कभी पढ़ा था कि किसी समाज को यदि नष्ट करना है तो उसकी संस्कृति को नष्ट कर दिया जाए/ विकृत कर दिया जाए तो वह समाज समाप्त हो जाता है।
आज जैन समाज इसी दिशा की ओर बढ़ रही है हम और हमारे नई पीढ़ी श्रावकाचार की अहिंसक संस्कृति को छोड़कर पाश्चात्य संस्कृति/आधुनिकता की संस्कृति /भौतिकता की संस्कृति में अग्रसर हो रही है । खान- पान, रहन- सहन, और बोलचाल को संस्कृति कहते हैं ।
जैन समाज की अपनी एक संस्कृति रही है, आबाल – वृद्ध सभी उसका पालन करते रहे हैं, जिसके कारण जैन समाज का अपने देश में एक अलग महत्वपूर्ण स्थान रहा है।
प्रतिदिन देव दर्शन करना, दिन में भोजन करना, छानकर के पानी पीना, जमीकंद आदि का सेवन नहीं करना, मद्य -मांस -मधु से दूर रहना; यह इस प्रकार का आचरण था जो हमें अन्य सभी से दूर किया करता था, और एक शुद्ध सात्विक समाज के रूप में जैनों को जाना जाता था। इस भजन- भोजन की भिन्नता के कारण विजातीय/विधर्मी वैवाहिक संबंध भी स्वेच्छा से नहीं पनप पाते थे।
परंतु आज का युवा वर्ग दिन में भोजन करने को पिछड़ापन मानने लगा है, रात्रि भोजन सामूहिक रुप से स्वीकार किया जा रहा है, सार्वजनिक स्थलों पर विवाह या अन्य प्रशंगों के जो भी भोज होते हैं वह रात्रि को 10 – 11 बजे तक शान के साथ आयोजित किए जा रहे हैं। जिसमें आलू-प्याज-गाजर-मूली के व्यंजनों को और कुछेक स्थानों पर तो अन्य अभक्ष्य खाद्य- पेय पदार्थों को बेशर्म होकर परोसा और खाया जा रहा है।
वैवाहिक कार्यक्रमों में महिला संगीत के नाम पर अनेक स्थानों पर इस प्रकार के प्रदर्शन हो रहे हैं, बाहर से लोगों को बुलाकर के कार्यक्रम आयोजित कराए जा रहे हैं जो कि श्रावकाचार की संस्कृति के सर्वथा विरुद्ध हैं। प्री वैंडिंग की संस्कृति शील व शालीनता को भंग कर रही है।
युवा वर्ग देव दर्शन को एक ढकोसला/दिखावा मानने लगा है । बहुत से युवा -युवती मद्य -अण्डा-मांस का सेवन भी आधुनिकता के दौर में करने लगे हैं।
होटल के भोजन की संस्कृति बढ़ती जा रही है पूरा परिवार रविवार को होटलों में जाकर के भोजन कर रहा है, पार्टियां दे रहा है।
आज की उच्च शिक्षित युवा बहनें घर पर शुद्ध- सात्विक नाश्ता बनाने की कला में पारंगत नहीं हैं। बाजार से पैक नमकीन मिठाईयां, बिस्किट्स, ब्रेड लाकर के मेहमानों का स्वागत कर रहे हैं। जिसमें हाथ की कला तथा हृदय के वात्सल्य का सर्वथा अभाव है। यह हमारी भारतीय संस्कृति नहीं है , श्रावकाचार की संस्कृति नहीं है ।
आज के दौर में जिस प्रकार का खान -पान और अंग प्रदर्शित करने वाला पहनावा हो रहा है, जिसके बारे में सुन कर और सोच कर के ही हृदय दुखित होता है ।
यह जैनों का युवा वर्ग किस ओर जा रहा है ? हम क्यों नहीं अपनी संस्कृति की सुरक्षा कर पा रहे हैं? माता-पिता अपने बालक-बालिकाओं को क्यों नहीं जैन दर्शन/ जैनाचार की शिक्षा दे पा रहे हैं ?
हम बालकों को वर्तमान में कदाचित उनको उच्च लौकिक शिक्षा व पद दिला करके कितने भी ऊंचे पहुंचा दें ; लेकिन हम यह कैसे भूल जाते हैं कि इस जीवन के कुछ दिन के भोग- उपभोग करने के बाद फिर नीचे (नरक) ही जाना होगा, जहां हजारों वर्षों के लिए खाने – पीने को तरस जाएंगे जहां के कष्टों का स्मरण मात्र भी हमारी निद्रा को भंग कर सकता है।
यदि इसी प्रकार हमारे श्रावकाचार /जैन आचार की संस्कृति का पतन होता रहा तो कुछ समय बाद जैन और अन्य समाज में किसी प्रकार का अंतर ही समझ में नहीं आएगा । आज हम यदि कोई अंतर डाल पाते हैं वह भोजन से ही डाल पाते हैं। भोजन और भजन दोनों में ही विकृतियां हो रही हैं । भजन अंधविश्वासों से ग्रस्त होते जा रहे हैं या मंदिर जाना ही छूट रहा है और भोजन आधुनिकता की दौड़ में रात्रि में हो रहे हैं, जमीकंद धड़ल्ले से बनाए जा रहे हैं कहीं-कहीं ( बड़े लोगों की ?) पार्टियों में मांसाहार और मदिरा भी वितरित हो रहे हैं ऐसे में हम अपनी जैन संस्कृति को नष्ट करने में सहभागी होकर बहुत बड़े पाप के भागीदार होंगे यह विचार ही नहीं आ रहा है।
हमें प्रश्न कर सकते हैं इसमें कौन सा पाप हुआ ?
अगर विचार करें तो इस प्रकार के आचरण में पांचों ही पाप हो रहे हैं, चारों ही कषाएं हो रही हैं और यदि एक नाम ना दे देना हो तो भी हम कह सकते हैं अपनी अनादि -अनंत शाश्वत, शुद्ध संस्कृति के ह्रास में यदि हम सहयोगी बनते हैं यह भी *संस्कृति के नाश का एक बहुत बड़ा पाप है ।
किसी के मन में प्रश्न हो सकता है कि आपने कहा है कि यह अनादि -अनंत संस्कृति है तो हम उसका अंत कैसे कर सकेंगे ?
सच है मित्रो! यह संस्कृति तो इस ढाई द्वीप में त्रिकाल विद्यमान रहेगी लेकिन हमारे बीच से वह संस्कृति समाप्त होगी। हम उस संस्कृति का पालन नहीं कर पाएंगे, हमारी पीढ़ियां उस संस्कृति से दूर हो जाएंगे, उनके मन में हिंसा के प्रति ग्लानी समाप्त हो जाएगी । उनके मन में परम पूज्य जिनेन्द्र परमात्मा जो कि स्वयं निर्दोष हैं और हमें निर्दोष होने व शान्ति का मार्ग बतलाने में कारण हैं उनसे परिचय समाप्त हो जायेंगे, रात्रि भोजन में लगने वाले दोष के प्रति उपेक्षा भाव आ जाएगा, जो एक बहुत बड़ा पाप हमारे द्वारा होगा ।
मित्रो! हम अपेक्षा रखते हैं, आपसे निवेदन करते हैं कि जिस प्रकार पहले दिन छोटा बालक स्कूल जाने के लिए तैयार नहीं होता है, बीमार होने पर अस्पताल जाने के लिए तैयार नहीं होता है, लेकिन हम किस प्रकार से उस बालक को गोद में लेकर, डांट करके, उसको लालच देकर के स्कूल ले जाते हैं, अस्पताल ले जाते हैं क्योंकि उसके 25 -50 वर्ष के भविष्य की आपको चिंता है तो क्या आप को उसके अनंत काल तक के भविष्य की चिंता नहीं है ? क्या आप नहीं चाहते कि आपके बेटा- बेटी स्वस्थ रहें; प्रसन्न रहें और लौकिक पद-पैसा- प्रतिष्ठा पाकर भी धर्म मार्ग पर चलकर अनंत काल तक सुख शान्ति का भोग कर सकें?
यदि आप चाहते हैं तो संस्कृति के संरक्षक बनिये।
निवेदक समर्पण