100% ढाई दिन का झोपड़ा जैन मंदिर ही है, ॰ पहली बार किसी दिगम्बर संत का यहां प्रवेश और वहीं से बड़ा खुलासा ॰ पहली बार जैन दावे को राष्ट्रीय मीडिया ने कवर किया

0
546

॰ चैनल महालक्ष्मी के पास प्रमाण कि यह जैन मंदिर में 660 ई. में बना
॰ जांच हो और अजमेर की यह मस्जिद कभी जैन मंदिर था
॰ मस्जिद के खम्बों पर देवी-देवता नहीं उकेरे जाते, स्वास्तिक नहीं होते
॰ यहां से निकली खण्डित मूर्तियां आज भी सोनी जी की नसियों और पूजनीय सरावगी मौहल्ले के मंदिर में हैं।
॰ बंद कमरों में भी कई जैन कलाकृतियां होने की संभावना

18 मई 2024/ बैसाख शुक्ल दशमी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/शरद जैन /
सात मई, सुबह साढ़े 6 बजे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं और जैन समाज के कुछ श्रावक, कुल सौ से ज्यादा के साथ, 38 पिच्छी के साथ अजय मेरू, जिसे अब अजमेर कहते हैं, वहां के ढाई दिन के झोपड़े में पहुंचे। उनसे प्रवेश में दुर्व्यवहार हुआ। (अलग से देखें), और यहां के इतिहास दर्ज हुआ कि ढाई दिन का झोपड़ा का किसी दिगंबर संत ने अवलोकन किया और वो भी 38 पिच्छी के साथ।\

इतिहास के पन्नों में लिखा गया ढाई दिन का झोपड़ा इमारत केवल 60 घंटे यानि ढाई दिन में बनकर तैयार हुई। चक्राकार और बांसुरी के आकार की मीनारें इमारत के प्रत्येक कोने में निर्मित है। सन् 1194 ही में इस इमारत का निर्माण मौहम्मद गौरी के आदेश पर उनके गर्वनर कुतुबदीन ऐबक द्वारा इसका निर्माण किया गया। कुछ यह भी कहते हैं कि 18वीं सदी से पहले यह मात्र मस्जिद थी। जब फकीर अपने गुरु पंजाब शाह का उर्स (पुण्य तिथि मेला) मनाने के लिए यहां एकत्र होने लगे, तो इसे झोपड़ा के रूप में जाना जाने लगा।

आचार्य श्री सुनील सागरजी ने कहा कि सरकार को सोचना चाहिए, सभी की भावना है कि सौहार्द से मिलकर जांच होनी चाहिए। अगर वहां प्रतिमायें होने की संभावना है, तो खुदाई होनी चाहिये। वहां के परिसर से खण्डित मूर्तियां सोनी जी की नसियां में और पूजनीय प्रतिमायें सरावगी मौहल्ले के पार्श्वनाथ मंदिर में विराजमान हैं, उनमें से कर्इं तो इतनी प्राचीन हैं कि उन पर कोई प्रशस्ति भी नहीं है। इसका मतलब है वहां पहले जैन मंदिर रहा होगा, इसकी पूरी संभावना है। परिसर का भ्रमण करते हुये जहां पुरातत्व के अवशेष रखे हैं, उन जगह के कमरे बंद हैं। उनमें जाली से कुछ देखने पर मंदिर के शिखर के हिस्से भी दिखे। लग रहा था कि किसी प्राचीन मंदिर के प्रांगण में आ गये हैं। शायद मुगलकाल में इसका रूप बदला होगा। अगर सामंजस्य बैठे, तो भारतीय श्रमण संस्कृति का गौरव, संस्कृति विद्यालय का गौरव स्थापित होना चाहिए। जहां से इतनी प्रतिमायें आई हैं, वहां खुदाई हो या फिर जो बरामदे में भरी पड़ी हैं, उन्हें देखने को मिले। आज भी वहां से तीर्थंकरों की प्रतिमायें प्राप्त होने की सम्भावनायें हैं। इससे कोई दो मत नहीं है कि भारतीय संस्कृति बहुत प्राचीन है, उसमें श्रमण संस्कृति, वैदिक संस्कृति आदिकाल से सदा साथ चलती रही है। सभी मिलजुल कर रहें, तो प्राचीनता है, वो स्थापित हो। जिसकी जो चीजें हैं, वो वापस मिले।

चैनल महालक्ष्मी के पास प्रमाण 660 ई. में 7 लाख में बना जैन मंदिर
अजमेर का ढाई दिन का झरोखा, जो एक दिगंबर जैन मंदिर था, उसका निर्माण पंचकल्याणक महोत्सव के साथ 660 र्ईं में सेठ विरामदेवा काला जी ने करवाया। तब अजमेर में कोई जैन मंदिर नहीं था, और इसको बनाने में 7 लाख रुपये की लागत आई। इस मंदिर का भूमि पूजन शिलान्यास जैन भट्टारक श्री विश्वनंदी जी ने किया। तब जैन संतों के विहार के समय ठहरने के लिये अजमेर में कोई स्थान नहीं था, इसलिये इस मंदिर का निर्माण कराया गया। बाद में यहां संस्कृत महाविद्यालय भी शुरू किया गया।

इसके पूरे प्रमाण 1941 में प्रकाशित अजमेर- दी हिस्टारिकल एंड डिसक्रिप्टिव के चेप्टर सात में देख सकते हैं। इस पर चैनल महालक्ष्मी द्वारा एपिसोड नं. 2603 जारी किया गया है।