कुछ समय पूर्व आचार्य श्री जयकीर्ति महाराज विहार करते हुए श्री मुनिसुव्रतनाथ जी के अतिशय क्षेत्र पैठन तीर्थ पहुंचे। यह तीर्थ चतुर्थकाल का माना जाता है और वहां पर गुजरे, नाथ सागर डेम से, जो महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के पैठण तालुका में जकवाड़ी गांव में विशाल रूप से बहती गोदावरी नदी पर बना है।
विहार में उनके साथ कुछ श्रावक-श्राविका भी थे, जैसा हर विहार में साधु-संत के साथ होना चाहिये। डेम के किनारे पर आचार्य श्री जयकीर्तिजी ने कहा कि हमारी भावनायें, हमारे परिणाम, हमारे विचार सागर के समान जैसा अथाह पानी देख रहे हैं, उसी तरह हमारे मन, हमारे विचार, हमारी भावनाओं की विशालता होनी चाहिये, जिसमें कि मोक्ष जो अत्यंत विशाल है, भव्य है, उत्कृष्ट है, उसको प्राप्त कर सकें। ऐसे हमारे जीवन में गंभीरता, आनंद, सुख शातिं के लिये इसे धर्म के मार्ग पर चलाना चाहिये।
इतनी अच्छी बात करने के बाद उन्होंने पाषाण की मुनिसुव्रत भगवान की लगभग 6-8 इंच की प्रतिमा हाथ में ली और एक महिला श्राविका ने डोल से दूध व पानी से उसका अभिषेक किया, आचार्य श्री ने मंत्रोच्चार किया और प्रतिमा का स्पर्श कर दूध और जल गंधोदक बनता, पर यहां उस नदी में ही बहता रहा, जैसे किसी छोटे बच्चे को हाथों में उठाकर नहलाया जा रहा हो। क्या वंदनीय प्रतिमा को महज खिलौना समझ लेते हैं? क्या तीन लोक के नाथ का यह अभिषेक किया गया या फिर अपमान? क्या आगम में, संतों के लिये इस तरह अभिषेक करने को स्वीकार किया गया है?
साधु की अनर्गल प्रवृति व स्वच्छंदता
जिनधर्म व आगम के सर्वथा विरुद्ध : डॉ. श्रेयांस जैन
इस बारे में सान्ध्य महालक्ष्मी ने विद्वानों की प्रमुख राष्ट्रीय संस्था शास्त्री परिषद के अध्यक्ष डॉ. श्रेयांस कुमार जैन से जानकारी ली, तो उन्होंने कहा कि यह आगम से मेल नहीं खाता, यह साधु की स्वच्छंदता है। साधु यह अनर्गल प्रवृत्ति कर रहे हैं आचार्य जयकीर्ति जी के द्वारा यह जिनधर्म व शास्त्र से सर्वथा विरुद्ध है। इस तरह के कृत्यों पर तुरंत रोक लगनी चाहिये। समाज को इस तरह की घटनाओं पर रोक लगानी चाहिए। हम भी कोशिश कर रहे हैं, एक प्रतिनिधिमंडल तैयार कर रहे हैं, जो साधुओं के पास जाये और ऐसे कृत्यों पर रोक लगे, क्योंकि इससे जिनधर्म का उपहास होता है। धर्म का मूल स्वरूप विकृत हो रहा है। यह बहुत दुख की बात है कि साधु ध्यान-अध्ययन को छोड़ कर बाह्य कांड की ओर प्रवृत्ति हो गई है। ये सरागता की क्रियायें किसी भी प्रकार स्वीकार्य नहीं है।
न आगम से, न परम्परा से, न विधि से, न स्थान से, यह अभिषेक नहीं : डॉ. सुरेन्द्र भारती
वहीं विद्वत परिषद के महामंत्री डॉ. सुरेन्द्र भारती ने सान्ध्य महालक्ष्मी को इस बारे में कहा कि किसी गृहस्थ या मुनि द्वारा हाथों में लेकर कभी प्रतिमा का अभिषेक नहीं कराया जाता। अभिषेक महत्वपूर्ण नहीं होता, अभिषेक की विधि महत्वपूर्ण होती है। बाकायदा पांडुक शिला, सिंहासन पर विराजमान करके ही अभिषेक की क्रिया होनी चाहिए, गंधोदक बहाने के लिये नहीं, मस्तक पर लगाने के लिये होता है, बहाने की परम्परा नहीं है, कि नदी में बहा दें। जो गंधोदक बचता है, उसको मजबूरीवश उस स्थान पर डाला जाता है, जहां जीव-जंतु न हो। न आगम से, न परम्परा से यह उचित नहीं। न विधि, न स्थान, न मंत्रोच्चार उचित है। यह गंधोदक पूरा बह गया, यह सिद्धि नहीं है, तीन लोक के रूप में विराजित करना चाहिये। साधु को प्रायश्चित लेना चाहिये और किसी को अनुकरण नहीं करना चाहिए।
समय की आवाज, जल्द बने जैन धर्म संसद
सान्ध्य महालक्ष्मी का विचार
सान्ध्य महालक्ष्मी भाग्योदय का विचार है कि अब समय की मांगानुसार जैन धर्म संसद की आवश्यकता जोर पकड़ती जा रही है। जिस तरह से चतुर्विध संघ में स्वछंदता बढ़ रही है, संस्कृति को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा रहा है, अपनी क्रियाओं को लांघा जा रहा है, ऐसे में जैन धर्म संसद की शुरूआत हो, जिसकी संहिता वरिष्ठ आचार्य तय करें व इसमें चुतर्विध संघ की सहभागिता हो। अगर जैन संस्कृति को 24 इंच खरे सोने की तरह शुद्ध ही रखना है, अनमोल रखना है तो जैन धर्म संसद की शुरूआत की जाये।
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