दानतीर्थ की शुरूआत-पूर्व भव के पति-पत्नी ने मुनि-श्रावक रूप में की, कैसे हुई अक्षय तृतीया पर्व की शुरूआत?

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महाराज नाभिराय व महारानी मरुदेवी के पुत्र राजा वृषभदेव के मन में नीलांजना के नृत्य से संसार त्याग की भावना बलवती हो गई। संसार क्षणभंगुर है, यह अहसास होते ही उन्होंने सर्वस्व परिग्रह का त्याग दिया और सिद्धार्थक वन में चन्द्रकांत मणि शिला पर विराजमान हुये। पंच मुष्ठियों से केश लोंचन कर चैत्र कृष्ण नवमी को सायंकाल के समय उत्तराषाढ़ नक्षत्र में जिन दीक्षा धारण कर ली। और उसी क्षण मन: पर्यय ज्ञान की प्राप्ति हो गई। दीक्षा का वह स्थान प्रयाग के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

मुनि स्वरूप में भगवान वृषभदेव शरीर से सभी प्रकार का ममत्व त्याग करके और मन वचन काय को एकाग्र करके छ: माह के उपवास की प्रतिज्ञा लेकर कायोत्सर्ग आसन से खड़े हो गये।

निश्चल, निष्पन्द व अनासक्त भाव से ध्यानलीन भगवान छ: माह तक एक ही स्थान पर ध्यानारूढ़ रहे। बाल बढ़कर जटाएं बन गर्इं (यद्यपि तीर्थंकरों के नख व केश नहीं बढ़ते, पर भगवान वृषभदेव के सम्बंध में आचार्य जिनसेन कृत ‘आदि पुराण’, आचार्य रविक्षेण के ‘पद्म पुराण’ व हरिवंश पुराण आदि में उनकी जटाओं का विवरण मिलता है।)

छ: माह निराहार तप पूर्ण,
आहार विधि दिखाने की भावना

निराहार छ: माह तक प्रतिमायोग धारण कर खड्गासन में तपस्या का नियम पूर्ण करने के बाद भी भगवान वृषभदेव का न शरीर कृश हुआ, न ही तेज में अतंर पड़ा। वे अभी निराहार रहकर तप जारी रख सकते थे, पर मन में विचार आया कि वर्तमान व भविष्य में मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से जो लोग तप करेंगे, यदि वे आहार नहीं करेंगे तो आहार के अभाव में उनकी शक्ति क्षीण हो जाएगी। मोक्ष, अर्थ व काम का साधन धर्म पुरुषार्थ है, धर्म का साधन शरीर है, और शरीर अन्न पर निर्भर है। अत: परम्परा से अन्न भी धर्म का साधन है। अत: हम भरत क्षेत्र में शासन की स्थिरता और मनुष्यों में धर्म की आस्था बनाये रखने के लिये मनुष्यों को निर्दोष आहार ग्रहण करने की विधि दिखानी होगी। अत: परोपकार के लिये उन्होंने गोचर विधि से अन्नग्रहण करने का विचार किया।

आहार के लिये गोचर विधि की तलाश 6 माह तक
ऐसा विचार कर भगवान अपना ध्यान समाप्त कर आहार के लिये निकले। उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त होने तक मौनव्रत ले लिया था। वे चान्द्री चर्या से विचरण करते हुए मध्याह्न के समय किसी नगर या ग्राम में चर्या के लिये जाते थे। प्रजाजन मुनि जनोचित आहार की विधि नहीं जानते थे, न उन्होंने कभी किसी मुनि को आहार देते हुए देखा-सुना था। किंतु भगवान में उनकी अपार श्रद्धा थी। वे उनके दर्शन पाकर हर्षित हो जाते और भगवान की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए वे विविध प्रकार के उपायन-भेंट लाकर भगवान के चरणों में चढ़ा देते थे।

कोई वस्त्राभूषण लाता, दूसरा को ई गन्ध, माल्य, विलेपन, रत्न, मुक्ता, गज, अश्व या रथ लाकर भगवान की भेंट चढ़ाता किन्तु भगवान उन वस्तुओं की ओर देखे बिना ही आगे बढ़ जाते थे। इससे लोग अपनी कल्पित भूल या कमी का अनुभव करके बड़े खिन्न हो जाते। कितने ही लोग महान् अनर्घ्य रत्नों की भेंट लाते, कितने ही करोड़ों पदार्थ, करोड़ों वाहन समीप लाते, कितने ही अज्ञानी नव यौवना कन्याओं को ले आते और उनसे विवाह करने की प्रार्थना करने लगते। कितने ही भोजन सामग्री ले आते थे। इस प्रकार जगत को आश्चर्य करने वाली गूढ़चर्या से उत्कृष्ट चर्या धारण करने वाले भगवान को छ: माह और व्यतीत हो गये।

हस्तिनापुर प्रवेश व पूर्व भव स्मरण

इस तरह एक वर्ष पूर्व होने पर भगवान वृषभदेव कुरजांगल देश के आभूषण के समान सुशोभित हस्तिनापुर नगर में पहुंचे। तब हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ व उनके लघु भ्राता राजकुमार श्रेयांस थे। ये दोनों बाहुबलि के यशस्वी पुत्र थे।

सुबह राजकुमार श्रेयांस उठे और भाई के पास जाकर स्थानों की चर्चा की। राजपुरोहित ने स्वप्न सुन उनका यह फल बताया – सुमेरू देखने से यह प्रकट होता है कि सुमेरू के समान उन्नत और सुमेरू पर्वत पर जिसका अभिषेक हुआ है, ऐसा कोई देव आज अवश्य ही हमारे घर आएगा। अन्य स्वप्न भी उनके गुणों को प्रगट करते हैं। आज हमें जगत में प्रशंसा व सम्पदा प्राप्त होगी।

भगवान का राजभवन प्रवेश व जाति स्मरण
जहां ये स्वप्न चर्चा हो रही थी, वहीं मुनिरूप में भगवान वृषभदेव ने हस्तिनापुर में प्रवेश किया। नगरवासी भगवान के दर्शनों के लिये एकत्रित होने लगे, कुछ भक्तिवश तो कुछ उत्सुकतावश। राजमार्ग और राजमहल तक भीड़ से भर गया। गृहस्थों के बीच से चार हाथ प्रमाण भूमि को देखते हुए मन्थर गति से राजभवन की ओर आते देख सिद्धार्थ द्वारपाल ने राजा सोमप्रभ को संदेश दिया। सुनते ही राजा, राजकुमार श्रेयांस व रानियों, मंत्रियों व राजपुरुषों के साथ आंगन में आये। पर तभी जैसे चमत्कार हो गया। भगवान का रूप देखते ही श्रेयांस कुमार को जाति स्मरण ज्ञान हो गया, अरे ये तो वो हैं और साथ ही द्वि मुनियों को वन में दिये आहार की विधि सहित स्मरण हो गया।

सबने भक्तिपूर्वक भगवान को नमस्कार किया। भगवान के चरणों को जल से धोकर अर्घ्य चढ़ाया और उनकी तीन प्रदक्षिणा दी। उन्होंने श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, अक्षोम, क्षमा और त्याग इन सात गुणों से युक्त होकर, जो एक दान देने के लिए आवश्यक है, नवधा भक्तिपूर्वक (क्या है नवधा भक्ति, अलग बॉक्स में पढ़ें) श्रेयांस कुमार ने दान के विशिष्ट पात्र भगवान को प्रासुक आहार दिया। अकिंचन भगवान ने खड़े रहकर हाथों से ही (पाणि पात्र होकर) आहार ग्रहण किया।

इक्षुरस व पंचाश्चर्य
उस समय वहां पर इक्षु रस से भरे हुए कलश रखे हुए थे। राजकुमार श्रेयांस ने राजा सोमप्रभ और रानी लक्ष्मीपति के साथ भगवान को उसी इक्षु रस का आहार दिया। इधर भगवान की अंजुलि में इक्षु रस की धारा पड़ रही थी, उधर भगवान के आहार के उपलक्ष्य में देव लोग रत्नों की वर्षा कर रहे थे। कुछ देव पुष्पवर्षा कर रहे थे। देव हर्ष से भेरी-ताड़न कर रहे थे।

शीतल सुगन्धित पवन बहने लगी। आकाश से देव ‘धन्य यह दान, धन्य यह पात्र और धन्य यह दाता’ इस प्रकार कह कर दान की अनुमोदना कर रहे थे। तीर्थंकरों के आहार के समय ये पांच बातें अवश्य होती हैं और इन्हें पंचाश्चर्य कहते हैं।
सम्राट भरत भी हैरान, कैसे दिया आहार-दान

आहार करके भगवान वन को लौट गये। दोनों भाई कुछ दूर तक भगवान के साथ गये। लौटते हुए वे मुड़-मुड़ कर भगवान को देखते जाते। भगवान के चरण जहां-जहां पड़े थे, वे वहां की धूल उठाकर माथे पर लगाते और गद्गद् हो जाते।

राजकुमार श्रेयांस के कारण ही संसार में दान देने की प्रथा प्रचलित हुई। रत्न दने की विधि भी श्रेयांस ने सबसे जानी। उधर, सम्राट भरत को भी बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि श्रेयांस कुमार ने भगवान के मन का अभिप्राय कैसे जान लिया। विशेष कर जब वे मौन धारण कर विहार कर रहे थे। छ: माह तक कोई नहीं जान पाया और इन्होंने कैसे जान लिया? बस कौतुहलवश उन्होंने श्रेयांस से पूछा – हे कुरुवंश शिरोमणि! मुझे यह जानने का कौतूहल हो रहा है कि तुमने मौनधारी भगवान का अभिप्राय कैसे जान लिया? दान की विधि अब तक कोई नहीं जानता था, उसे तुमने कैसे जान लिया? तुमने दान-तीर्थ की प्रवृत्ति की है, तुम धन्य हो। हमारे लिये तुम भगवान के समान ही पूज्य हो। तुम महापुण्यवान हो।

श्रेयांस कुमार ने सारी बात बता दी और भगवान के पिछले भवों का वर्णन किया और दान देने की विधि विस्तारपूर्वक बताई। तब सम्राट भरत ने दोनों भाइयों के प्रति बड़ा अनुराग प्रकट किया और उनका खूब सम्मान किया।

(सूत्र – जैन धर्म का प्राचीन इतिहास, आदिपुराण व जैन भारती)