13 सितम्बर 2022/ भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी / प्रो.डॉ. अनेकान्त कुमार जैन/नई दिल्ली
हमारी मान्यता बन चुकी है कि हमारी दृष्टि वैसी नहीं होनी चाहिए जैसा कि ‘सत्य’ है; बल्कि सत्य ही वैसा होना चाहिए जैसी कि दृष्टि है।
आश्चर्य होता है कि इतने बड़े वैज्ञानिक, तथ्यात्मक तथा प्रामाणिक युग में रहकर भी हम अपनी मान्यताएं सुधार नहीं पाते हैं।
18 सितंबर 1949 को संविधान सभा की कार्यवाही में हरि विष्णु कामथ जी ने अपने भाषण में भारत, हिन्दुस्तान, हिन्दू भारत भूमि, भारतवर्ष आदि नामों का सुझाव देते हुए दुष्यन्त पुत्र भरत की कथा ‘भारत’ का उल्लेख किया था।
हृदय नारायण दीक्षित जी ने दैनिक जागरण 10 अगस्त 2004 के सम्पादकीय पृष्ठ पर ‘भारत क्यों हो गया इंडिया” नामक अपने लेख में लिखा है कि “संविधान सभा ने भारत को इंडिया नाम देकर अच्छा नहीं किया। जो भारत है उसका नाम ही भारत है। यह ‘इंडिया जो भारत है” को पारित करवाकर सत्तारूढ़ कांग्रेसजनों ने एक नये राष्ट्र के रूप, स्वरूप, दशा, दिशा, नवनिर्माण, भविष्य और नाम को लेकर दो धाराएं जारी की। एक धारा भारतीय दूसरी इंडियन । महात्मा गांधी, डॉ. राममनोहर लोहिया, डॉ. हेडगवार, बंकिमचन्द और सुभाषचन्द्र बोस भारतीय धारा के अग्रज हैं। पं. जवाहर लाल नेहरू पर सम्मोहित धारा इंडियावादी है।”
दीक्षित जी ने ”चूकें किससे नहीं होती” वाक्य से अपने लेख की शुरुआत की है। उनकी इसी पंक्ति को आदर्श वाक्य मानते हुए मैं भी कुछ चूकों पर उनका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। इससे शायद वे भारत के नाम को लेकर किसी तीसरी धारा को भी देख पायेंगे जिसे देखना कई लोगो को कभी गँवारा नहीं रहा।
आधुनिक शोधों और खोजों का परिणाम आया है कि जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के प्रथम पुत्र चक्रवर्ती सम्राट ‘भरत” के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा और इससे पूर्व ऋषभदेव के पिता ‘नाभिराय’ के नाम पर इस देश का नाम ‘अजनाभवर्ष” था।
इस खोज से इस मान्यता पर पुर्नविचार करना पड़ सकता है कि ‘दुष्यन्त पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा ।”
यह बात नहीं है कि ‘दुष्यन्त पुत्र भरत” का उल्लेख शास्त्रों में है नहीं। महाभारत एवं कुछ एक पुराण में इस संबंधी श्लोक भी हैं किन्तु उन्हीं पुराणों में एक नहीं वरन् दर्जनों श्लोक ऐसे भी हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि ऋषभ पुत्र भरत के नाम पर इस देश को भारत नाम मिला।
दरअसल भरत के नाम से चार प्रमुख व्यक्तित्व भारतीय परम्परा में जाने जाते हैं –
1. तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत
2. राजा रामचन्द्र के अनुज भरत
3. राजा दुष्यन्त का पुत्र भरत
4. नाट्यशास्र के रचयिता भरत ।
इन चारों विकल्पों में से प्रथम विकल्प के ही शिलालेखीय तथा शास्त्रीय साक्ष्य प्राप्त हैं। अग्निपुराण भारतीय विद्याओं का विश्वकोश कहा जाता है, उसमें स्पष्ट लिखा है –
ऋषभो मरूदेव्यां च ऋषभाद् भरतोSभवत्।
ऋषभोSदात् श्री पुत्रे शाल्यग्रामे हरिंगत:।
भरताद् भारतं वर्ष भरतात् सुमतिस्त्वभूत ।। (अग्निपुराण 40/10-11)
एक उदाहरण मार्कण्डेयपुराण (50/39-42) का भी द्रष्टव्य है –
आग्नीध्र सूनोर्नाभिस्तु ऋषभोSभूत द्विज: ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीर: पुत्रशाद् वर: ।।
सोSभिषिञ्च्स्युर्षभ: पुत्रं महप्राव्राज्यमास्थित: ।
तपेस्तेपे महाभाग: पुलहाश्रम-संश्रय: ।। हिमाहव॑ दक्षिणं वर्षं भरताय पिता ददौ। तस्मातु भारतं वर्ष नाम्ना महात्मन: ।।
स्कन्द पुराण में तो स्पष्ट लिखा है –
नाभे: पुत्रश्च ऋषभ ऋषभाद् भरतोSभवत् । तस्य नाम्ना त्विदं वर्षं भारतं चेति कीतर्यते।।
(माहेश्वर खण्डस्थ कौमारखण्ड, 37/57)
इसी प्रकार भागवत् (5/4/9), शिवपुराण (37/57), महापुराण (17/76 तथा 15/158-159), ब्रह्मापुराण पूर्व (2/4), नारदपुराण (पूर्वखण्ड, अध्याय 48), लिंग पुराण (47/19-23) तथा अन्य कई ग्रंथों में बार-बार यह शंखनाद किया गया है कि ‘ऋषभ पुत्र भरत” ही इस भारतवर्ष नामकरण के कारण हैं।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के सामने जब यह समस्या आयी कि इस देश का नाम क्या होना चाहिए ? तब उन्होंने घोषणा की कि हमें शिलालेखीय साक्ष्य जो मिलेंगे हम उसे ही स्वीकार करेंगे। तब भुवनेश्वर, उड़ीसा में उदयगिरि-खण्डगिरि के शिलालेख जिन्हें प्रसिद्ध जैन सम्राट खारवेल ने खुदवाया था, में ‘भरधवस’ (प्राकृत भाषा में तथा ब्राह्मी लिपि में) अर्थात् भारतवर्ष का उल्लेख प्राप्त हो गया।
इस ऐतिहासिक शिलालेख ने चक्रवर्ती भरत के काल से लेकर खारवेल के युग तक देश के “भरत वर्ष! नामकरण
को प्रमाणित कर दिया।
“चूकें किससे नहीं होती ?” – की सार्थकता भी तब है जब विद्वान, इतिहासकार आग्रह छोड़कर इस सत्य को स्वीकार करें।
डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल जैसे इतिहासज्ञ भी देश में कम हैं जिन्होंने अपनी पुस्तक “मार्कण्डेय पुराण का अध्ययन के टिप्पणी भाग में अपनी भूल स्वीकारते हुए लिखा है कि- “मैंने अपनी ‘भारत की मौलिकता’ नामक पुस्तक में पृष्ठ 22-24 पर दौष्यन्ति-भरत से “भारतवर्ष” लिखकर भूल की थी, इसकी ओर मेरा ध्यान कुछ मित्रों ने आकर्षित किया उसे अब सुधार लेना चाहिए।”
पद्मभूषण बलदेव उपाध्याय ने शोध पत्रिका प्राकृतविद्या, अंक जुलाई- सितम्बर 2001, पृ. 33 पर स्पष्ट लिख दिया है – “जैनधर्म के लिए यह गौरव की बात है कि इन्हीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र ‘भरत’ के नाम से देश का नामकरण “भारतवर्ष” इन्हीं की प्रसिद्धि के कारण विख्यात हुआ। इतना ही नहीं अपितु कुछ विद्वान भी सम्भवत: इस तथ्य से अपरिचित होंगे कि आर्यखण्ड रूप इस भारतवर्ष का एक प्राचीन नाम नाभिखण्ड या ‘अजनाभवर्ष’ भी इन्हीं ऋषभदेव के पिता “अजनाभ’ के नाम से प्रसिद्ध था। … नाभिराज का एक नाम ‘अजनाभ’ भी था।” श्रीमद्भगवत (5/7/3) में कहा है – ‘अजनाभं नामैतद्वर्षभारतमिति यत् आरभ्य व्यपदिशन्ति।
वे आगे पृष्ठ 35 पर लिखते हैं – “इस तरह के प्रमाणों के आधार पर अब उन लोगों की आंखें खुल जानी चाहिए, अर्थात् वे भ्रांतियां मिट जानी चाहिए, जो दुष्यन्त पुत्र भरत या अन्य को इस देश के नामकरण से सम्बद्ध करते हैं। तथा विद्यालयों, कॉलेजों के पाठ्यक्रम में निर्धारित इतिहास की पुस्तकों में भी इससे संबंधित भ्रमों का संशोधन करके इतिहास की सच्चाई से अवगत कराना बहुत आवश्यक है।”
यह बात मुझे उन दिनों भी खटकी थी जब स्टार प्लस के सुप्रसिद्ध कार्यक्रम “कौन बनेगा करोड़पति’ (प्रथम) में अमिताभ बच्चन ने हॉट सीट पर बैठे किसी प्रतियोगी से प्रश्न पूछा था कि इस देश का नाम भरत किसके नाम पर पड़ा ? तो ‘ऋषभ पुत्र भरत के नाम पर जैसा कोई विकल्प उनके चार विकल्पों में था ही नहीं। जबकि यही सही उत्तर है। प्रतियोगी को उन चारों गलत उत्तरों में एक चुनना पड़ा।
हिन्दी की सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘हंस” के अक्टूबर 2002 के अंक के अतिथि सम्पादक प्रेमकुमार मणि के सम्पादकीय में भी जब यह उल्लेख मिला कि “मिथकीय कथा के अनुसार हमारे भारत का नाम शकुन्तला के पुत्र भरत के नाम पर पड़ा है” (पृ. 5), मुझे लगा कि इस क्रांति का जितना जल्दी हो सके, निराकरण होना चाहिए।
निवेदन यह है कि भारतीय संस्कृति, सभ्यता, ज्ञान और अध्यात्म की श्रीवृद्धि में जिस भी परम्परा का योगदान जैसा रहा है उसे वैसा महत्व और श्रेय दिया जाना चाहिए। तथ्यों तथा प्रमाणों को छुपाने या उन्हें जैसे-तैसे अपने पक्ष में सिद्धकरने की परम्परा आत्मघाती है। विचारों का जो नया उन्मेष भारत में जगा है वह यही है कि हमारा कोई भी चिन्तन आग्रही न बने। हम दुराग्रह को छोड़कर सत्याग्रही बनें; शायद हम तभी भारत को समझ सकते हैं।