सर्वरोगनाशक भक्तामर स्तोत्र : सर्वविघ्न विनाशक काव्य शत्रु तथा शिरपीड़ानाशक काव्य

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6अप्रैल 2022//चैत्र शुक्ल पंचमी /चैनल महालक्ष्मीऔर सांध्य महालक्ष्मी/
ऋद्धि : ॐ ह्रीँ अर्हँ णमो अरिहंताणं णमो जिणाणं ॐ ह्रॉं ह्रीँ ह्रूँ ह्रौँ ह्रः अ सि आ उ सा अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय झ्रौं झ्रौं स्वाहा|
मंत्र : ॐ ह्राँ ह्रीँ ह्रूँ श्रीँ क्लीँ ब्लूँ क्रौँ ॐ ह्रीँ नमः स्वाहा|


मूल पाठ संस्कृत
भक्तामर-प्रणत-मौलिमणि-प्रभाणा-
मुद्द्योतकं दलित-पाप-तमोवितानम्।
सम्यक् प्रणम्य जिनपाद्युगं युगादा-
बालम्बनं भवजले पततां जनानाम्।।१।।

यः संस्तुतः सकल-वाड्.मयतŸवबोधा-
दुद्भूतबुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः।
स्तोत्रैर्जगत्त्रितय-चिŸाहरैरुदारै
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम।।२।।

भक्तामर स्तोत्र काव्या 1 & 2 (हिन्दी)
भक्त अमर नत मुकुट सु-मणियों, की सु-प्रभा का जो भासक।
पाप रूप अति सघन तिमिर का, ज्ञान-दिवाकर-सा नाशक॥
भव-जल पतित जनों को जिसने, दिया आदि में अवलंबन।
उनके चरण-कमल को करते, सम्यक बारम्बार नमन ॥१॥
सकल वाङ्मय तत्वबोध से, उद्भव पटुतर धी-धारी।
उसी इंद्र की स्तुति से है, वंदित जग-जन मन-हारी॥
अति आश्चर्य की स्तुति करता, उसी प्रथम जिनस्वामी की।
जगनामी सुखधामी तद्भव, शिवगामी अभिरामी की ॥२॥

अन्वयार्थ –
(भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणिप्रभाणाम्) भक्त देवों के झुके हुए मुकुट सम्बन्धी रत्नों की कान्ति के (उद्द्योतकम्) प्रकाशक (दलित-पाप-तमोवितानम्) पापरूपी अंधकार समूह को नष्ट करने वाले और (युगादौ) युग के प्रारम्भ में (भावजले) संसाररूपी जल मंे (पतताम्) गिरते हुए (जनानाम्) प्राणियों के (आलम्बनम्) आलंबन-सहारे (जिनपादयुगं) जिनेन्द्र भगवान के दोनों चरणों को (सम्यक्) अच्छी तरह से (प्रणम्य) प्रणाम करके।

(यः) जो (सकल-वाड्.मय-तŸवबोधात्) समस्त द्वादशांग (शास्त्र) के ज्ञान से (उद्भूत-बुद्धि-पटुभिः) उत्पन्न हुई बुद्धि के द्वारा चतुर (सुरलोक-नाथैः) इन्द्रों के द्वारा (जगत्त्रितयचिŸाहरैः) तीनों लोकों के प्राणियों के चिŸा को हरने वाले और (उदारैः) उत्कृष्ट (स्तोत्रैः) स्तोत्रों से (संस्तुतः) जिनकी स्तुति की गई थी (तम्) उन (प्रथमम्) पहले (जिनेन्द्रम्) जिनेन्द्र ऋषभदेव की (अहम् अपि) मैं भी (किल) निश्चय से (स्तोष्ये) स्तुति करूँगा।।१-२।।

पद्यानुवाद
पुरुदि सुविधि करतार।
धरम धुरंधर परम गुरु, नमों आदि अवतार।।

सुरनत-मुकुट रतन छवि करें, अन्तर पाप तिमिर सब हरें।
जिन पद वन्दों मन वच काय, भवजल पतित-उधरन सहाय।।

श्रुत-पारग इन्द्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव।
शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिस प्रभु की वरनों गुनमाल।।

अर्थ – अभिप्राय
कर्मभूमि के प्रारम्भ में, भूख-प्यास से पीडि़त प्रजा को, जिन्होंने उसके निवारण का मार्ग दिखाया और धर्म का उपदेश देकर पाप के प्रसार को रोका, भक्तियुक्त देवंों ने आकर चरण-कमलों को नमस्कार किया। उनके चरणों के नखों की कान्ति से देवों के मस्तकों के मुकुटों में लगी हुई मणियाँ और भी अधिक चमकने लगती थी। ऐसे प्रथम जिनेन्द्र ऋषभदेव के चरणों मंे प्रणाम करके मैं उनकी स्तुति करूँगा।

समस्त शास्त्रों के तŸवज्ञान से उत्पन्न होने वाली निपुण बुद्धि द्वारा अतीव चतुर बने हुए देवेन्द्रों ने तीन लोक के चिŸा को हरण करने वाले, अनेक प्रकार के गंभीर एवं विशाल स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की है, आश्चर्य है, उन प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव प्रभु की मैं स्तुति करना आरम्भ करता हूँ।

अर्थ 1:
झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करूँगा)|
भावार्थ :
१०० इन्द्र तथा और मुकुटधारी देव जब उनके भि पुज्य ऋषभदेव भगवान के समक्ष नतमस्तक होते है, तब भगवान के स्वयंप्रभासे देवोंके मुकुट पर लगे रत्नादि भि चमकने लगते है, ऐसी प्रभायुक्त भगवान ऋषभदेव, जिन्होने कर्मयुग के आरंभ के संसार के दु:खों में गोते खाने वाले अपने भक्तों को तारकर जीने की राह बतायी तथा पापरूपी अंधकार को नष्ट करने वाले भगवान के चरण युगल में मैं मानतुंग मन वचन- काय से नत होकर वंदन करके उनकी स्तुति करता हूँ ।

अर्थ 2:
सम्पूर्णश्रुतज्ञान से उत्पन्न हुई बुद्धि की कुशलता से इन्द्रों के द्वारा तीन लोक के मन को हरने वाले, गंभीर स्तोत्रों के द्वारा जिनकी स्तुति की गई है उन आदिनाथ जिनेन्द्र की निश्चय ही मैं (मानतुंग) भी स्तुति करूँगा|
भावार्थ :
सकल वाङ्मय अर्थात् श्रुत ज्ञानसे युक्त सुरेन्द्र जब भक्तिवश ऐसे मनोहारी स्तोत्रों की रचना करके भगवान की स्तुति करता है, जो तीनों लोकों के समस्त मनों – हृदयों को हरनेवाले है, तब मैं भी उस प्रथम जिनेन्द्र भगवान आदिनाथ की स्तुति के लिये कटिबध्द होता हूँ ।।
दीपक जैन BOI भोपाल