जैन प्रतिमाओं को गहरे कुओं, खड्डों में छिपा दिया, इस स्थान से इतनी धन संपत्ति लूटी गई थी जो कि 1500 ऊँटो पर रखने के बाद भी बच गयी

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24 मई 2022/ जयेष्ठ कृष्णा नवमी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/
एक अतिप्राचीन राज्य के अतिशयकारी मंदिर की है, जहाँ के वैभव का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, कि यहां आज तक जैन मूर्तियां प्राप्त होती रहती है,, लगभग 1100 वर्ष पूर्व इन जैन प्रतिमाओं को आक्रमणकारियों से बचाने के लिए गहरे कुओं, खड्डों में छिपा दिया गया था । कहते हैं, इस स्थान से इतनी धन संपत्ति लूटी गई थी जो कि 1500 ऊँटो पर रखने के बाद भी बच गयी थी । जिन्हें आक्रमणकारी लेकर भी नही जा सके थे ।
आइये और जानते हैं उप्र के फिरोजाबाद जिले के चन्द्रवाद नगर के बारे में —

चन्द्रवाड़ प्राचीन जैन मंदिर फिरोजाबाद से चार मील दूर दक्षिण में यमुना नदी के बांये किनारे पर आगरा जिले में अवस्थित है। यह एक ऐतिहासिक नगर रहा है। आज भी इसके चारों ओर मिलों तक खंडहर दिखाई पडते है। यह एक जैन अतिशय क्षेत्र है। तथा प्राचीन समय में जैन धर्म का मुख्य केंद्र भी रहा है।

यह क्षेत्र फिरोजाबाद से चार मील की दूरी पर है। केवल एक मंदिर ही अवशिष्ट है। जो गांव के एक कोने में खड़ा है। निकट ही यमुना नदी बहती है। यहां चारो ओर खादर और खार बने हुए है। यहां बस्ती में कोई जैन घर नहीं है। मंदिर में दो चार सेवक ही रहते है।

यहां का प्रबंध फिरोजाबाद की दिगंबर जैन पंचायत करती है। यहां वर्ष में कुछ गिने चुने जैन भक्त ही आते है। अन्यथा तो यह नितांत उपेक्षित पड़ा हुआ है। कुछ वर्षों पहले मंदिर की स्थिति काफी दयनीय थी हालांकि भक्तों के प्रयासों से निरंतर बदलाव होता जा रहा है।

यहाँ हर वर्ष 2 अक्टूबर को वार्षिक मेला लगता हैं, यहाँ अब तक 50 पंचकल्याणक प्रतिष्ठा की जा चुकी हैं । देवाधिदेव श्री 1008 चन्द्रप्रभु भगवान की जो प्रतिमा जी हैं, (वर्तमान में फिरोजाबाद) ये वही प्रतिमा जी हैं जो काशी में आचार्य समन्तभद्र जी के पिंडी को नमस्कार करने पर पिंडी फाड़कर प्रकट हुई थी।

वि.स. 1042 में यहां का शासक चंद्रपाल नामक दिगंबर जैन पल्लीवाल राजा था। कहते है कि उस राजा के नाम पर ही इस स्थान का नाम चन्द्रवाड़ या चन्दवार या चंदावर पड़ गया। इससे पहले इस स्थान का नाम असाई खेड़ा था। इस नरेश ने अपने जीवन में कई प्रतिष्ठिता कराई।

वि.स. 1053 में इसने एक फुट आवगाहना की भगवान चन्द्रप्रभ की स्फटिक मणि की पदमासन प्रतिमा की प्रतिष्ठता करायी। इस राजा के मंत्री का नाम रामसिंह हारूल था, जो लम्बकचुक था। इसने भी वि.स. 1053 — 1056 में कई प्रतिष्ठाएं करायी थी। इसके द्वारा प्रतिष्ठित कतिपय प्रतिमाएं चन्द्रवाड़ के जैन मंदिर में अब भी विद्यमान है। ऐसे भी उल्लेख प्राप्त होते है। कि चंदावर में 51 प्रतिष्ठाएं हुई थी।

इस वेदी के अतिरिक्त दाये और बाये दालान में तथा दो वेदियां मुख्य वेदि के पिछे दीवाल में बनी हुई है। बायी ओर के दालान की वेदी में बलुआ भूरे पाषाण की एक पदमासन प्रतिमा विराजमान है। आवगाहना तीन फुट है। सिंहासन पीठ पर सामने दो सिंह बने है। सिर के ऊपर पाषाण का छत्र सुशोभित है। चिन्ह और लेख अस्पष्ट है।

मुख्य वेदि के पृष्ठ भाग में स्थित बायी वेदी में बलुआ भूरे पाषाण की ढाई फुट ऊंची पदमासन प्रतिमा है। नीचे सिंहासन फलक पर दो सिंहों के साथ बीच वृषभ का चिन्ह है। जिससे स्पष्ट है कि यह आदिनाथ तीर्थंकर की प्रतिमा है। दोनों ओर चमरवाहक इंद्र है। सिर के ऊपर छत्र और पुष्प वर्षीणी देवियाँ अंकित है।

आज भी चन्द्रवाड़ क्षेत्र में जैन भगवान की मूर्तियां खुदाई में निकलती हैं। जिन्हें चन्द्रवाड़ जैन मंदिर के अंदर रखवा दिया जाता है। जैन मंदिर में अभी भी तमाम खंडित मूर्तियां भी सुरक्षित रखी हुई हैं।