नवभारत टाइम्स 10 अगस्त 2001 में प्रकाशित
मन मनुष्य की वह शक्ति है, जो नर से नारायण बना दे
वो रात को झोपड़ी में एक छोटा सा दीया जलाकर शास्त्र पढ़ रहा था। पढ़ते-पढ़ते आधी रात बीत गई। थकान के साथ जब नींद आने लगी तो उसने फूंक मार कर दीया बुझा दिया। वह यह देख कर हैरान हो गया कि दीया बुझते ही झोपड़ी में चाँदनी बिखर गयी। सोच में पड़ गया कि यह चाँदनी अब तक उसे क्यों नहीं दिखाई दी? क्या एक छोटे से दीए ने इतने बड़े चांद को बाहर रोक कर रक्खा था।
यह रहस्योद्घाटन झोंपड़ी के साथ उसके मन को भी आलोकित कर गया। सोचने लगा मैंने तो अपने मन में एक नहीं अनेक काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार के छोटे-छोटे दीए जला रखे हैं। शायद इसी कारण परमात्मा रूपी चांद का आलोक मेरे मन-मंदिर के बाहर ही खड़ा रह जाता है। मेरे मन के यह दीये दिखते तो जरा-जरा से हैं लेकिन इनकी लौ से सब कुछ राख हो जाता है। कामनाएँ सुख चैन छीन लेती हैं। क्रोध जघन्य अपराध का जनक है। अहंकार के परिणाम संबंधों में विघटन, वर्ग संघर्ष, अमीरी-गरीबी भेदभाव हैं। मायावी का व्यवहार सरल और सहज नहीं होता तथा लोभ तो अनर्थो का मूल तथा हिंसादि सभी दोषों की खान है।
यह राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह आदि सारे विकार जीव का बंधन है। विवेक द्वारा इसे तोड़ना जीव का ही काम है। इस काम में सहयोगी होता है मन को वश में करना। वास्तव में मानव मन में विषयों की आसक्ति है। मानव के जीवन का अंतिम लक्ष्य अंत में उस परमेश्वर की प्राप्ति ही है। लेकिन परमेश्वर कोई ऐसा फल नहीं है जिसे कोई भी तोड़कर किसी के मुख में डाल दे। इनमें से कोई न कोई विकार हमें प्रभु के रास्ते से भटका ही देता है। जीभ की प्यास पानी के हर घूंट पर कम होती जाती है, जबकि मन की प्यास प्रत्येक सामग्री की उपलब्धि पर बढ़़ती जाती है।
एक प्रखर नियंत्रित और शांत मन संसार का सबसे शक्तिशाली अस्त्र है, जिसके सामने संपूर्ण ब्रह्मांड नतमस्तक है। -स्वामी विवेकानंद
उस व्यक्ति ने तो थकान और नींद के कारण दिया बुझाया। लेकिन हमें नींद से जाग कर चैतन्य होकर विकारों के ये छोटे-छोटे दीये बुझाने होंगे ताकि परमेश्वर रूपी पूर्ण चन्द्र की आभा का हमारे हृदय में प्रवेश हो। परमेश्वर के आलोक को पाने का एक ही मार्ग है। अपने आप को समझना। अपने आप को समझने के लिए अपने विचारों को समझना होगा कि हमारे विचार किस दिशा में जा रहे हैं? क्या हम सिर्फ अपने हित के बारे में ही सोचते हैं अथवा प्रकृति और समस्त प्राणीमात्र के प्रति हमारा मैत्री भाव रहता है? शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता के लिए हमारे मन में डेरा जमाये असंतुलित विचार और भाव जिम्मेदार हैं, वे चेतन-अचेतन, वर्तमान हो या अतीत, प्रिय हो या अप्रिय सदा हमारे व्यवहार को प्रभावित करते रहते हैं। अशुभ भाव या मानसिक विकार ही समस्त व्याधियों को जन्म देते हैं। प्रत्येक घटना के साथ मन जुड़ा होता है, बिना मन जुड़े हममें न राग होता है, न द्वेष, न सुख, न दुख, न आनंद और न ही पीड़ा। ईश्वर की उपस्थिति महसूस होगी।
मन ही मनुष्य की वह शक्ति है, जिसके द्वारा वह नर से नारायण और भटक जाए तो नर से नराधम बना देता है। गुरु नानक देव जी ने इनसे छुटकारा पाने का एक ही उपाय बताया कि -“मन जीते, जग जीत”। मन शांत होते ही कषायों के दीपक बुझेंगे और ईश्वर की उपस्थिति महसूस होगी।
निर्मल जैन , 9810568232