दर्शनावर्णीय कर्म कारण बंध के- सम्यकदृष्टि की निंदा करना, बात-बात पर दोष दर्शन देखना, कमियां देखना, छिद्रान्वेशन करना, जिसने ज्ञान दिया , उसके प्रति अकृतज्ञ हो जाएं ,मिथ्या मान्यताओं- मिथ्या पोषक तत्वों का प्रतिपालन करना

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भगवान महावीर देशना फाउण्डेशन 18 दिवसीय पर्यूषण पर्व 2021 का तीसरा दिवस
दर्शनावर्णीय कर्म निर्जरा
सान्ध्य महालक्ष्मी की EXCLUSIVE प्रस्तुति

जैन समाज की एकता, समन्वय सौहार्द की दिशा में एक नई शुरूआत, नया शंखनाद

सान्ध्य महालक्ष्मी डिजीटल / 06 सितंबर 2021

पहले पर्युषण, फिर दशलक्षण पर्व मिलकर मनाऐंगे।
हम जैनी 18 दिन बस खुशियाँ मनाऐंगे।

एक ही है…धर्म अपना और एक ही णमोकार
एक ही है…चौबीसी अपनी और एक ही है मोक्ष मार्ग
चाहे अलग हो पहचान संतों की, पर…
श्रावक तो एक ही नजर आएंगें।
हम जैनी 18 दिन बस खुशियाँ मनाऐंगे।

18 दिवसीय पर्यूषण महापर्व की इस श्रृंखला में तीसरे दिन संयोजक श्री अमित राय जैन ने संगठन की ओर से स्वागत किया। उन्होंने कहा कि भगवान महावीर देशना फाउंडेशन ने एक नई शुरूआत और नया शंखनाद और जैन समाज की एकता, समन्वय सौहार्द की दिशा में एक ऐसा प्रयास जो कि आने वाले समय में जो जैन समाज के नेतृत्व करने वाले हैं, उन लोगों को लगेगा कि इतिहास रचा गया है। 18 दिवसीय पर्यूषण पर्व की जो श्रृंखला है वह ऐसा प्रयास है जो मील का पत्थर साबित होगा। पिछले वर्ष का प्रयोग, उसके बाद इस वर्ष नई ऊर्जा के साथ, एक संदर्भित व्यवस्थाओं के साथ भगवान महावीर देशना फाउंडेशन के सभी डायरेक्टर और आयोजन समिति के सदस्य पुरजोर कोशिश कर रहे हैं पूरे विश्व को भगवान महावीर अहिंसा, करुणा को फैलाने वाले लोग एक मंच पर इकट्ठे होकर अपनी एकता का परिचय दें। तीसरे दिन विशिष्ट संबोधन परम पूज्य गच्छाधिपति आचार्य प्रवर श्री नित्यानंद सूरीश्वर जी महाराज एवं परम पूज्य आचार्य प्रवर श्री सुप्रभ सागर जी महाराज का प्राप्त होगा तो आज के विशिष्ट वक्ता हैं श्री राजकुमार ओसवाल जैन, अध्यक्ष आत्म वल्लभ जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक महासंघ एवं डॉ. कल्याण गंगवाल जैन, पुणे, विश्व विख्यात शाकाहार प्रचारक।

भगवान महावीर देशना फाउंडेशन की स्थापना का एकमात्र उद्देश्य जैन एकता है। जैन एकता का हर पक्ष, हर पहलू, हर दृष्टिकोण से जहां जहां पर भी जो व्यक्ति जैन दर्शन को आगे बढ़ा रहे हैं, चाहे वे विद्वान हो, चाहे वो उद्योगपति हो, चाहे वो व्यक्तिगत क्षेत्रीय स्तर पर सेवा का कार्य कर रहे हों, उन सभी को अंतर्राष्ट्रीय मंच प्रदान करने की जिम्मेदारी भगवान महावीर देशना फाउंडेशन के डायरेक्टर सुभाषजी, राजीवजी, अनिलजी, मनोज जी ने उठाई है और आयोजन समितियों का विशिष्ट एक प्रबंधन इन्होंने किया है जो एक नया प्रयोग है और इसमें उपाध्याय प्रवर श्री रविन्द्र मुनि जी महाराज की प्रेरणा है।

श्री राजेन्द्र कोठारी, बैंगलोर (विनम्र, विद्वान, आॅल इंडिया जैन कांफ्रेंस के पूर्व राष्ट्रीय महामंत्री, आ. शिवमुनि जी म. के समक्ष त्याग भावना प्रकट की है) : मंगलाचरण के अंतर्गत नवकार महामंत्र का उच्चारण करते हुए पंच-परमेष्ठी को भक्तिपूर्वक नमन किया।

पर्युषण है समता, त्याग, शाश्वत सुख का पर्व
सबसे पहला त्याग मनभेद, मतभेदों का करो


एडवोकेट सृष्टि जैन :
आज ज्ञानावर्णीय निर्जरा और शिक्षक दिवस का दिन बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह हमारा सौभाग्य है कि हमारे बीच कई गणमान्य विशिष्ट गुरुजन और प. पू. साधुगण मौजूद हैं जिनके मंगल सान्निध्य के कारण आज हम इस पथ पर अग्रसर हो पाए हैं। पर्यूषण पर्व क्यों मनाया जाता है? क्यों इसे पर्वाधिराज कहते हैं? इसके पीछे सिद्धांत बहुत ही आसान है। हम पर्व मनाते क्योंकि हम हर्ष को अपने परिवार-मित्रजन में बांट सकें, उसकी वृद्धि कर सकें। जैन आगम में वो इस लौकिक हर्ष को सच्चा सुख नहीं मानता क्योंकि सच्चा सुख तो वो होता है, जिसको खोने का भय न हो, जिसे बनाये रखने की चिंता न हो। इसलिये जैन धर्म कहता है कि सच्चा सुख है त्याग का सुख, समता का सुख, जो किसी चीज के होने और न होने से खत्म न हो, जो शाश्वत रहे।

तो पर्यूषण पर्व यह बताता है कि जैसे दीवाली पर नाना प्रकार के व्यंजन खाकर हम खुश रह सकते हैं उसी तरह हम अनंतचर्तुदशी पर निराहार, निर्जल उपवास करके भी खुश रह सकते हैं। तो यह पर्व है समता, त्याग, शाश्वत सुख का। इसलिये इस पर्व को पर्वाधिराज कहा। जब हम त्याग की बात करते हैं, तो सबसे पहले हमें आपसी द्वेष, विवादों, अपने मन मुटाव, मनभेदों को त्यागना है। यह त्याग व्यक्ति, समाज और सम्पूर्ण मानवजाति के लिये बहुत जरूरी है। हमारे समाज में तीर्थों पर प्रभुता को लेकर, कहीं साधु की चर्या पर तो कहीं भ. महावीर की देशना को लेकर विवाद हैं। इन विवादों से हमारा समाज बंट गया है, दिगंबर हैं, श्वेतांबर हैं, स्थानकवासी आदि हैं, जैन नहीं। इसलिये जरूर है आज हम इन विवादों को सुलझायें, उनका त्याग करें। सबसे पहला त्याग कोई करना है तो इस मतभेद, मनभेद का त्याग करना है। परस्पोग्रहो जीवानाम् का सिद्धांत हमारे विवादों में छिपकर रह गया है।
प्रमाद त्यागो, ध्यान लगाओ

आचार्य श्री देवनंदी जी : यह महापर्व हमारे त्याग का, आत्मा में प्रवेश करने का संदेश देता है। दर्शनावर्णीय कर्म की हम निर्जरा कर लें तो आत्मा निवेशी, अंतर्मुखी दृष्टि को प्राप्त कर सकते हैं। हमारे जैनाचार्यों न कहा है कि आत्मा का जो चित्त प्रकाश है वो दर्शन है, दर्शन है स्व की अनुभूति। ये दर्शनावर्णीय कर्म के अभाव से हमें प्राप्त होता है। अगर दर्शनावर्णीय कर्म बैठा है, तब तक हमारे लिये हेय-उपादेय का, अच्छे बुरे की, कर्तव्य-अकर्तव्य की, पुण्य पाप की, संसार और मोक्ष की यह गवेष्णा हम नहीं कर सकते। यदि वास्तविक रीति से पदार्थों की सत्ता का अवलोकन करना चाहते हैं, तो दर्शन है, दर्शन गुण है, उसे हमें प्रकट करना होगा। आज तक हम आत्मा की सत्ता का भी प्रतिभास नहीं कर पा रहे हैं। मैं हूं, यह मैंपने का बोध भी जो देता है, उसी का नाम दर्शन है। इसलिये इसे आचार्यों ने चित्त को प्रकाशित करने वाला, आत्मा के अस्तित्व का बोध कराने वाला कहा है। यह आत्मा का विराट गुण है जिसे दर्शन गुण के नाम से कहते हैं।

जब यह प्रकट हो जाता है, तब हमारे लिये खुद का भी दर्शन होता है और जो हमारे लोक के महासत्ता के रूप में पदार्थ स्थित हैं, उनका भी दर्शन होता है। दर्शन अर्थात् देखने का काम करता है। लेकिन दर्शनावर्णीय कर्म न तो हमें देखने देता है, न पदार्थों की अनुभूति करने लगता है, न हमें आत्मानुभूति करने देता है। इसका बंध भी अपने भावों के कारण होता है। जो हमारे मन वचन काय की क्रियायें चलती हैं चाहें व बहिर्मुखी, अंतर्मुखी हो, जागृत रूप में हो, सुप्त रूप में हो जिस रूप में भी होती वह हमारे लिए आस्रव का कारण बन जाती है और बंध को प्राप्त होती हैं। वह या तो शुभ-अशुभ, पुण्य या पाप रूप होंगी। यदि वे क्रियायें हमें अशुभ के बंध के कारण बंधती है तो वह हमारे लिये अशुभ रूप से उनके उदय में आने का बंध होता है। दर्शनावर्णीय कर्म बांधने वाले कुछ ऐेसे अशुभ कर्म हैं। प्रमुख कारण है जैसे देव-दर्शन में व्यवधान डालना, रोक लगाना। कई बार अपनी पारिवारिक व्यस्तता के कारण भी हम मना कर देते हैं। अपनी इंद्रियों का अहंकार करने से भी दर्शनावर्णीय कर्म बंध होता है। सम्यकदृष्टियों को दोष देना, मिथ्या शास्त्रों की प्रशंसा करना, अपने ही साधर्मियों से जुगुत्स्पा आदि करना, किसी के प्राणों का घात करना – ये सभी दर्शनावर्णीय कर्म का बंध करते हैं। इनकी निर्जरा करना चाहते हैं तो हम देव-गुरुओं का दर्शन करें, सामूहिक रूप से तीर्थों का वंदन करने जाएं। अपने आलस्यपन का त्याग करें, अतिनिद्रा न लें, जागरूक बनें। हम योग में जाएं, मडिटेशन, ध्यान करें – इससे हम दर्शनावर्णीय कर्म पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। जब सारा संसार विषय भोगों में रचपच कर अपने संसारिक कार्यों में निरंतर संलग्न बना रहता है, उस समय साधु भगवंत ध्यान, स्वाध्याय में रहते हैं, यही है आत्मा में प्रवेश कर जाना।

संवत्सरी पर्व को यूनिवर्सल बना दें FORGIVENESS DAY

डॉ. कल्याण गंगवाल जैन, पुणे (विश्व विख्यात शाकाहार प्रचारक) : बचपन से ही हमें जैन एकता के संस्कार मिले हैं। हमारा गृह स्थान छोटा से संगम नाम के ग्राम में जन्म हुआ, जहां दिगंबर जैनों का एक ही घर था, जिसमें ही चैत्यालय बना था। वहां बड़े-बड़े मुनिराज आते थे, वे श्रवणबेलगोला जाते वक्त हमारे घर आहारचर्या होती थी। हमें उसी समय जैन एकता का परिचय मिला। अकेला परिवार होने की वजह से स्थानक में हमारे मुनि रहते थे और श्वेतांबर भाई चौके में मदद करने आते थे। आज ये बहुत बड़ा विषय है कि हम सब एक हो जाएं और एक होने के बाद एकता का झंडा सारे संसार में ले जाएं। आज मैं शाकाहार के प्रचार के लिये देश-विदेश में घूमता हूं तो जब मैं कहता हूं कि मैं जैन हूं तो वो परदेशी लोग कहते हैं आप व्यस्नमुक्त हो, शाकाहारी हो, रात्रि भोजन नहीं करते, पानी छानकर पीते हो, – यह हमारी पहचान अब खत्म हो रही है। इसलिये जैन एकता का एक ऐसा मंच बने जिसके माध्यम से हम सब एक हो जाएं।

मैं चाहता हूं कि 18 दिन के बाद जो रविवार आएगा, उस दिन हम एक संवत्सरी मनाएं जिसमें दिगंबर, श्वेतांबर, तेरापंथी सब मिलकर मनाएं और सरकार को, प्रधानमंत्री को विनती करें कि संवत्सरी का यह दिन फोरगिवनेस डे के रूप में मनाया जाए। मोदी जी ने योगा को इंटरनेशल मंच पर लेकर गये हैं। हम संवत्सरी पर्व को यूनिवर्सल बना दें – फोरगिवनस क्षमापान – का महान संदेश सारे संसार को जाएं और जैन धर्म की विश्व में पहचान बनें। 02 अक्टूबर को महात्मा गांधी के जन्मदिन पर अहिंसा दिवस मनाया जाता है, लेकिन यह भ. महावीर संदेश का दिन है क्योंकि गांधी जी के जीवन पर श्रीमदरायचंद जी का बहुत बड़ा प्रभाव था।
जैन एकता से अहिंसा दिवस भी विशाल स्तर पर बना पाएंगे। जीव दया का संदेश हम यूनिवर्सल लेवल पर ले जाएंगें। वर्ल्ड पालिर्यमेंट- पार्लियामेंट आॅफ आॅल रिलीजन, जो 17-18 अक्टूबर में शिकागो में वर्च्युल हो रही है, उन्होंने आचार्य विद्यासागरजी को मैसेज देने के लिये आमंत्रित किया है। जो पत्र उन्होंने भेजा है, उसमें लिखा है कि अहिंसा का संदेश देने वाला सबसे बड़ा यह जैन धर्म है, यह बात सभी को मालूम है। अभी यह कांफ्रेंस जो हो रही है, यह पार्लियामेंट का थीम है कम्पैशन यानि करुणा। करुणा जितनी जैन धर्म ने दी है, उतना संसार का कोई धर्म नहीं देता है। इस पार्लियामेंट को हम ज्यादा से ज्यादा सुनें। 1893 में इसी पलेटफार्म में सारे संसार को संदेश दिया था और भारतीय संस्कृति का परिचय दिया था। संवत्सरी पर्व हो, अहिंसा दिवस हो, इंटरनेशनल प्लेटफार्म है, हमारी जो अस्तिता है, भ. महावीर के विचारों को हम लेकर जाएं। हमें एक होना है, तो साधु-संतों को अच्छा दिशा-निर्देश देना जरूरी है।

श्री राजकुमार ओसवाल : हम जैन कुल में जन्में हैं, इससे बड़ा क्या पुण्य हो सकता है। पर्यूषण हमारा पर्वों में महापर्व है, साथ ही एकता की बात चल रही है। यह बहुत अच्छा है कि भगवान महावीर देशना फाउंडेशन बनाई गई है। आज संसार ज्वालामुखी पर बैठा है, उसको शांत करने के लिये भ. महावीर के तीनों सिद्धांत – अहिंसा, अनेकांतवाद, अपरिग्रह के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है। ऐसे भगवान के हम अनुयायी हैं, फिर भी भेदभाव रखें। आज हम 40 करोड़ से 40 लाख रह जाएं, तो हमें सोचना जरूर पड़ेगा। जैन एकता आज बहुत महत्वपूर्ण है।
छोटी सी जिंदगानी है तकरार किसलिए,
रहती है दिलों में दीवार किसलिए?
है कुछ दिनों का साथ फिर सब जुदा-जुदा
कांटे एक-दूसरे के लिये बोये तो बोये किसलिए?

हमारे चातुर्मास के अंदर चारों सम्प्रदाय के संत मुनिराज एक साथ रहे हैं, और एक साथ रहेंगे

महासाध्वी मधु स्मिता जी म. : एकता के कार्यक्रम में हम बचपन से जुड़े हुए हैं। जब हम लोग शिखरजी पर गये, स्थानकवासी साध्वीजी और वो भी शिखरजी पर जाएं और शिखरजी पर चढ़ने के बाद आर्यनंदी जी महाराज साहब के साथ सत्संग किया, वंदन नमस्कार किया। दिल्ली के अंदर श्वेतपिच्छाचार्य विद्यानंद जी महाराज, देशभूषण जी महाराज के साथ कई महीनों तक सत्संग करने का अवसर मिला। कुंभोज गिरि पर जब शांतिस्वरूप जी महाराज थे उनके साथ भी सत्संग का अवसर प्राप्त हुआ। कभी भी ऐसा मन में नहीं आया, कि वे दिगंबर है या हम श्वेतांबर। जब से दीक्षा ली है तबसे हमारे चातुर्मास के अंदर चारों सम्प्रदाय के संत मुनिराज एक साथ रहे हैं, और एक साथ रहेंगे। उन्होंने कहा –
साथी एक हो जाना, साथी हाथ बढ़ाना।
एक अकेला थक जाएगा, मिलकर बोझ उठाना।
साथी हाथ बढ़ाना, साथी रे।

गणिनी आर्यिका स्वस्तिभूषण माताजी : दर्शनावर्णीय कर्म हमारे आत्मा का जो दर्शन गुण है, उसे ढाकता है। क्या संभव है बिना आंखों के भी देखा जा सके? दर्शनावर्णीय कर्म के कारण हम आत्मा को नहीं देख पाते हैं। जरा भी इस कर्म में क्षयोपशम में दिक्कत आ जाए तो आंखों की बीमारियां हो सकती है। इसे चक्षु दर्शन कहा गया है। अन्य इंद्रियों के द्वारा जो बाहर के पदार्थ हम ग्रहण करते हैं उसे अचक्षु दर्शन कहते हैं। जिन्हें अवधि ज्ञान हो जाता है, उन्हें अवधि दर्शन होता है। जब पूर्ण दर्शनावर्णीय कर्म का नाश हो जाता है तब केवलज्ञान हो जाता है। अरिहंत भगवान, सिद्ध भगवान का अनंत दर्शन प्रकट हो जाता है, वे आत्मा से तीनों लोकों को देख सकते हैं। दर्शनावर्णीय कर्म के उदय से तीव्र नींद आती है, सोते-सोते बड़बड़ाते हैं, लार बहती हैं, आंखें खुली है लेकिन नींद नहीं खुली हैं, ये सब दर्शनावर्णीय कर्म के उदय से होता है।
जूम पर जो ये 18 दिवसीय पर्यूषण चल रहा है, बहुत अच्छा है। सबसे पहले हम जैन हैं। हम ऊपर से एक रहें, जैसे संतरा। अपनी-अपनी परम्परायें निभायें, लेकिन हम सबको पहुंचना एक ही जगह है।
धरती में कंकड़ का, केवली में तीर्थंकर का
और जैन नगर में तीर्थंकर का बड़ा ही महत्व है।
सब्जी में जीरा का, सब्जी में खीरा का
और तीर्थंकर में महावीरा का बड़ा ही महत्व है।
छबीर में कमल का, रहने में मकान का,
और मंदिरजी में भगवान का बड़ा ही महत्व है।
बीज को बोने का, कमरे में कौने का
और इस तरह एक होकर चर्चा करने का बड़ा ही महत्व है।

जन्म-जरा-मृत्यु की औषधि जिनवाणी है

आचार्य श्री सुप्रभ सागरजी : भ. महावीर की पावन देशना सभी के लिये उपकारी है। अनादिकाल से इस आत्मा में जन्म-जरा -मृत्यु तीन रोग लगे हैं, उन रोगों का इलाज करने वाली कोई परम औषधि है तो वह है जिनवाणी। जैन दर्शन ही इस ब्रह्माण्ड का आधुनिक दर्शन है जो कि हमारे लिये उस कारणकारी व्यवस्था समझाने वाला है। हमारे पूर्वचार्यों ने, हमारे तीर्थंकरों ने यही मूल सिद्धांत बताया कि जैसा कारण होता है, वैसा ही कार्य होता है। भले ही कारण हमारे सामने नहीं हो, पर कार्य देखते ही कारण की पहचान करने के लिये वह हमारे लिये अद्भुत बात कहते हैं जैसे समन्तभद्र स्वामी आत्ममिसांसा ग्रंथ में कहते हैं कारण दिखता नहीं है, बीज दिखता नहीं है लेकिन वृक्ष देखकर समझ में आता है कही न कहीं बीज था।

ऐेसे ही कार्य से कारण का भी बोध करने की आवश्यकता है क्योंकि ये जो भी कर्म सिद्धांत हमारे जैन दर्शन में बतायें गये हैं परिपूर्ण रूप से कार्य कारण व्यवस्था पर ही टिका हुआ सिद्धांत है, भले ही आज हमारे सामने वह भूत के कारण नहीं देखते पर विपरीत कार्य दिख रहा है, मतबल कहीं न कहीं भूत में कोई गड़बड़ कारणों को प्राप्त किया था जिसके निमित्त से आज हमें विपरीततायें दिखाई देती हैं। इस कर्म सिद्धांत में जो कर्म प्रकृतियों का व्याख्यान किया है, उसमें पहले दो कर्मों की जोड़ी सी बनाई है, वह ज्ञानावर्णीय और दर्शनावर्णीय कर्म की जोड़ी है क्योंकि छदमस्थ जीव को बिना दर्शन के या दर्शन उपयोग के अभाव में ज्ञान नहीं होता। दोनों को एकसाथ लेकर ही समझने की आवश्यकता है। इन दोनों की निर्जरा करने के लिये उनके आस्रव हेतु को समझने की जरूरत है। ज्ञानावर्णीय और दर्शनावर्णीय दोनों ही एक साथ ही आस्रव बंध को प्राप्त होते हैं। उसके संवर और निर्जरा के हेतु भी समान रूप से खोजने की आवश्यकता है।

समाजिक समस्याओं पर सामूहिक चिंतन जरूरी

उपाध्याय प्रवर श्री रविन्द्र मुनि जी म. : 18 दिवसीय श्रृंखला में बहुत ही उपयोगी बातें मंच पर आ रही हैं और हमें इन पर सामूहिक चिंतन करते रहना चाहिए। सामूहिक चिंतन हमेशा फायदे का सौदा रहता है तो हमारे को इस तरह का उपक्रम जारी रखना है। सच तो यह है कि जैन धर्म कर्म सिद्धांत को जानने के लिये महीनों लगते हैं, बहुत अच्छे से अध्ययन किया जाए, कुछ चीजों को याद किया जाए तब जाकर ये चीज बैठती हैं। फिर भी विद्वानजन थोड़े में ज्यादा कहने की कोशिश करते हैं। संसार आत्मा और कर्म – ये तीन चीजें हैं। हम और आप संसार में हैं, अभी हमारी और आपकी ये जन्म-मरण की परंपरा चल रही है क्योंकि हम अभी आत्मा और कर्म के बंधन में बंधे हुए हैं, हमारी आत्मा कर्मों के बोझ से पूर्ण रूपेण हल्की नहीं हुई है। हमने अपने आठों कर्म समाप्त नहीं किये हैं। ये समाप्त हो जाएं तो फिर मुक्ति ही मिल जाएगी। दर्शनावर्णीय आत्मा के सामान्य बोध को भी ढक देता है। विशिष्ट बोध, खास ज्ञान की बात तो छोड़ दो। सामान्य सा भी बोध होता है, उस क्षमता को भी दर्शनावर्णीय कर्म के उदय से जीव को सामान्य बोध भी नहीं हो पाता है। जब हम किसी चीज का विशेष बोध प्राप्त करते हैं, तो शास्त्रीय भाषा में इसे कहते हैं कि इन्हें अच्छा ज्ञान हो गया है, अब ये ज्ञानी हैं।

लेकिन जो सामान्य बोध होता है, तो उसके लिये आया है शब्द दर्शन, कि इनको कुछ तो आता है, बाहर की मोटी-मोटी चीजें समझ में आ रही हैं, मतलब स्थूल रूप से किसी चीज को जानना दर्शन है। दर्शनावर्णीय कर्म के उदय से हमें सामान्य सा भी बोध नहीं हो पाता। अंदर में महल में राजा है, व्यक्ति राजा से मिलने के लिये आया। राजा को देखना चाहता है, मिलना चाहता है, चर्चा करना चाहता है। लेकिन द्वारपाल रोक देता है, अब अंदर जा ही नहीं सकते आपको परमीशन नहीं है। जैसे द्वारपाल रोक देता है और वो राजा को देखने से वंचित रह जाता है, इसी प्रकार दर्शनावर्णीय कर्म के उदय से हमारे को सामान्य बोध भी नहीं होता है। ये दर्शनावर्णीय कर्म का प्रभाव है। हमारे यहां एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय का वर्णन आता है। पहले तीन जीवों के तो आंख ही नहीं होती, उनके कर्म के प्रभाव से उनकी आंख नहीं होती। चार और पंचेन्द्रीय जीवों की आंख तो है लेकिन कई कारणों से पूर्व जन्मों के कर्मों के प्रभाव और वर्तमान में कुछ ऐसी घटनायें घटती हैं कि दृष्टि का नाश हो जाता है, दिखता नहीं है, एक्सीडेंट में आंख चली जाती है, बीमारी लग जाती है, आंखों में धुंधलापन आ जाता है, अनेक तरह की बाधायें उसमें उत्पन्न होती हैं। तो इस प्रकार दर्शनावर्णीय कर्म हमारे ज्ञान के अंदर रुकावट, बाधा पैदा करता है। लेकिन ये कर्म बंध किस कारण से है? इसके भी छह कारण है बंध के। सम्यकदृष्टि की निंदा करना, बात-बात पर दोष दर्शन देखना, कमियां देखना, छिद्रान्वेशन करना, जिसने हमें ज्ञान दिया है, उसके प्रति हम अकृतज्ञ हो जाएं – यह पहला कारण है। मिथ्या मान्यताओं और मिथ्या पोषक तत्वों का प्रतिपालन करना दूसरा कारण है। हमारे आसपास ही ऐसे लोग मिल जाएंगे जो जैन तो हैं, लेकिन उन्हें धर्म का ज्ञान नहीं है, वे मिथ्या मान्यताओं का पोषण करते हैं, ऐसे लोग दर्शनावर्णीय कर्म का बंध करते हैं। तीसरा कहा है – शुभ सम्यकदर्शन की प्रवृत्ति में बाधा डालना और दूसरों को विपरीत मद के चक्कर में फंसाना। एक व्यक्ति सम्यकदर्शन साधना कर रहा है, उस दिशा में बढ़ रहा है। दूसरा आता है, उसे मिथ्यादृष्टि की ऐसी बातें बताता है कि वह व्यक्ति कन्फ्यूस हो जाता है और वह भी मिथ्यात्व की ओर बढ़ जाता है। चौथा कारण – सम्यकदृष्टि की समुचित विनय नहीं करना। पांचवा कारण – सम्यकदृष्टि पर द्वेष, वैर विरोध रखना, ईर्ष्या रखना। सामने वाला सम्यकदृष्टि है, आप कई कारणों से उसके प्रति घृणा रखते हैं, जगह-जगह उसकी आलोचना, बुराई, विरोध करते हैं। छठा कारण – सम्यकदृष्टि के साथ मिथ्यार्थ पूर्वक वाद-विवाद करना। जानबूझकर हम ऐसी मित्यात्व के वाद-विवाद करते हैं, कि उसको नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। हमें चिंतन करना है कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए।

जैन आबादी क्यों ही रही कम? चिंतन जरूरी
पिछले 2-4 सालों से मैं साधु समाज और श्रावक समाज में सुनता हूं कि जैनों की जनसंख्या कम हो रही है। सबकों पता है लेकिन समाधान कोई नहीं देता। जैनों की आबादी क्यों घट रही हैं? इस पर स्वतंत्र रूप से कुछ प्रबुद्ध लोगों की मीटिंग बुलाओ। दो -चार मीटिंग रखो दो चार ग्रुपों में और चिंतन करो कि इसके क्या समाधान हो सकते हैं?

डायेरक्टर राजीव जैन सीए : भ. महावीर देशना फाउंडेशन का यह मंच सिर्फ एकता के लिये और धार्मिक-सामाजिक उद्देश्य से खड़ा किया गया है। पिछले 3 दिनों में भिन्न-भिन्न धाराओं के आचार्य, देश के प्रमुख विद्धान इस मंच आए और सभी की पीड़ा है कि जैन समाज के पास एक ऐसा मंच नहीं है जहां पर पूरे जैन समाज को एक सूत्र में पिरोने का प्रयास कर सकें। पिछले दो दिन में हम डायरेक्टों के बीच में चिंतन हुआ कि हमें अगला कदम क्या करना चाहिए और यह बात भ. देशना फाउंडेशन की ओर से स्पष्ट कर दें कि इस फाउंडेशन में चुनाव का प्रारूप नहीं है। यह देश की विशिष्ट प्रभावशाली, बुद्धिजीवी, लक्ष्मीपति जो नेतृत्व हैं, उनको और संतों को सभी को समन्वय बैठाकर, मनोनीत कर एक मंच देना चाहता है। तो सारी चर्चाओं को सुनने के बाद एक निर्णय हमारी ओर से लिये गया कि आज यह जूम का प्लेटफार्म का हमारे पास उपलब्ध है और यह एक ऐसा प्रासुक प्लेटफार्म है जिस पर हम विभिन्न – विभिन्न धाराओं का संत सम्मेलन और समन्वय एक साथ कर सकते हैं और भिन्न विषयों पर हमारे सभी संत मुनिराज और आचार्य अपने आदान- प्रदान कर सकते हैं विचारों का और समाज को नेतृत्व करने के लिये अपना इकट्ठा सामूहिक संदेश दे सकते हैं। आज इस मंच से भ. देशना महावीर फाउंडेशन की ओर से घोषणा करता हूं कि एक संत समन्वय, संतों के साथ डायलॉग करने के लिये एक संत समन्वय समिति हम गठित करेंगे और उसमें आह्वान करेंगे कि राजकुमार ओसवाल जी और कल्याण गंगवालजी जैसे प्रभावशाली लोगों की मदद से देशभर से सभी संतों के लिये श्रावकों की एक समन्वय समिति बनाएंगे और प्रबुद्ध श्रावकों को उसमें मनोनीत करेंगे। उस समिति का कार्य होगा कि समय-समय पर देश के प्रमुख आचार्यों, भिन्न-भिन्न धाराओं के सभी संतों को एक जूम पर बैठक करायें, उनके विचारों का आदान-प्रदान करायें और जैन एकता व 18 दिवसीय पूर्यषण पर्व के विषय में हम लोग आगे कैसे बढ़ सकते हैं, आप अपने शक्ति का प्रयोग इस मंच के माध्यम से करें।

आचार्य प्रवर श्री नित्यानंद सूरीश्वर जी म. (सभा के शिखर पुरुष, शिखर प्रवक्ता) : जैन एकता की दिशा में इस तरह के सद्प्रयासों की हम मात्र अनुमोदना ही न करें, बल्कि हम स्वयं इस दिशा में जुड़े और सबको जोड़ने का प्रयास करें। भ. महावीर की देशना न केवल किसी धर्म, जाति, पंथ, संप्रदाय वर्ण वर्ग विशेष के लिये बल्कि उनकी देशना तो प्राणी मात्र के लिये थे। हम सब भ. महावीर के अनुयायी हैं। मानता हूं कि आज भ. महावीर के मानने वालों में भी अनेक भेद दिखाई देते हैं, लेकिन यदि हम उन भेदभावों में ही अटके रहें तो हम महावीर को भूल बैठेंगे। यदि हमें महावीर को पाना है तो संकीर्ण सम्प्रदायवाद से हमें ऊपर उठना होगा। हम सब अपनी परम्पराओं का पालन करते हुए भी भ. महावीर के झंडे तले एक होकर प्रभु वीर की, जिनधर्म की जय बोले।

श्वेतांबर परम्परा में पर्यूषण के आठ दिन तथा दिगंबर परंपरा में दशलक्षण पर्व के 10 दिन पूर्णतया जब साधना, धर्म-आराधना तथा परमात्मा उपासना पूर्वक हर्षोल्लास के साथ प्रतिवर्ष मनाये जाते किंतु भ. महावीर देशना फाउंडेशन के प्रयास से न 8 दिन, न 10 दिन बल्कि दोनों को मिलाकर पर्यूषण मनाओ 18 दिन। फाउंडेशन ने दोनों ही परंपराओं के दिनों को एक साथ सम्मिलित कर आत्मशुद्धि के पर्व पर एकता के धरातल पर लाकर जोड़ दिया। सभी अपनी-अपनी रीति से पर्यूषण भी मनायें और एक साथ भी जुड़े रहें। वर्तमान परिस्थितियों में जैनों को संगठित होने की परम आवश्यकता है। चारों तरफ कई प्रतिकूलताएं उत्पन्न हो रही हैं, धर्म – संघ तथा समाज के समक्ष कई चुनौतियां हैं, कई खतरे मंडराते दिखाई दे रहे हैं। ऐसे विकट वातावरण में हमें संगठित होना ही होगा। धर्म हमें जोड़ना सिखाता है, तोड़ना नहीं। धर्म हमें आपस में मिलाता है, भिड़ाता नहीं। धर्म सुई का काम करता है, कैंची का नहीं। धर्म एक-दूसरे के बीच दीवार का नहीं बल्कि एक-दूसरे को मिलाने के द्वार का काम करता है। परमात्मा के दिव्य देशना के प्रभाव से समोशरण में जाति के वैर को भी भूल कर सिंह-हिरण, सांप-नेवला, कुत्ता-बिल्ली आदि सभी साथ-साथ बैठ सकते हैं। हम भी तो उसी परमात्मा के उपासक हैं, तो क्या हम अपने वैर-विरोध मतभेद को भुलाकर एकसाथ नहीं बैठ सकते। भ. महावीर के अनेकांतवाद की चर्चा करने वाले हम लोग यदि उसे चर्या में भी उतार दें तो सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान हो सकता है।
अनेकांत की दृष्टि जहां है, और न पक्षपात का जाल।
मैत्री करुणा सब जीवों पर जैन धर्म है विशाल।

किशोर कुमार (यूके) : इस मंच पर इतने संतों के दर्शन कर अभिभूत हूं। मेरी विनती थी कि संत तो हर जगह विचरण कर कोशिश कर रहे हैं, लेकिन समाज की जो ड्यूटी है, उसमें समस्या आ रही है। हमारा नामकरण – इंडिया को भारत कहना और जैन को जैन कहना बहुत जरूरी है। हमें अपने आप को जैन कहना होगा, वर्ना कैसे पता चलेगा जैन है भी या नहीं।

भ. महावीर देशना फाउंडेशन – जैन एकता का पुल है

डायरेक्टर सुभाष जैन ओसवाल : भ. महावीर देशना फाउंडेशन ने जो आंदोलन शुरू किया है उसे आशीर्वाद देने के लिये श्रद्धेय आचार्य प्रवर नित्यानंद जी महाराज किस रूप से हमारे साथ जुड़े हैं, उनके उद्बोधन से पता चलता है। डॉ. कल्याण जी जिन्होंने देश में ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शाकाहार ही उत्तम आहार का जो प्रचार किया है, आज इस मंच से हम जितनी अनुमोदना करें, वह थोड़ी है। जैन एकता का एक पुल है, उस पुल के जोड़ने में राजकुमार ओसवाल का बहुत बड़ा हाथ रहता है। ऐसा लगता है आने वाले समय में, जो लक्ष्य लेकर हम लोग चले हैं, वह फलीभूत होगा। मैं सभी का मंच से जुड़े लोगों को धन्यवाद करता हूं। हमारा एक लक्ष्य है 8 और 10 नहीं 18. पिछले साल करीब 35 जैन आचार्यों ने अपना उद्बोधन दिया। यह देश का पहला मंच बनेगा जो एकता का पक्षधर होगा। यहां क्रिया, परंपरा नहीं है, जो जिनशासन की प्रभावना करते हैं, जो महावीर के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने के लिये संकल्प लेते हैं हम सब उनके कार्यों की अनुमोदना करते हैं।
(Day 3 समाप्त)