जो सौधर्म इन्द्र – चक्रवर्ती पुत्र जो नहीं कर पाया, वो छोटे से राजकुमार ने कैसे कर दिखाया?, ऐसा क्या था, जो और कोई नहीं कर पाया

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3 मई 2022/ बैसाख शुक्ल तृतीया /चैनल महालक्ष्मीऔर सांध्य महालक्ष्मी/
एक वर्ष, एक माह के बाद 9वां दिन, वह था बैसाख शुक्ल तृतीया, यानि प क ेबाद 399 वां दिन। हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ के महल की ओर बढ़ रहे थे वृषभदेव महामुनिराज के रूप में। उधर महल में पुरोहित राजकुमार श्रेयांस के तीसरे पहर में देखे 7 स्वप्न का अर्थ बता रहा था। सुमेरु पर्वत, कल्पवृक्ष, सिंह, बैल, सूर्य-चन्द्रमा एक साथ, मंथन करता समुद्र और अष्ट मंगल धारण करते व्यंतर देवों की मूर्तियां। ये 7 स्वप्न भगवान के दर्शन का प्रतीक हैं, यह कहकर पुरोहित चुप ही हुआ कि सिद्धार्थ नामक द्वारपाल ने एक दिव्य साधु को उधर आने की सूचना दी। नगर वासियों का कोलहल, कारवां बना था। दूर से हजारों सूर्यों के ताप को निस्तेज करता, हजारों चन्द्रमणि शीतलता को फीका करता, सुमेरू जैसा सुवर्णमयी महाशरीर, कामदेव भी जिसके सामने लजा जायें, ऐसे महामुनिराज को दूर से देखना शुरू किया महल के द्वार पर आकर, टकटकी लगाये। उस क्षण तक नहीं जानते थे, बस दर्शन करना है, यह तन-मन-वचन में एक ही बात थी।

क्षण में कहा था, क्षण में ये क्या हो गया। दोनों भाई – सोमप्रभ – श्रेयांस ने चरणों में अर्घ्य सहित जल समर्पित किया। नीचे से ऊपर नजरें होती गई और जब तेजस्वी चेहरे को जैसे ही देखा, श्रेयांस कुमार को जाति स्मरण हो गया, तुरंत तीन प्रदक्षिणा दी। यही वह क्षण की तरह था, जब उन्होंने वज्रसंघ के साथ, स्वयं श्रीमती के रूप में दो ऋद्धिधारी मुनिराज को जंगल में आहार कराया था।

प्रात:काल का समय है, मुनिराज को आहार दान का उपयुक्त समय। दानपति के रूप में श्रेयांस में वे सातों गुण थे – श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, अक्षुब्धता, क्षमा और त्याग। ‘हे स्वामी, नमोस्तु, नमोस्तु, अत्र तिष्ठ-तिष्ठ, आहार जल शुद्ध’ कहते हुये महामुनिराज को श्रद्धा से आमंत्रण दिया। उच्च पाटे पर बैठाया, प्रासुक जल से पाद प्रक्षालन, फिर सबने गंधोदक मस्तक पर लगाया। पूजा-अर्चना कर नमोस्तु किया, फिर मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि कहते हुए आहार जल शुद्ध भी कहकर उस नवधा भक्ति को पूरा किया, जिसे इस मुनि मार्ग पर चलने वालों को महामुनिराज वृषभदेव दिखाना चाहते थे। यह वही नवधा भक्ति आहार देने के लिये, श्रावक आज भी उन्हीं 7 गुणों के साथ करता आ रहा है।

आज भक्तिवश श्रावक मुनिराज की काया आदि के अनुरूप, तप-तपस्या में सहयोगी आहार की बजाय राजसिक, तामसिक, गरिष्ठ, आहार तक देने लगा है, जो निश्चय ही उनके मोक्षमार्ग में अवरोधक है, तथा वर्तमान में बढ़ते शिथिलाचार का एक बड़ा कारण है।

तब राजकुमार श्रेयांस ने राजा सोमप्रभ, रानी लक्ष्मीमती के साथ आदर-श्रद्धापूर्वक ईख के प्रासुक रस को आहार के रूप में दिया। 6 माह के कठोर तप के बाद वृषभदेव भगवान को महामुनिराज के रूप में नवधा भक्ति दिखाने के लिये यह उपयुक्त समय आने में 7 माह 8 दिन और लग गये। 399वें दिन हुआ प्रथम आहार, तब भी न क्षुधा, न तृषा।

और फिर क्या हुआ? आकाश से आहार के फल के रूप में देवों ने रत्नों की वर्षा शुरू कर दी, दिव्य पुष्पों की वर्षा होने लगी, देवों के नगाड़े गंभीर शब्द करने लगे, सुगंधित शीतल वायु बहने लगी, ‘धन्य यह दान, धन्य यह पात्र’ से आकाश गुंजायमान हुआ। उधर अयोध्या में भरत चक्रवर्ती को यह सूचना मिलते ही वह हस्तिनापुर भागमभाग आने को चल देता है। क्या उत्तम फल है महामुनिराज को आहार का।

यही नहीं, उस दिन राजमहल में बना भोजन समाप्त नहीं होता, पूरे नगर वासी भोजन करने के लिये वह अक्षय हो गया, और तब से बैसाख शुक्ल तृतीया का दिन, अक्षय तृतीया के रूप में लोकप्रिय हो गया। माना जाता है कि इस दिन दिया गया आहार, खरीदी गई वस्तु बरकत देती है, अक्षय हो जाती है, इसलिये अब लोग स्वर्ण-रजत आदि भी खरीदारी करने लगे हैं।

उधर भरत चक्रवर्ती पहुंचा, उसने राजकुमार से आहार के बारे में जिज्ञासा के बारे में पूछा। राजकुमार श्रेयांस ने पूर्व भव के वृतांत से सारा घटनाक्रम दोहरा दिया। तब भरत चक्रवर्ती ने भी उनके आहार दान की महिमा का गान करते गुणगान किया।