15 मई 2024/ बैसाख शुक्ल अष्टमी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/शरद जैन /
1. अजमेर में मरने से पहले अंतिम शब्द : मुनिराज को निरन्तराय आहार कराना, उन्हें भी पता न चले।
2. विराटनगर से विहार कराते अंतिम शब्द : मुझे भी दीक्षा लेनी है, इसलिए साथ चलने की आदत डाल रहा हूं।
3. प्रतापगढ़ में भगवान का अभिषेक करने के लिये पकड़ा कलश और छूटे प्राण
4. घाटोल में युवा क्षत्रिय ने आचार्य श्री को श्रीफल चढ़ा, दर्शन करते सांस छोड़ी।
कोई बिस्तर पर मरता है, कोई हास्पीटल में,
कोई चिल्लाता हुआ मरता है, कोई आकुलता में।
लेकिन भाग्यशाली जीव वो ही है, जो धर्म ध्यान करते हुए,
आत्म-उपयोग की स्थिरता में मरण करता है।
यह कहते हुये अजमेर में आचार्य श्री सुनील सागर जी ने स्पष्ट कर दिया कि मरना तो सबको है अपनी-अपनी बार, पर जिन जीवों ने जीवनभर पुण्य किये हैं, उनकी गति अच्छी ही होती है, वही विरले होते भव के पार। वैसी मृत्यु विरलों को ही, खुशनसीबों को ही मिलती है और ऐसी चार मृत्यु का रहस्योद्घटान किया, जिनको सुनकर हर श्रावक यही कहेगा कि जब प्राण मेरे निकले, तो इसी तरह निकले
1. मुनिराज को पड़गाहन, फिर गिरे, टूटे शब्दों में कहा – देखो चुपचाप निरन्तराय आहार कराना, और चल बसे – अजमेर के श्रेष्ठी सुनील गदिया
हां, आचार्य श्री सुनील सागरजी ससंघ का अजमेर में मंगल प्रवेश 30 अप्रैल को हुआ और पहले ही दिन पड़गाहन के बाद आहार कराने का सौभाग्य मिला ज्ञानोदय तीर्थ नारेली के कोषाध्यक्ष के छोटे भाई सुनील कुमार गदियाजी को। धर्मनिष्ठ और फिर पड़गाहन चलता रहा और दो मई को भी उसी आनंद के साथ पड़गाहन किया और मुनि श्री सुविंद्य सागरजी की विधि मिली। पड़गाहन के बाद मुनिराज के पीछे-पीछे चल रहे थे। थोड़ा दूर चले, लड़खड़ाये, गिर पड़े, कुछ ने संभाला, उन्होंने सबको होठ पर अंगुली रखकर चुप रहने को कहा, जिससे मुनिराज आगे वालों के साथ चौके में जाये। जुबान लड़खड़ा चुकी थी, अटकते शब्दों में कहा कि मेरी खबर किसी को नहीं बताना, मुनिराज का आहार अच्छे से हो जाना चाहिए। और कहते सांसों ने साथ छोड़ दिया। खैर, तब भी अस्पताल लेकर गये, पर चौके के लोगों को पता चल गया कि सुनील गदियाजी इस दुनिया में नहीं रहे। फिर भी हिम्मत करके आहार करवाते रहे, पर कब तक चेहरे पर बनावटी मुस्कराहट रहती। चेहरे गंभीर, आहार के समय। जरूर कोई बात है, मुनिराज ने तत्काल अंजुलि छोड़ दी। बस अब तो सभी का रोना फूट गया। देखिये, कैसा आयुकर्म और जाते-जाते सीख, धन्य है ऐसे धर्मनिष्ठ भाई।
2. मुझे भी दीक्षा लेनी है, विहार में पूरा पैदल चलूंगा, लड़खड़ाये और आचार्य श्री के हाथों में देह परिवर्तन : मांगीलालजी, विराट नगर
विराट नगर से आचार्य श्री सुनील सागरजी ससंघ का विहार हो रहा था। विहार में एक-दो किमी चलते थे, पर आज तो जैसे उन्होंने ठान लिया कि 10-12 किमी पूरा विहार करायेंगे। आचार्य श्री ने संकेत दिया कि आपका स्वास्थ्य अनुकूल नहीं, गाड़ी में बैठ जायें, थक जाएंगे। पर तब बोले – नहीं, आज में पूरे विहार में साथ चलूंगा, मुझे भी आगे जाकर दीक्षा लेनी है, इसकी प्रेक्टिस तो करनी ही होगी। बस यही भाव लेते दो किमी ही चले होंगे कि लड़खड़ाये, पीछे चल रहे मुनिराजों ने गिरते को संभाला। आवाज लड़खड़ा चुकी थी, आचार्य श्री रुके। मांगीलालजी के पैर सुन्न हो चुके थे, तलवों में मालिश की। सिर आचार्य श्री के हाथों में था, सांस धीरे-धीरे थम गई और गुरु हाथों में शरीर छोड़ दिया। गुरु सान्निध्य में देह परिवर्तन, ऐसा सौभाग्य। यहां सान्ध्य महालक्ष्मी यह भी बताना चाहेगा कि संघ के लिये उनका चौका तब भी चल रहा था, और आज भी, ऐसी धर्मपरायणता।
3. क्षत्रिय युवा, गुरु के दर्शन करते ही देह परिवर्तन : घाटोल
क्या मुनिराज के दर्शन करने से आत्मा का उर्ध्वगमन होता है? इस सवाल का उत्तर आप शायद नहीं दे पायेंगे। पर बांसवाड़ा के पास घाटोल में 30-35 साल के युवा क्षत्रिय का बड़ा घर था, इधर से गुजरते मुनिराज वहां रुकते, तब बढ़ते। तभी आचार्य श्री सुनील सागरजी संघ उधर से जा रहा था। थोड़ी दूरी पर 8 ७8 के कमरे में आचार्य श्री ठहरे हुये थे। उस युवा क्षत्रिय का काफी समय से मन था कि मैं आचार्य श्री के दर्शन कर सकूं, पर कई दिनों बाद मौका मिला। गुरुवर के आगे श्रीफल चढ़ाया, फिर पीछे दीवार के साथ खड़ा हो गया। बाकी लोग भी उसी तरह श्रीफल चढ़ा रहे थे कि उसी समय जैसे दीवार का सहारा लेकर बैठ रहा था, पर वास्तव में सांसों ने थमना प्रारंभ कर दिया। बस निकल गये प्राण आचार्य श्री को निहारते-निहारते, जैसे सांसें तप-त्याग की मूर्ति के दर्शन करने को ही हट्टे-कट्टे युवा के भीतर रुकी हुई थीं।
4. भगवान का अभिषेक करने के लिये कलश पकड़े सांसें थमी : प्रतापगढ़
कोरोना काल में आचार्य श्री सुनील सागरजी का संघ प्रतापगढ़ में रुका हुआ था। रोज की तरह उस दिन भी आचार्य श्री वेदी की परिक्रमा लगा रहे थे, और रोजाना अभिषेक करने वाले अपनी तैयारी में थे। उनमें से एक रोज की तरह गुरुवर के चरणों में नमोस्तु कर खाली कलश में अभिषेक के लिये प्रासुक जल भरने गर्भगृह से बाहर गया। आचार्य श्री की नजर दूसरी परिक्रमा में उस पर पड़ी, उसका गर्भगृह में एक पैर अंदर, एक पैर बाहर था, लड़खड़ाया और गिरने लगा। अन्य लोगों को संकेत किया। संभालने लगे, इतने में आचार्य श्री तीसरी परिक्रमा पूरी कर उधर आये, बंद होती आंखों से उसने जैसे ही आचार्य श्री को देखा, उसकी आंखें मुस्कराते चेहरे, बुदबुदाते होठों के साथ सदा के लिये बंद हो गई।
धर्ममय जीवन और फिर इस तरह आयुकर्म पूरा हो, तो निश्चित ही उर्ध्वगमन होता है। भावना भायें कि जब हमारे भी अंतिम सांस भगवान-संतों के चरणों में पूरी हो।