श्री भक्तामर सम्यक ज्ञान शिविर द्वादश दिवस
पावन सानिध्य:- परम पूज्य श्रमणाचार्य श्री विमदसागर जी महाराज ससंघ
काव्य न.12
यै: शान्तरागरुचुभि: परमाणु भिस्तस्वं।
निर्मापितस्त्रिभुवनैक ललाम भूत।।
तावन्त एव खलु तेप्यणव:पृथिव्याम।
यते समानमपरमं न हि रूपमस्ति।।
श्री मानतुंगाचार्य जी द्वारा रचित श्री भक्तामर जी के 12 वे काव्य के एक एक शब्द की व्याख्या आचार्य श्री के मुखारविन्द से श्रवण कर समाजजन धन्य हो गए
आचार्य श्री ने कहा कि आचार्य मानतुंग स्वामी ने कल काव्य के माध्यम से यह बताया था कि जो जिनेंद्र भगवान की भक्ति करता है वह एक दिन अवश्य भगवान बन जाता है
जब तक श्रावक का देव शास्त्र गुरु से नही होता है कनेक्शन
तब तक पुण्य का नही हो सकता है पुण्य का कलेक्शन
आज का काव्य वांछित रूप प्रदायक काव्य है
प्रत्येक आदमी चाहता है कि मुझे सुंदर रूप मिले
आचार्य मानतुंग स्वामी कह रहे है कि हे जिनेद्रदेव राग से रहित शांत परमाणु से आपका शरीर रचा गया है जगत में आप जैसा सुंदर कोई भी नही है जिन परमाणुओं के द्वारा आपकी रचना हुई है वे परमाणु अब इस पृथ्वी पर नही है आप अनुपम एवम अद्वितीय सुंदर है
आचार्य श्री ने कहा कि तन से काला होना कोई पाप कर्म का उदय नही है तन के कलूटा को मोक्ष मिल सकता है लेकिन मन के कलूटा को मोक्ष नही मिल सकता है
भगवान से यही प्रार्थना है कि हे जिनेंद्र देव मेरा तन भले ही काला हो जाये लेकिन मेरा मन काला नही होना चाहिये
भगवान का शरीर शांत परमाणु से बना हुआ होता है सोलह काऱण भावना भाने वाला जीव ही तीर्थंकर प्रकति का बंध करता है एवम पंचकल्याणक को प्राप्त करता है