गहोई समाज मूलतः जैन-धर्म अनुयायी समाज- तीर्थंकरों के महान उपासक गहोई(ग्रहपति) समुदाय में आज कोई भी जैन नहीं बचा

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30 मार्च 2022//चैत्र कृष्णा त्रियोदशी /चैनल महालक्ष्मीऔर सांध्य महालक्ष्मी/

भारत के इतिहास को पीछे मुड़कर देखते हैं तो उसके कई उजले पक्ष सामने आते हैं जिनकी आज हमें कोई खबर नहीं है, इतिहासविद् भी उन पक्षों से अपरिचित से मालूम पड़ते हैं,ऐसा ही इतिहास है गहोई समाज का।
बुंदेलखंड-चंबल क्षेत्र के गांवों-कस्बों में व्यापार व कृषि रुप उत्तम अहिंसक आजीविका के माध्यम से अपना जीवन निर्वाह करने वाली यह जाति आज अपने मूल मार्ग से इस कदर दूर हो गई है अब मूल केवल इनके द्वारा बनवाए मंदिर और मूर्तियों में बचा है।

बुंदेलखंड क्षेत्र जैन-धर्म का अति प्राचीन क्षेत्र है,यहां कई अतिप्राचीन सिद्धक्षेत्र,अतिशय क्षेत्र,जिनालय है जो प्रागैतिहासिक काल से जैनधर्म की यशोगाथा गा रहे हैं, जिनमें द्रोणगिरि,नैनागिरि,नवागढ़,आहार आदि प्रमुख हैं।
गहोई समाज मूलतः जैन-धर्म अनुयायी समाज रहा है,इस समाज ने प्राचीन काल में जैन-धर्म के उत्थान में बहुत भूमिका निभाई है,भारत के सबसे पुराने वैश्यों(व्यापारियों) में अगर किसी को खोजा जाए तो गहोई उनमें प्रथम स्थान पर मिलेंगे,महाजनपद काल,मौर्यकाल,कुषाण काल आदि में ग्रहपति एक विशेष व्यापारी वर्ग था,जिसने राष्ट्रोत्थान में अपनी अहम भूमिका निभाई और तीर्थंकरों का उपासक बना रहा।

गहोई जाति के जैन श्रावकों द्वारा बनवाई सैकड़ों मूर्तियां आज बुंदेलखंड-चंबल के गांव-कस्बों के जैन मन्दिरों में फैली हुई है।शायद ही कोई इलाका शेष हो जहां खुदाई हो और गहोई(ग्रहपति) जाति के श्रावकों द्वारा बनवाई प्रतिमाएं ना मिले, प्रसिद्ध जैन तीर्थ आहार की मूलनायक तीर्थंकर शांतिनाथ स्वामी की भुवनमोहिनी प्रतिमा के निर्माता गहोई जातिय दिगम्बर जैन श्रेष्ठी थे,इसके आसपास अनेक स्थानों पर गहोई बंधूओं द्वारा बनवाए गगनचुंबी जिनालय अवस्थित है‌। बुंदेलखंड का महान जैन मूर्ति निर्माता पाडाशाह गहोई था इसके प्रमाण हमारे पास आज मिल रहे हैं, खजुराहो की महान विरासतें गहोईयों ने बनवाई। स्वयं गहोई समाज के इतिहासकार इस बात को मानते हैं कि हम पहले जैन थे।कितना-कितना धर्म प्रचार नहीं किया गहोईयों ने।आज वह खंडहर जिनालय,खंडित मूर्तियां इस बात की गवाही दे रही है। बुंदेलखंड प्रांत के प्राचीन श्रावक गहोई आज जैन धर्म से दूर होकर पुरोहित वर्ग द्वारा बनाए काल्पनिक इतिहास के पीछे भाग रहे हैं जबकि अपने जीवंत इतिहास से मुंह मोड़ लिया है।

गहोई जैन-धर्म से दूर कैसे हुए

यह विषय बार-बार दुःख की अनुभूति कराता है कि तीर्थंकरों के महान उपासक गहोई(ग्रहपति) समुदाय में आज कोई भी जैन नहीं बचा हैं। इस बारे में विद्वानों की भिन्न-भिन्न धारणाएं हैं कि गहोई जैन-धर्म से दूर कब व किस कारण हुए। सल्तनतकाल तक की प्राप्त विभिन्न मूर्तिलेख गहोईयों के जैन होने की साक्षी देते हैं, लेकिन मुगलकाल के आगमन तक उनकी संख्या अतिअल्प रह जाती है, धीरे-धीरे गहोई के जैन होने के प्रमाण मिलना कम हो जाते हैं पर यह अच्छी बात है कि छिटपुट जगह गहोईयों दर्शाया बनवाई प्रतिमाएं पर्याप्त होती है,सन् 1912 में दिगम्बर जैन समाज ने भारतीय स्तर पर अपनी जनगणना करवाई थी उसमें अच्छी-खासी संख्या में गहोई जाति में जैन धर्म मानने वाले श्रावक थे,जो बुंदेलखंड प्रान्त के विविध इलाकों में रहे।पर आज वह कहां चले गए यह यक्ष प्रश्न है ?गहोई समाज के दादा-परदादा आज भी कहते हैं कि हम जब छोटे थे तब हमारे पूर्वज जैन मन्दिर जाया करते थे,हम णमोकार मंत्र‌ बोलते थे। मुगलकाल में बड़ी संख्या में जैन-धर्म पर अत्याचार हुए इन अत्याचारों के कारण उसका स्वतंत्र अस्तित्व प्रायः समाप्त जैसा हो गया अकबर के समय 5 करोड़ जैन वाली घटना महज अफवाह नहीं है बल्कि पूर्ण सत्य है,जैनों ने अपनी धार्मिकता बचाने के लिए तत्कालीन राजे-रजवाड़ों की शरण ली और चूंकि उस समय पुरोहित वर्ग का बोलबाला बढ़ा था इसी कारण मुस्लिमों के डर कई जैन जातियां सामूहिक रुप से वैष्णव परंपरा में चली गई,भारत के लगभग सभी प्रदेशों में यह घटना हुई इसी समय बुंदेलखंड में गहोई,असाटी,नेमा,धाकड़,ताम्रकार आदि जातियां जैन-धर्म से टूट गई। फिर भी इन्होंने अपने धार्मिक संस्कार बनाए रखें,आज भी इन‌ जातियों में मांसाहार को सामूहिक स्वीकृति नहीं है,ना ही शराब या अन्य व्यसन बड़े स्तर पर यहां फैल पाए हैं, संस्कारों का सद्भाव आज भी इन जातियों में है यह सब इनके मूल जैन होने की ही निशानी है।

गहोई समाज की वर्तमान दशा

वर्तमान में गहोई समाज बुंदेलखंड-चंबल के क्षेत्र में फैला हुआ है। छतरपुर, टीकमगढ़,झांसी,दतिया,ग्वालियर, मुरैना,भिण्ड के क्षेत्र में इस जाति के लोग‌ निवास करते हैं,इस जाति के वंशज अधिकतर दुकानदार है,वैष्णव संप्रदाय के प्रति श्रद्धा रखते हैं,पर इतनी कट्टरता अभी नहीं है,छोटे स्तर पर इनके जैनियों के साथ भी संबंध है,अब विवाह आदि भी होने लगे हैं,कई बार गहोई प्रवचन सभा आदि में भी आते हैं,मुनियों के दर्शन आदि की भावना सबमें रहती है।गहोई समाज पुरोहित वर्ग की दबंगई के कारण राजनैतिक उपेक्षा का शिकार है।

गहोई समाज में जैन-धर्म प्रचार की संभावना
गहोई समाज में जैन-धर्म का प्रचार होना अत्यंत आवश्यक है,बुंदेलखंड-चंबल क्षेत्र में आज जैन-धर्म अच्छी-खासी स्थिति में है, मुनि संघों का भी प्रायः आगमन रहता है,ऐसी स्थिति में इन्हें प्रवचन सभा आदि में बुलाना चाहिए,मंदिर दर्शन का नियम दिलाना चाहिए, धीरे-धीरे पूजन-अभिषेक की विधि से भी जोड़ा जाए,विहार आदि में इन्हें सम्मिलित करना चाहिए,शिविर आदि के समय गहोई बालक-बालिकाओं को भी पाठशाला में बुलाए उनको धर्म तत्त्वज्ञान सिखाए साथ ही गहोई समाज के महापुरुषों यथा-राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त आदि को जैन महापुरुषों कि सूची में शामिल करें, महावीर जयंती आदि के कार्यक्रम में गहोई समाज को आमंत्रित करें,इनके क्षेत्रिय संगठनों में तीर्थंकर ऋषभदेव स्वामी का फोटो लगाए,गहोई जाति के पूर्वजों द्वारा बनवाए तीर्थों पर गहोई बुद्धिजीवी वर्ग के सम्मेलन हो जहां गहोई समाज के उत्थान के विषय में विचार-विमर्श हो तो भविष्य में बहुत बड़ा धर्म प्रभावना का कार्य इस क्षेत्र में हो जाएगा,हमारे बिछड़े श्रावक हमसे मिल जाएंगे,धर्म जयवंत होगा।

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