सम्यग्दर्शन के साथ शुचिता ही उत्तम शौच है – आचार्य अतिवीर मुनि
प्रशममूर्ति आचार्य श्री 108 शान्तिसागर जी महाराज (छाणी) परंपरा के प्रमुख संत परम पूज्य आचार्य श्री 108 अतिवीर जी मुनिराज ने श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, रानी बाग, दिल्ली में आयोजित पर्वाधिराज दसलक्षण महापर्व के पुनीत प्रसंग पर धर्म के चतुर्थ लक्षण “उत्तम शौच धर्म” की व्याख्या करते हुए कहा कि शुचिता अर्थात् पवित्रता का नाम है शौच, जो कि लोभ कषाय के अभाव में प्रकट होता है| लोभी, लोभ के कारण पाप कर बैठता है और अपना जीवन नष्ट कर लेता है| हमारे आत्मिक विकास में लोभ कषाय एक विशाल पर्वत के समान बाधक है| इसलिए हमें उत्तम शौच धर्म को अपनाकर अपने जीवन में शुचिता लानी चाहिए| शौच के साथ लगा ‘उत्तम’ शब्द सम्यगदर्शन की सत्ता का सूचक है| इसीलिए सम्यग्दर्शन के साथ होने वाली पवित्रता ही उत्तम शौच धर्म है| शौच धर्म की विरोधी लोभ कषाय मानी गयी है| लोभ को पाप का बाप कहा जाता है, क्यूंकि संसार में ऐसा कौन सा पाप है जिसे लोभी नहीं करता हो|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि पवित्रता का जो भाव है, निर्मलता का जो भाव है, स्वभाविकता का जो भाव है वही शौच धर्म है| जहाँ लोभ का अभाव होता है, वहीँ शौच धर्म है| पाँचों इन्द्रियों के विषय और मन तथा चारों कषाय के विषयों की पूर्ती का लालच ही लोभ कहलाता है और यह देवगति में सर्वाधिक पाया जाता है| सभी कषायों का जनक लोभ होता है| लोभ की अभिव्यक्ति नहीं हो पाती क्योंकि यह अंडरग्राउंड रहता है, बाकी कषायों का पोषण करता रहता है| लोभ का विसर्जन करे बिना धर्म का अर्जन नहीं हो सकता| जो व्यक्ति लोभ में जीता है, उसे वीतरागता की पहचान नहीं हो सकती| भौतिक कचरे के साथ-साथ मन में भरे कचरे को निकालें|
जिसके पास धन है उसका जीवन धन्य नहीं, अपितु जिसके पास धर्म है उसका जीवन धन्य होता है| यह लोभ समता भाव का शत्रु है| अधैर्य का मित्र है, मोह के विश्राम करने की भूमि है, पापों की खान है, आपत्तियों का स्थान है, खोटे ध्यान का क्रीड़ावन है, कलुषता का भंडार है, शोक का कारण है, कलेश का क्रीड़ाग्रह है| अतः लोभ को छोड़ें – जिसने भी अनंतसुख प्राप्त किया है, लोभ छोड़कर ही किया है| बहुत भटक चुके हैं हम कषायों की अँधेरी घाटियों में| आओं चलें शौच धर्म के प्रकाश की और ताकि हम शाश्वत सिद्धत्व के आनंद में गोते लगा सकें|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र है, उसमें पवित्रता यदि आती है तो रत्नत्रय से आती है| रत्नत्रय ही पवित्र है| इसलिए रत्नत्रय रुपी गुणों के प्रति प्रीतिभाव रखना चाहिए| रत्नत्रय धारण करने वाले शरीर के प्रति विचिकित्सा नहीं करनी चाहिए| विचिकित्सा का अभाव होना ही “निर्विचिकित्सा अंग” है| जीवन में शुचिता इसी अंग के पालन करने से आती है| यदि कषायों का पूरी तरह विमोचन नहीं होता तो कम से कम उपशमन तो किया ही जा सकता है| अवश्य ही अशुचिता से अपने जीवन को ऊपर उठाना हंसी-खेल नहीं है, लेकिन खेल नहीं होते हुए भी उस ओर दृष्टिपात तो अवश्य करना चाहिए| वीतराग यथाजात दिगंबर रूप ही पवित्र है, क्योंकि इसी के माध्यम से आत्मा चार प्रकार की आराधना करके मुक्ति को प्राप्त होती है और अंततः पवित्र होती जाती है|
उल्लेखनीय है कि रानी बाग के इतिहास में प्रथम बार आयोजित मंगलमय चातुर्मास के अनन्तर विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों के माध्यम से व्यापक धर्मप्रभावना संपन्न हो रही है| पर्युषण पर्व के अवसर पर प्रतिदिन प्रातः काल जिनाभिषेक, शांतिधारा व संगीतमय सामूहिक पूजन के पश्चात् आचार्य श्री के मुखारबिंद से सारगर्भित मंगल प्रवचन श्रवण करने लाभ श्रद्धालुजन प्राप्त कर रहे हैं| सायंकाल में रत्नकरण्डक श्रावकाचार की व्याख्या तथा आरती व भक्ति-संगीत के साथ मनमोहक सांस्कृतिक कार्यक्रम संपन्न हो रहे हैं| दिनांक 14 सितम्बर 2021 को श्री पुष्पदंत निर्वाण कल्याणक तथा दिनांक 19 सितम्बर 2021 को श्री वासुपूज्य निर्वाण कल्याणक व मूलनायक श्री शान्तिनाथ भगवान का स्वर्ण कलश द्वारा महामस्तकाभिषेक संपन्न होगा|