आधुनिक जैन विद्वत् परम्परा के आद्य महामनीषी गुरूणांगुरु पंडित श्री गोपाल दास जी वरैया(ई.सन् 1866-1917) का जन्म चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को हुआ था । विलक्षण प्रतिभा के धनी एक ऐसे विद्वान् थे जो किसी परंपरागत गुरुकुल में अध्ययन किये विना ही अपने स्वाध्याय के बल पर ही जैन धर्म , दर्शन,सिद्धान्त,न्याय एवं संस्कृत भाषा पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करके जैन जगत के शिरोमणि विद्वान् बन गए थे । आपके सन्तसदृश व्यक्तित्व के नैतिक आदर्श इतने उच्च थे कि एक बार रेल की यात्रा के मध्य में ही आपके पुत्र की आयु आधी टिकट के योग्य हो जाने पर आपने घर आकर आधी टिकट के मूल्य की धन राशि का मनी आर्डर रेल्वे को किया था । मनी आर्डर प्राप्त करके रेल अधिकारी आश्चर्य चकित रह गए थे । इसके बाद अंग्रेज अधिकारियों ने आपको मानद् न्यायाधीश का पद प्रदान किया था । आपने मात्र 51 वर्ष के अल्प जीवन में ही ब्रिटिश काल में देश से अशिक्षा के उन्मूलन और जैन सिद्धांतों के प्रचार प्रसार के लिए अकल्पनीय कार्य किये थे ।
आपके महान् गुरुत्व एवं ज्ञानगाम्भीर्य के कारण ही क्षुल्लक श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी आदि अनेक विद्वानों एवं अनेक श्रद्धेय मुनिराजों ने आपसे शिक्षण प्राप्त किया था ।आपके द्वारा सृजित कृतियों में जैनसिद्धान्त से निदर्शन कराने वाली जैनसिद्धान्त प्रवेशिका और सुशीला उपन्यास उल्लेखनीय हैं । आपने सन् 1902 में मध्य प्रदेश स्थित मुरैना नगर में जैन धर्म दर्शन एवं संस्कृत की शिक्षा हेतु श्री गोपाल दिगंबर जैन सिद्धान्त संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना की थी । इस महाविद्यालय में दक्षिण भारत सहित देश के विभिन्न प्रांतों के हजारों छात्रों ने धर्म दर्शन एवं संस्कृत की शिक्षा और आदर्श संस्कार प्राप्त करके विद्वत्ता के क्षेत्र में अमिट कीर्तिमान स्थापित किये एवं विभिन्न प्रतिष्ठित शासकीय पदों पर सेवाएं देकर राष्ट्र निर्माण में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है