमें कभी नही होता है बंध आयु का और मरण
श्रद्धा दोनों ओर लुड़कती तीजा गुण स्थान का क्षण
छूट गया सारा मिथ्यात्म मन का मल सब दूर हुआ
सम्यकज्ञान हृद्य में उतरा सम्यकदर्शन उदित हुआ
देव-शास्त्र-गुरु में रुचि रखना व्रतसंयम से दूर रहा
अविरत सम्यकदृष्टि वह ही शिवपथ अभिमुख दीख रहा
त्रस हिंसा का त्याग किया है और संयम पथ पर जरा बढ़ा
बिना प्रयोजन थावर वध भी त्याग किया समभाव बढ़ा
अणुव्रत का पालन करने में चित्त निरंतर लीन रहे
पंचमगुण स्थान में श्रावक देशविरत है संत कहे
ग्रंथी छोड़ दी तन की मन की हो गये अब निग्रंथ मुनि
पंचमहाव्रत पालन की ही रग रग में चढ़ गई धुनि
आर्त रौद्र का तज कर जो नित्य धर्म शुक्ल को ध्याता है
है प्रमत पर संयत रहता गुण छटवां कहलाता है
शुरु हुई एकाकी यात्रा बचे नही संकल्प- विकल्प
आत्मध्यान की हुई पात्रता रहा कषायोदय भी अल्प
समिति में भी गुप्ती में भी सावधनता बनी हुई
अप्रमत इस गुण स्थान में आधी यात्रा पूर्ण हुई
उपशम श्रेणी और क्षपक पर चढ़ते अलग-अलग साधक
क्षपक प्राप्त कर लेता मंजिल उपशम तो आगे बाधक
समय समय अति शुद्ध भाव से भाव निराले प्रतिपल हैं
नाम अपूर्वकरण इसका है करण भाव ही संबल है
भिन्न समयवर्ती जीवों के भावो में न सदृश्यता
एक समयवर्ती जीवों के भावों में ही सदृश्यता
ध्यान अग्नि की ज्वालाओं से वेद कर्म जल जल जाता
अनिवृति इस गुण स्थान की महिमा कौन सुना पाता
रक्त रेश्मी पट में जैसे धुल जाने पर भी होवे शेष
सूक्ष्म लालिमा राग भाव की त्यों आत्म में रहती शेष
उपशम और क्षपक दोनों ही सूक्ष्म लोभ वेदन करते
एक दबाते एक मिटाते निष्कषाय मुनि मन हरते
र्निविकल्प सद ध्यान बना है सब कषाय का शमन हुआ
उपशामक को पड़े लौटना जब आगे न गमन हुआ
स्वच्छ सरोवर जल सी शुद्धी यथाख्यात चारित्र हुआ
एकादशवी गुणस्थान तक हो सकता है जीव मुआ
ध्यान अग्नि से क्षपक मुनिश्वर मोह नष्ट कर देता है
परमसमाधि लीन दशा में साधक तभी पहुचंता है
वापस नही लौटता अब तो मंजिल को पा जाता है
क्षीण मोह इस गुण स्थान को केवल ज्ञान दिलाता है
घाति कर्म चकचूर किया तब पूर्ण ज्ञान आवरण हटा
सुख अंनत शक्ति का साथी केवलदर्शन भी प्रकटा
परमात्म की संज्ञा पाई ये अरहंत दशा भाई
शिव जिन केवली ईश्वर ब्रह्मा नाम इन्हीं के हैं भाई
मन वच तन के तीन योग का कारण यह औदारिक तन
योग रहित कर कर्म निर्जरा पाया आत्म ज्ञान सघन
सकल शील के स्वामि बनकर अंतिम शुक्लध्यान ध्याया
लघु पंचाक्षर समय ठहकर मुकि्त रमा को अपनाया
जन्म मरण से मुक्ति पाई ज्ञाता दृष्टा शेष रहे
लोक शिखर पर शोभित होते तन बिन चेतन मात्र रहै
हो र्निबंध अंनत सौख्य युक्त बिन बाधा उपयोग करे
सिद्धशिला पर सिद्ध जिनेश्वर सबकी सिद्धी शीध्र करें