आप में से कई को यह नहीं मालूम होगा कि भगवान महावीर के समकालीन महात्मा बुद्ध कभी उत्तम मार्ग ‘दिगम्बर जैन साधु’ की राह पर चले थे, पर कठिन कठोर तप-त्याग से वह मध्यम मार्ग में लौट पड़े।
बौद्ध ग्रंथों से मिले उल्लेख के अनुसार उन्होंने इसका राज खोला अपने शिष्य सारिपुत्र के सामने। उसमें उन्होंने कहा – ‘सारिपुत्र! बोधि प्राप्ति से पूर्व मैं दाढ़ी, मूंछों का लुंचन (केशलोंच) करता था। मैं खड़ा रह कर तपस्या करता था (कायोत्सर्ग) उकड़ू बैठकर तपस्या करता था (सामायिक)। मैं नंगा रहता था (दिगम्बर)। लौकिक आचारों का पालन नहीं करता था (अपरिग्रह)। हथेली पर भिक्षा लेकर खाता था, बैठे हुए स्थान पर आकर दिये हुए अन्न को, अपने लिए तैयार किये हुए अन्न को और निमंत्रण को भी स्वीकार नहीं करता था (दिगम्बर मुनि आहार चर्या)। गर्भिणी और स्तनपान कराने वाली महिलाओं से भी भिक्षा (आहार) नहीं लेता था।’
फिर वे इस रूप में बोध गया पहुंचे और वहां एक वृक्ष के नीचे बैठकर गहन चिंतन करने लगे – क्या है सत्य? उन्हें लगा कि यह काफी कठिन है। फिर उन्होंने मध्यम मार्ग को ही अपना लिया।
यह ज्ञान ही उनका बोधि कहलाता है। इसके बाद वे काशी के निकट सारनाथ पहुंचे और वहां उपदेश के बाद अपना पहला शिष्य बनाया। यानि अलग धर्म-बौद्ध धर्म की स्थापना से पूर्व उन्होंने दिगम्बर मुनि बनकर ही अपनी यात्रा शुरू की और बाद में इसे कठिन मार्ग समझकर मध्यम मार्ग पर उतर आये।
आज बौद्ध लोग मांसाहार से परहेज नहीं करते। महात्मा बुद्ध के सिद्धान्तों में करुणा को विशेष महत्व दिया गया है। किंतु उनकी करुणा में मांसाहार का निषेध नहीं था। हां, जीवों का मारने का तो निषेध किया गया, किंतु मृत जीव या किसी दूसरे के द्वारा मारे गये जीव का मांस ग्रहण करने की छूट दे दी। और यही कारण है कि उनके मत के अनुयायियों में मांसाहार निर्बाध रूप से प्रचलित हो गया।
स्रोत – मज्झिम निकाय, महासहिनादसुत्र, 1/1/2 व
जैन समाज का प्राचीन इतिहास पृ. 3875
– शरद जैन –