फाल्गुन शुक्ल सप्तमी का पावन दिन है 20 मार्च, होली से ठीक 7 दिन पहले, जब शाश्वत पावन धरा की ओर आयु कर्म का एक माह शेष रहते पहुंच गये 8वें तीर्थंकर, चांद की तरह दूध से भी ज्यादा श्वेत, श्री चंदाप्रभु स्वामी। अब तक उनकी समोशरण में दिव्य ध्वनि खिरती रही, पर अब विराम का वक्त आ गया।
पौष कृष्ण एकादशी को जन्मे, जी हां, उसी दिन 23वें तीर्थंकर श्री पारस प्रभु का भी जन्म हुआ और दोनों ही इसी पावन धरा की सबसे ऊंची दो पहाड़ियों से एक पूर्व और दूसरा बिल्कुल पश्चिम कूट से मोक्ष गये।
हां, तो इसी ललित कूट से चंदाप्रभु मात्र एक समय में जन्म मरण के सारे कुचक्र, बंधन को तोड़ इस लोक के अग्रभाग में 45 लाख योजन के सिद्धालय में अनंत चतुष्टय के साथ विराजमान हो गये। आपके साथ एक हजार माहमुनिराज भी नश्वर शरीर को सदा के लिये त्याग कर मोक्ष गये।
इस ललित कूट का रूप अभी हाल में तीर्थक्षेत्र कमेटी ने संवार दिया है। जैसे स्वर्णभद्र कूट की सीढ़ियां चौड़ी हैं, वैसी ही अब ललित कूट की भी हैं, साइड में पक्की रेलिंग इसे सुविधाजनक बना देती है।
इस ललित कूट से 984 अरब, 72 करोड़ 80 लाख 84 हजार 595 मुनिराज सिद्ध भये हैं। इस टोंक की भाव सहित वंदना करने से 96 लाख उपवास का फल मिलता है। बोलिए, तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभु की जय, जय, जय।