#गिरनार : इस बार भी नहीं चढ़ा 22वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जी की पांचवी टोंक पर निर्वाण लाडू

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2018 से लगातार चौथे वर्ष आज आषाढ़ शुक्ल सप्तमी 16 जुलाई 2021 को भी पांचवी टोंक पर जैन बंधु उर्जयंत शिखर पर निर्वाण लाडू नहीं चढ़ा पाए। अफसोस इस बात का है कि जहां शिखरजी पर , पारस प्रभु की मोक्ष सप्तमी पर ,20- 25 हजार लोग दर्शन को पहुंच जाते हैं। पर तीर्थंकर नेमिनाथ जी की मोक्ष सप्तमी पर, हमारी गिनती इस बार हजार का आंकड़ा भी नहीं छू पाई ,आज आपको इस गिरनार की 5 टोंको के बारे में विशेष जानकारी देते हैं।

‘ऊर्जयन्त! तू कितना सुंदर है, क्योंकि तंू पृथ्वी का वैसा समुन्नत भाग है जैसा कि, बैल के शरीर में ककुव होता है अथवा यूं कहिए कि वृष-धर्म का आगार होने के कारण तू महान है। तेरे शिखरों पर सदा ही विद्याधर दम्पत्ति विचरण करते हैं। तू इतना ऊंचा और विशाल है कि मेघपटेल तेरे तटभाग को ही छू पाते हैं- तेरे निम्न भाग में मंडराते रहते हैं। तेरे पवित्र गात पर, स्वयं इन्द्र ने वज्रकर्ण से तीर्थंकर अरिष्टनेमि के कल्याणकों के पावन प्रतीक अंकित किये। इस प्रकार हे पर्वत! तू आज भी धर्माजन का एक ऐसा साधन तीर्थ बना हुआ है कि तू अपनी ओर उन पूज्य ऋषियों और मुनियों को आकर्षित करता है, जिनका हृदय प्रेम से ओत-प्रोत है। वे तेरी वंदना करने को आते हैं। हे ऊर्जयन्त, धर्म तीर्थ होने के कारण तू अचल है।’
– आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने, जब वे गिरनार को देख आनंदित हुए तो नेमिनाथ स्तुति में यह कहा।

गिरनार आज भी वैसा ही सुन्दर, सौम्य, नयनाभिराम और सुकृत का प्रेरकस्रोत है, जैसा कि चतुर्थकाल में था। तीन शब्दों में ‘सत्यं, शिवम्, सुन्दरम्।’

प्राचीन काल में ऊर्जयन्त और रैवत कहलाने वाला, सौराष्टÑ की दक्षिण पर्वत श्रेणी में अपने उसी रंग रूप वाला गिरनार, आज वर्तमान में जैनों का ही पावन तीर्थ ही नहीं रहा, बल्कि जैनेत्तर लोग भी यहां आ रहे हैं। सोलंकी राजाओं के समय शैव और वैष्णव पहुंचे, वहां पर बाद में मुसलमानों की उपस्थिति से मजार भी बनी, अंग्रेजों के गौरांग पर्यटक भी यहां आये। पर अब यह जैनों से खिसककर जैनेत्तर समाज का पावन स्थल कहलाया जाने लगा। इसके दो कारण हैं- पहला जैन समाज के दर्शनार्थियों में कभी निचले स्तर पर और ऊपर समितियों-संगठनों की इस तीर्थ की अनदेखी। आज जैनेत्तर लोग जैनों की इन पांच टोंकों को अम्बा माता, गोरखनाथ, ओघड़ शिखर, गुरुदत्तात्रेय और काल्का यानी अघोरी के रहने का स्थान, मानकर पूजते हैं, अब तो बाकायदा उनके मन्दिरों का भी खूब निर्माण हो गया है।

अतीत में गिरनार पर्वत पर मूलनायक भगवान नेमिनाथ की मूर्ति आभरणादि रहित दिगम्बर थी, व्यवस्था भी दिगम्बरों के हाथ में थी। पर धीरे-धीरे गुजरात क्षेत्र में श्वेताम्बार जैनों की बहुलता हो गई। उन्होंने गिरनार के साथ शत्रुंजय आदि तीर्थों का प्रबंध अपने हाथ में ले लिया। पर तब भी कमाल का वात्सल्य था, एक ही मन्दिर में दिगम्बरत्व प्रतिमायें और आभरणादि युक्त प्रतिमाये थीं। दोनों समुदाय मिलकर पूजा करते, आज की तरह बंटे हुए नहीं थे। जब-जब हम बंटते हैं, तब-तब तीसरा हमें लूट ले जाता है। यही हुआ यहां। धीरे-धीरे यहां आभरणादि बढ़ा क्योंकि श्वेताम्बर समाज बहुलता में था। परिणामस्वरूप संघर्ष हुआ। एक साथ एक ही मन्दिर में पूजा करने वाले अलग-अलग हो गये, रोज झगड़े होने लगे। अहिंसा के लाल, आपस में लड़ने लगे, धर्म की बजाय धन आराध्य हो गया।

गत् 1912 की बात है, जब राजस्थान, प्रतापगढ़ दिगम्बर जैन संघ बण्डीलाल जी के पौत्र सेठ कस्तूरचंद व हीरालाल जी के नेतृत्व में दर्शन करने आया, तो उन्हें दिगम्बर परम्परा से पूजा करने में बाधा डाली गई, कहा-सुनी बढ़ गई। दोनों ने जूनागढ़ नवाब सा श्री मोहब्बत खां से मिलकर अलग जमीन खरीदी और गिरनार पर्वत तलहटी में एक मन्दिर व धर्मशाला बनाई, जिनका सुंदर रूप आज आप देखते हैं। दोनों भाइयों ने जूनागढ़ शहर, तलहटी के साथ पहली टोंक का वह मन्दिर का भी बनाया जो आज ऊपर दिगम्बर की पहचान जीवंत रखे हुए हैं। 1964 में उन्होंने व्यवस्था कमेटी को सौंप दी। श्वेताम्बर-दिगम्बरों का विवाद अब, जैनेत्तर समाज के बढ़ने का बहुत बड़ा कारण बन गया है।

सिद्घक्षेत्र गिरनार पर्वत पर 5 टोंकें हैं। लगभग दो मील की चढ़ाई यानी ढाई हजार सीढ़ियां चढ़ने पर दिगम्बर मन्दिर और धर्मशाला से पहले राजुल गुफा है। इस गुफा से आगे बढ़ने पर दिगम्बर जैन धर्मशाला है, इसके अहाते में 3 मन्दिर और एक छतरी है। एक मंदिरजी में 4 फुट ऊंची खड्गासन भगवान बाहुबलि की प्रतिमा है। पार्श्व में एक छतरी कुंद कुंद आचार्य के चरण हैं, सामने दीवार में पंचपरमेष्ठी की 5 मूर्तियां बनी हैं। छतरी के पार्श्व में एक जिन मन्दिर है। अहाते के प्रांगण में एक बड़ा मन्दिर बना हुआ है। दिगम्बर मन्दिर से थोड़ा आगे बढ़ने पर गोमुखी गंगा है, एक गोमुख से जलधारा निकलते रहने से जल के कई कुण्ड बन गये हैं। गोमुख के पृष्ठ भाग में एक वेदी पर तीर्थंकरों के 24 चरण बने हुए हैं। यह प्रथम टोंक कहलाती है। मन्दिरों में आप दर्शन पूजा कर सकते हैं, पर पवित्र कल्याणक स्थान पर पण्डों ने अधिकार कर रखा है। इस गोमुख गंगा के निकट, सहस्र आम्रवन यानी भगवान नेमिनाथ की मोक्ष भूमि को मार्ग जाता है। वहां से कुछ आगे चलने पर रांखगार के दुर्ग का द्वार मिलता है।

द्वार के बायीं ओर नेमीनाथ जी का विशाल और दर्शनीय मन्दिर है, जो कि दिगम्बर आम्नाय का था, किन्तु अब श्वेताम्बरों का अधिकार है। 90 सीढ़ी चढ़कर द्वितीय टोंक है, जहां अनिरुद्ध कुमार के चरण हैं। इसके निकट ही अम्बादेवी का विशाल मन्दिर है। इसकी मान्यता हिन्दुओं में भी है और पण्डों का कब्जा है।

मि. बर्जेस ने ‘द रिपोर्ट आॅन द एन्टिीक्वीटीज आॅफ काथियावाड़ एंड कच्छ’ में इस मन्दिर को स्पष्ट रूप से जैनों का बताया है।

तीसरी टोंक शम्बु कुमार की है। तीसरी टोंक से 1500 सीढ़ियां चढ़ने और उतरने पर चौथी टोंक है,

इस पर्वत पर चढ़ने के लिये सीढ़ियां नहीं हैं। वर्षा के पानी ने जो मार्ग बनाया है, उसी के सहारे चढ़ते हैं। खड़ा पहाड़ है, चढ़ाई कठिन है, परन्तु यहां लोग अपने साहस के बलबूते कष्ट उठाकर चढ़ते हैं। पर्वत की चोटी पर शिला में प्रद्युम्न कुमार के चरण बने हैं, चरणों के निकट ही एक फुट काले पाषाण की ऊंची मूर्ति बनी है।

पांचवीं टोंक पर 22वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जी के चरण हैं। जिस पर प्रतापगढ़ के बण्डीलाल जी ने 1879 में, फिर 1902 में और तीसरी बार 1933 में छतरी बनवाई, पर 1980 के तेज तूफान में बिजली गिरने से नष्ट हो गई और फिर जैनेत्तर समाज ने यह संरक्षित पुरातत्व स्मारक घोषित होने के बावजूद 2004 में अवैध मन्दिर नुमा ढांचा बना दिया और अदालती स्टे के बावजूद दत्तात्रेय की मूर्ति तक बैठा दी।

अब यहां आप भगवान की जय तक नहीं बोल सकते, परिक्रमायें नहीं लगा सकते, सामग्री भी नहीं चढ़ा पाते। पहले निर्वाण लाडू चढ़ा लिया जाता था, फिर इसकी देहरी पर चढ़ाने की अनुमति मिली पर 2018 में तो वह भी नहीं मिली। अदालत में हम मालिकाना हक को पाने के लिये अभी भी लड़ रहे हैं। उम्मीद है, न्याय मिलेगा, कहते हैं देर हो सकती है, पर अंधेर नहीं।

जय हो श्री नेमिनाथ भगवान की।

– शरद जैन-