जयोदय महाकाव्य बालब्रह्मचारी महाकवि पंडित भूरामल जी की यशस्वी लेखनी से प्रसूत हुआ है, जो आगे चलकर जैन मुनि अवस्था में आचार्य ज्ञानसागर जी के नाम से प्रसिद्ध हुए । श्री भूरामल जी एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने निरन्तर आत्म साधना की ओर अग्रसर रहते हुए एक नहीं अनेक महाकाव्यों का सृजन किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि आत्मसाधक योगी के लिए काव्य आत्मसाधना का अंग बन गया और सम्पूर्ण जीवन काव्यमय हो गया। कवि भूरामल जी के व्यक्तित्व का बहिरंग चित्र एक प्रत्यक्षदर्शी के निम्न शब्दों में दृश्यमान हो उठा-
“गौर वर्ण, क्षीण शरीर, चौड़ा ललाट, भीतर झांकती आँखें, हित-मित-प्रिय धीमा बोल, संयमित सधी चाल, सतत् शान्त मुद्रा यही था उनका अंगन्यास ।” आत्मा में वीतरागता का अवतरण होने के बाद उनके अंतरंग की छवि वत्ता ने निम्न विशेषणों से मूर्तित कर दी है | “विषयाशक्ति-विरक्त, अपरिग्रही, ज्ञान-ध्यान-तप में लवलीन, करुणा–सागर, पर-दुःखकातर, विद्यारसिक, कविहृदय, प्रवचनपटु, शान्तस्वभावी, निस्पृही, समता, विनय, धैर्य और सहिष्णुता की साकार मूर्ति, भद्रपरिणामी, साधना में कठोर, वात्सल्य में नवनीत से भी कोमल एवं सरल प्रकृति तेजस्वी महात्मा-बस यही था उनका अन्तर का आभास।”
ऐसे व्यक्तित्व के धनीयोगी का जन्म राजस्थान में जयपुर समीप सीकर जिले के राणोली ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री चतुर्भज एवं माता का नाम श्रीमति घृतवरी देवी था। कवि ने स्वयं जयोदय महाकाव्य के प्रत्येक सर्ग की स्वोपज्ञ टीका के अनन्तर निम्न शब्दों में अपने तथा अपने माता-पिता का उल्लेख किया है |
”श्रीमान् श्रेष्ठिचतुर्भुजः स सुषुवे भूरामलोपाह्वयं,
वाणीभूषणवर्णिनं घुतवरी देवी च यं धीचयम् ॥”
कवि का भूरामल नाम उनके गौर वर्ण एवं लुनाई को देखते हुए रखा गया था । उनका एक और नाम था ‘शान्तिकुमार’ जो संभवत: राशि के आधार पर रखा गया था । श्री भूरामल जी पाँच भाई थे। बड़े भाई का नाम छगनलाल था। तीन भाई उनसे छोटे थे- गंगाबक्स, गौरीलाल, देवीलाल ।
शिक्षा : शैशवकाल से ही भूरामल जी की अध्ययन में तीव्र रूचि थी । उन्होंने अपने जन्म स्थल में ही कुचामनवासी पं. जिनेश्वरदास जी से प्रारम्भिक, प्राथमिक, लौकिक एवं धार्मिक शिक्षा प्राप्त की, पर गाँव में उच्च शिक्षा प्राप्त न हो सकी। सन् 1907 (विक्रम संवत 1964) में उनके पिता श्री चतुर्भुज जी की मृत्यु हो गयी । उस समय बड़े भाई की उम्र 12 वर्ष तथा भूरामल जी की उम्र 10 वर्ष थी। पिता के आकस्मिक निधन से घर की अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। फलस्वरूप बड़े भाई छगनलाल को जीवकोपार्जन हेतु बाहर जाना पड़ा। वे गया नगर (बिहार) पहुँचे और वहाँ एक जैन व्यवसायी के यहाँ कार्य करने लगे। आगे अध्ययन का साधन न होने से भूरामल जी भी अपने अग्रज के समीप गया नगर चले गये और एक जैन व्यवसायी के प्रतिष्ठान में कार्य सीखने लगे।
गया नगर में जीवन-यापन करते हुए लगभग एक वर्ष ही व्यतीत हुआ था कि उनका साक्षात्कार किसी समारोह में भाग लेने आये स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी (उ.प्र.) के छात्रों से हुआ। उन्हें देखकर भूरामल जी के हृदय में वाराणसी जाकर विद्याध्ययन करने की तीव्र इच्छा हुई। उन्होंने अपनी इच्छा बड़े भाई से निवेदित की, पर आर्थिक प्रतिकूलता के कारण बड़े भाई ने अनुमति नहीं दी। भूरामल जी अपनी ज्ञानपिपासा का दमन करने में समर्थन हो सके और लगभग 15 वर्ष की आयु में अध्ययनार्थ वाराणसी चले गये।
स्याद्वाद महाविद्यालय में पहुँचकर भूरामल जी ने मात्र अध्ययन को ही महत्व दिया । जहाँ आपके अन्य साथियों का लक्ष्य परीक्षायें उत्तीर्ण कर उपाधियाँ अर्जित करना था, वहीं आपका उद्देश्य ज्ञानार्जन करना ही था । उनका विचार था कि उपाधियाँ तो उतीणांक पाने योग्य से भी अर्जित की जा सकती हैं । यदि उपाधियों को ही लक्ष्य बनाया जाये तो ज्ञान गौण हो जावेगा । वे ज्ञान गाम्भीर्य का प्रमाण कदापि नहीं हो सकता । इसी धारणा के फलस्वरूप उन्होंने अनावश्यक परीक्षायें न देकर अहोरात्र ग्रंथों का अध्ययन किया। स्वल्पकाल में ही शास्त्री स्तर तक के सभी ग्रंथों का अध्ययन पूर्ण कर लिया । क्रीन्स कॉलेज, काशी से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की । स्याद्वाद महाविद्यालय से उन्होंने संस्कृत, संस्कृत साहित्य और जैन दर्शन की उच्च शिक्षा प्राप्त की ।
नव प्रवर्तन : उस समय पाठ्यक्रम में व्याकरण, साहित्य आदि जैनेतर ग्रंथ ही थे, क्योंकि अधिकांश जैन ग्रंथ अप्रकाशित थे, अतएव अनुपलब्ध थे। फलस्वरूप जैन छात्रों को जैनेतर ग्रंथों का ही अध्ययन करना पड़ता था। इससे भूरामल जी को अत्यंत दु:ख होता था। वे सोचते थे कि जैन आचार्यों ने व्याकरण, न्याय एवं साहित्य के अद्वितीय ग्रंथों की रचना की है, किन्तु हम उन्हें पढ़ने के सौभाग्य से वंचित हैं। यह पीड़ा उनके मन में उथल-पुथल मचाती रहती थी। तब तक जैन-न्याय और व्याकरण के कुछ ग्रंथ प्रकाशित हो चुके थे। इसका सुफल यह हुआ कि आपने अन्य लोगों के सहयोग के अथक प्रयल करके उन ग्रंथों को काशी विश्वविद्यालय और कलकत्ता परीक्षालय के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित करवा दिया। इस समय आपकी दृष्टि इस तथ्य पर गयी कि जैन वाङ्मय में काव्य और साहित्य के ग्रंथों की न्यूनता है। अत: आपने संकल्प किया कि अध्ययन समाप्ति के अनन्तर इस न्यूनता को दूर करेंगे। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि वाराणसी में आपने व्याकरण, न्याय और साहित्य के जैनाचार्य विरचित ग्रंथों का ही अध्ययन किया । उस समय स्याद्वाद महाविद्यालय में जितने भी अध्यापक थे, वे सभी अधिकांशत: ब्राहमण ही थे। उन्हें जैन ग्रंथों को पढ़ाने और प्रकाश में लाने की तीव्र इच्छा थी। अतएव जैसे भी, जिस अध्यापक से भी संभव हुआ आपने जैन ग्रंथों का अध्ययन किया। इस समय महाविद्यालय में पंडित उमराव सिंह जी धर्मशास्त्र के अध्यापक थे, जो बाद में ब्रहमचर्य प्रतिमा धारण कर ब्रहमचारी ज्ञानानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनसे भूरामल जी को जैन ग्रंथों के पठन-पाठन के लिए प्रेरणा एवं प्रोत्साहन मिला। इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में उनका गुरु रूप स्मरण किया
“विनमामि तु सन्मतिकमकामं द्यामितकैर्महितं जगति तमाम्।
गुणिनं ज्ञानानन्दमुदासं रुचां सुचारूं पूर्तिकरं कौ ।।
जयोदय 28/100
प्रस्तुत श्लोक के प्रत्येक चरण के प्रथम अक्षर के योग से ‘विद्यागुरु’ पद बनता है तथा उनका ‘ज्ञानानन्द’ नाम उल्लेखित कर भूरामलजी ने अपने गुरु को नमन किया। भूरामल जी अध्ययनकाल से ही स्वावलम्बी थे। विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। वे सायंकाल गंगा के घाटों पर गमछे बेच कर स्वयं का खर्चा चलाते थे। पं. श्री कैलाशचंदजी शास्त्री के अनुसार इस महाविद्यालय के 70 वर्ष के इतिहास में ऐसी दूसरी मिसाल देखने या सुनने को मिली।
कार्यक्षेत्र : अध्ययन समाप्त कर पं. भूरामल जी शास्त्री अपने जन्मस्थली राणौली लौट आये। अब उनके समक्ष कार्यक्षेत्र के चुनाव की समस्या थे । उस समय घर की आर्थिक स्थिति ठीक न थी और अन्य विद्वान महाविद्यालय से निकलते ही सवैतनिक सेवा स्वीकार कर रहे थे । तथापि उनको सवैतनिक अध्यापन कार्य करना उचित प्रतीत नहीं हुआ। अतएव वे अपने ग्राम में रहकर ही व्यवसाय द्वारा आजीविका अर्जित करते हुए नि:स्वार्थ भाव से स्थानीय जैन बालको को शिक्षाप्रदान करने लगे। इसी बीच उनके अग्रज श्री छगनलाल जी भी गया नगर से वापिस आ गये। अत: दोनों भाईयों ने मिलकर व्यवसाय प्रारम्भ किया और अनुजों के लालन-पालन एवं शिक्षा दीक्षा का उत्तरदायित्व निभाया । पं. भूरामल जी की व्यवसायिक योग्यता और विद्वता देख कर अनेक लोग विवाह प्रस्ताव लेकर आये। उनके भाईयों तथा संबंधियों ने विवाह करने हेतु बहुत आग्रह किया, किन्तु आपने विवाह करना अस्वीकार कर दिया । क्योंकि आपने अध्ययनकाल में ही आजीवन ब्रहमचारी रहकर साहित्य सूजन एवं प्रचार में ही जीवन व्यतीत करने का संकल्प लिया था ।
साहित्य सृजन की प्रेरणा : श्री भूरामल जी को साहित्य सृजन हेतु प्रेरित करने वाले दो कारण हैं। इनमें प्रथम है जैन वाङ्मय में काव्य और साहित्य की न्यूनता एवं अप्रकाशित होना और द्वितीय है अध्ययनकाल की एक घटना। घटना इस प्रकार है- बनारस में जब एक दिन भूरामल जी ने एक जैनेतर विद्वान के समीप पहुँचकर जैन साहित्य का अध्ययन कराने हेतु निवेदन किया तो उन विद्वान ने व्यंग्य करते हुए कहा कि ‘जैनियों के यहाँ है कहाँ ऐसा साहित्य, जो मैं तुम्हें पढ़ाऊँ? यह सुनकर क्षण भर को भूरामल जी अचेत से हो गये जैसे काठमार दिया हो किसी ने । शब्द बाण की भाँति पर्दे को चीरते हुए हृदय तक पहुँच गये उस दिन उन्हें मन में बड़ी टीस हुई। मन ही मन खेद करते हुए अपना सा मुँह लेकर वापिस आ गये। उसी समय उन्होंने दृढ़संकल्प किया कि मैं अध्ययन काल के उपरान्त ऐसे साहित्य का निर्माण करूंगा जिसे देखकर जैनेतर विद्वान भी ‘दाँतों तले अँगुली दबा लें।
साहित्य सूजना : अपने संकल्प को कार्य रूप देने हेतु भूरामलजी व्यवसाय में उदासीन हो गये। व्यवसाय का कार्य छोटे भाईयों को सौंपकर वे पूर्णरूपेण अध्ययन-अध्यापन और साहित्य-सृजन में जुट गये। उन्होंने अध्ययन और लेखन को ही अपनी दिन चर्या बना लिया। वे दिन में एक बार शुद्ध सात्विक भोजन करने लगे । इसी बीच आपको दाँता (रामगढ़) राजस्थान में संस्कृत अध्यापन के लिए बुलाया गया । वे वहाँ जाकर परमार्थ भाव से अध्यापन कार्य करने लगे । इस प्रकार अध्यापन एव अध्ययन कार्य करते हुए संस्कृत एवं हिन्दी ग्रंथों की रचना कर इन भाषाओं के साहित्य को विपुल समृद्धि प्रदान की ।
चारित्र की ओर कदम : इस प्रकार अध्ययन-अध्यापन और अभिनव ग्रंथों की रचना करते हुए जब भूरामल जी की युवावस्था व्यतीत हुई, तब आपके मन में चारित्र धारण कर आत्म कल्याण करने की अन्त:स्थिति भावना बलवती हो उठी। फलस्वरूप बाल ब्रह्मचारी होते हुए भी सन् 1947 (विक्रम संवत् 2004) में अजमेर नगर में आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से व्रत रूप से ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण कर ली। सन् 1949 (विक्रम संवत् 2006) में आषाढ़ शुक्ल अष्टमी को पैतृक घर पूर्णतया त्याग दिया। इस अवस्था में भी वे निरन्तर ज्ञानाराधना में संलग्न रहे। उन्होंने इसी समय प्रकाशित हुए सिद्धांत ग्रंथ धवल, जय धवल एवं महाबन्ध का विधिवत् स्वाध्याय किया। चारित्र पथ पर अग्रसर होते हुए 25 अप्रैल 1955, अक्षय तृतीया तिथि को ब्रह्मचारी जी ने मन्सूरपुर (मुजफ्फरनगर, उ.प्र.) में आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से क्षुलक दीक्षाग्रहण की और उन्हें क्षुलक श्री ज्ञानभूषण नाम दिया गया। आत्म कल्याण के पथ पर अग्रसर होते हुए आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज के द्वारा सन् 1957 में ऐलक के रूप में दीक्षित किये गये ।
जब ऐलक श्री ज्ञानभूषण जी ने अंतरंग निर्मलता में वृद्धि के फलस्वरूप स्वयं को उच्चतम संयम में पालन में समर्थ पाया तब आषाढ़ कृष्ण 2, विक्रम संवत् 2016, ईस्वी सन् 22 जून 1959, सोमवार को खनियाँ जी की नसिया (जयपुर) में आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज से प्रथम मुनि शिष्य के रूप में दीक्षा ग्रहण की और मुनि श्री ज्ञानसागर जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। इस समय भी मुनि श्री की अध्ययन के प्रति रुचि चरम सीमा पर थी । अतएव वे संघस्थ मुनि, आर्यिका, क्षुल्क, ब्रह्मचारी आदि को ग्रन्थ पढ़ाते थे अध्यापन के प्रति रुचि देखकर सहज की उनको संघ का उपाध्याय बना दिया गया। वयोवृद्ध होते हुए भी धर्म प्रभावना हेतु उन्होंने राजस्थान में विहार किया । वहाँ नगर-नगर भ्रमण कर धर्मोपदेश दिया । उनके प्रवचनों से प्रभावित होकर अनेक लोगों के जीवन में धर्म का प्रवेश हुआ ।
आचार्य पद : फाल्गुन कृष्ण पंचमी, विक्रम संवत् 2025, शुक्रवार 7 फरवरी 1969 को नसीराबाद, जिला अजमेर (राजस्थान) की जैन समाज ने आपको आचार्यपद से अलंकृत किया, उसी दिन मुनि श्री विवेकसागर जी ने आपसे दीक्षा ग्रहण की । स्व-पर कल्याण करते हुए आचार्य श्री ज्ञानसागर जी लगभग 80 वर्ष के हो गये, किन्तु उनके अध्ययन-अध्यापन पर शारीरिक अवस्था का कोई प्रभाव न पड़ा। उनके संघ में अध्ययन-अध्यापन का कार्यक्रम वर्तमान युग के अध्यापक एवं अध्येता के लिए आश्चर्य कारक है।
समाधिमरण : ज्ञान एवं तप में युवा आचार्य श्री ज्ञानसागर जी का शरीर वृद्धावस्था के कारण क्रमश : क्षीण होने लगा। गठियावात के कारण सभी जोड़ों में अपार पीढ़ा होने लगी । इस स्थिति में उन्होंने स्वयं को आचार्य पद का निर्वाह करने असमर्थ पाया और जैनागम के नियमानुसार आचार्य पद का परित्याग कर सल्लेखना व्रत करने का दृढ़निश्चय किया। अपने संकल्प को कार्यरूप में परिणति करने हेतु उन्होंने नसीराबाद में मृगशिर कृष्ण-2, विक्रम संवत् – 2029, बुधवार, 22 नवम्बर 1972 को लगभग 25000 जनसमुदाय के समक्ष अपने योग्यतम शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी से निवेदन किया- ‘यह नश्वर शरीर धीरे-धीरे क्षीण होता जा रहा है, मैं अब आचार्य पद छोड़कर पूर्णरूपेण आत्मकल्याण में लगना चाहता हूँ। जैनागम के अनुसार ऐसा करना आवश्यक और उचित है, अतः मैं अपना आचार्यपद तुम्हें सौंपता हूँ।’
आचार्य श्री के इन शब्दों की सहजता, सरलता तथा उनके असीमित मार्दव गुण से मुनि श्री विद्यासागर जी द्रवित हो उठे। तब आचार्य श्री ने उन्हें अपने कर्तव्य, गुरु-सेवा, भक्ति और आगम की आज्ञा का स्मरण कराकर सुस्थिर किया । उच्चासान का त्याग कर उसपर मुनि श्री विद्यासागर जी को विराजित किया। शास्त्रोत विधि से आचार्यपद प्रदान करने की प्रक्रिया सम्पन्न की। अनन्तर स्वयं नीचे के आसन पर बैठ गये। उनकी मोह एवं मान मर्दन की अद्भुत पराकाष्ठा चरम सीमा पर पहुँच गयी। अब मुनि श्री ज्ञानसागरजी ने अपने आचार्य श्री विद्यासागरजी से अत्यंत विनयपूर्वक निवेदन किया
“भो गुरुदेव ! कृपां कुरु |”
‘हेगुरुदेव! मैं आपकी सेवा में समाधि ग्रहण करना चाहता हूँ। मुझ पर अनुग्रह करें। ‘आचार्य श्री विद्यासागर जी ने अत्यंत श्रद्धविह्वल अवस्था में उनको सल्लेखना व्रत ग्रहण कराया । मुनि श्री ज्ञानसागर जी सल्लेखना व्रत का पालन करने के लिए क्रमश: अन्न, फलों का रस एवं जल का परित्याग करने लगे । 28 मई 1973 को आहार का पूर्णरूपेण त्याग कर दिया। वे पूर्ण निराकुल होकर समता भाव से तत्वचिन्तन करते हुए आत्मरमण में लीन रहते । आचार्य श्री विद्यासागर जी, ऐलक सन्मतिसागर जी एवं क्षुल्क स्वरूपानंद जी निरन्तर अपने पूर्व आचार्य के समीप रहकर तन्मयता व तत्परता से सेवा करते, सम्बोधित करते थे।
ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या, 1 जून 1973 का दिन, समाधिमरण का पाठ चल रहा था । चारों ओर परम शांति थी । “ऊँ नमः सिद्धेभ्यः’ का उच्चारण हृदयतंत्री को झंकृत कर रहा था। उसी समय आत्मलीन मुनि श्री जी ने प्रात: 10 बजकर 50 मिनिट पर पार्थिव देह का परित्याग कर दिया ।