अद्भुत प्रतिमा : अतिशय क्षेत्र श्री #चन्देरी जी में विराजित अद्भुत जिन कृति के माध्यम से अरिहन्त परमेष्ठी जी व सिद्ध परमेष्ठी जी में अन्तरों का देती है ज्ञान

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अतिशय क्षेत्र श्री चन्देरी जी जिला अशोकनगर (म. प्र.) स्थित श्री दिगम्बर जैन चौबीसी बड़ा मन्दिर में स्थापित है ।

_धातु की यह अद्भुत कृति अन्यत्र हमें देखने को नहीं मिली
अतिशय क्षेत्र श्री चन्देरी जी में विराजित इस अद्भुत जिन कृति के माध्यम से अरिहन्त परमेष्ठी जी व सिद्ध परमेष्ठी जी में अन्तर्निहित कुछ अन्तरों को , कृतिकाrर ने जानने का एक स्वर्णिम अवसर हमें प्रदान किया है ; इस सन्देश के साथ कि हम प्रभु दर्शन , उनके गुणों का स्मरण करते हुए पूर्ण श्रद्धा / समर्पण / एकाग्रता / तल्लीनता के साथ करें तो बहुत कुछ अनायास ही प्राप्त कर सकते हैं / नवीन ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं ।

दर्शन करने से कुछ तथ्य स्पष्ट रूप से दृष्टव्य होते हैं :

1—- धातु पटल के अधो भाग में तीन अर्हन्त प्रतिमा जी विराजित हैं । जबकि पटल के उपरिम भाग में तीन सिद्ध परमेष्ठी जी परिrलक्षित हो रहे हैं । अर्हन्त परमेष्ठी ही अघातिया कर्मों का नाश कर (सम्पूर्ण कर्मों का नाश कर ) ऊर्ध्व गति करके सिद्धालय में तिष्ठते हैं । इसलिए सिद्धों की रचना पटल के उपरिम भाग में है *।

_2—-अरिहंत परमेष्ठी के ऊपर छत्र नामक प्रातिहार्य है । अतः निर्णय हुआ कि यह किन्हीं तीर्थंकर की रचना हैं। !

3—अरिहन्त परमेष्ठी सकल परमात्मा हैं ! साकार प्रतिमा है । सिद्ध परमेष्ठी निकल परमात्मा है जो शरीर रहित हैं !*

4-अरिहन्त परमेष्ठी बाह्य विभूति से सुशोभित हैं , उपरिम पटल में सिद्ध परमेष्ठी के बाह्य विभूति का लोप है , मात्र अंतरंग विभूति रहती है ।

5-अरिहन्त परमेष्ठी के चरण नीचे से समान तल पर हैं और सिर से उनकी अवगाहना कम या ज्यादा दिख रही है !
सिद्ध परमेष्ठी की अवगाहना का अन्तर चरणों के माध्यम से दृष्टिगोचर है क्योंकि सभी के शिरोभाग समान तल पर हैं ।

निष्कर्ष निकला :

सिद्धभूमि ईषत्प्राग्भार पृथिवी के ऊपर स्थित है । अर्हन्त परमेष्ठी सिद्धत्व प्राप्त कर लोकाग्र में , तनु वातवलय में , बैलून के समान , शिरोभाग से अधर में तिष्ठते हैं !
प्रस्तुत पटल में उनके चरणों के तल का स्तर , उनकी अवगाहना के अनुसार नीचे या ऊपर टँकोत्कीर्ण किया गया है !

_कहने का आशय यह है कि अर्ध चन्द्राकार सिद्ध शिला ( अष्टम वसुधा ) पर सिद्ध परमेष्ठी विराजमान नहीं रहते , वरन् देवाधिदेव अष्टम पृथिवी के ७०५० धनुष ऊपरवर्ती तनु वातवलय में, बैलून के समान ( समझने हेतु उदाहरण ) , सिद्धों के आवास में जाकrर , सम्यकत्वादि गुणों से युक्त और अनन्त सुख से तृप्त सुस्थित होते हैं !
प्रश्न उठता है : लोकाग्र से आगे उनका ( सिद्ध परमेष्ठी ) गमन क्यों नहीं ?
– इसके आगे गति के हेतु – धर्मास्तिकाय का अभाव होने से ।

6—-अरिहन्त परमेष्ठी की अवगाहना जितनी होती है सिद्ध अवस्था में पहुंचने पर उनकी अवगाहना , मूल उत्सेध से किञ्चित न्यून हो जाती है !_
यह तथ्य भी यहाँ परिलक्षित है !
7-धातु पटक पर चिह्नों के अवलोकन पश्चात् यह तथ्य भी ज्ञात हुआ कि तीन पदों के धारी तीनों तीर्थंकर भगवन्तों का मोक्ष गमन खड्गासन में हुआ है ।
_सूक्ष्म अवलोकन से यह भी ज्ञात हो रहा है कि तीर्थंकर भगवन्तों के कुछ प्रातिहार्य हैं और अष्ट मङ्गल द्रव्यों में से कुछ का अंकन किया गया हैं !

भक्ति हमारे भावों की दशा और हमारे चित्त की एकाग्रता आदि पर आधारित है ।