क्या पारस प्रभु से पहले भी, नाग देवता धरणेन्द्र ध्यान भंग रोकने धरा पर आये, वो जानकारी, जिससे 99 फीसदी अनभिज्ञ हैं

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2 मई 2022/ बैसाख शुक्ल दौज /चैनल महालक्ष्मीऔर सांध्य महालक्ष्मी/
अधिकांश हम में से यही जानते हैं कि महामुनिराज के रूप में तप करते हुए 23वें तीर्थंकर पर ही उपसर्ग हुए यानि ध्यान भंग करने की असफल कोशिश की। यह भी सब जानते मानते हैं कि धरणेन्द्र केवल एक बार पारसप्रभु पर उपसर्ग होता देख, अधोलोक से इस धरा पर आया। पर आज आप सभी के लिये वो जानकारी देते हैं, जिससे 99 फीसदी अनभिज्ञ हैं।
ध्यान भंग करने का, अपनी बात कहने की सबसे पहल ध्यानरत तीर्थंकर के लिये अवसर था महामुनिराज के रूप में जब ऋषभदेव जी को सिद्धार्थ वन में 6 माह हो रहे थे। तब उन्हीं के साथ दीक्षा धारण करने वाले कच्छ-महाकच्छ महाराजा के दोनों राजकुमार नमि तथा विनमि, उनके चरणों के निकट पहुंचे थे। बहुत ही सुकमार, तरुण, दोनों ही भोगपभोग तृष्णा सहित थे, इसलिए ‘हे भगवन, प्रसन्न होइये’ कहते हुए, उन्हें नमस्कार करके, उनके चरणों से लिपट गये। कहने लगे ‘हे स्वामि, आपने अपना यह साम्राज्य पुत्र और पौत्रों में बांट दिया है, पर बांटते समय हम दोनों को भुला दिया है, हमें भी अपना हिस्सा दीजिए।’ उचित-अनुचित का ज्ञान ना होने के कारण, भगवान से बार-बार आग्रह करते रहे।

उधर भवनवासियों के अंतर्गत नाग कुमार देवों के इन्द्र धरणेन्द्र का आसन कम्पायमान होने से नमि, विनमि का सारा वृतांत जान लिया। अभी तक अधिकांश यही जानते हैं कि धरणेन्द्र, महामुनिराज के रूप में तप कर रहे तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ पर कमठ जीव द्वारा किये उपसर्ग पर ही आये थे। अब यह जान लें – आचार्य जिनसेन द्वारा रचित श्री आदिपुराणम् के अष्टादश पर्व की गाथा 96-101 में यह स्पष्ट लिखा है कि अवधिज्ञान के द्वारा समस्त समाचारों को जानकर वह धरणेन्द्र बड़े ही संभ्रम के साथ उठा शीघ्र ही भगवान के समीप आया।

सुमेरू पर्वत के समान उत्तम शरीर अकम्पायमान, पृथ्वी समान क्षमाशील, तपरूपी लक्ष्मी से आलंगित, महाध्यानरूपी अग्नि में कर्मरूपी आहुतियां जलाने को उद्यत, वृषभदेव मुनिराज के शरीर को देखता आश्चर्य करते परिक्रमा दी। अपना मूल वेश छिपाकर धरणेन्द्र दोनों कुमारों को समझाने लगा। दोनों में तर्कपूर्ण संवाद हुआ। धरणेन्द्र चाहता था कि भगवान का ध्यान विघ्न ना हो, उसके लिये पुरुषार्थ कर रहा था। धरणेन्द्र ने कहा भी – जाओ, भरत के पास, जो चाहे ले लो। पर दोनों स्पष्ट कहते रहे – हम तो भगवान को प्रसन्न कर रहे हैं, यह कैसे ठीक है? क्योंकि जगत में ऐसा कौन बुद्धिमान होगा, जो बड़े फलों की इच्छा रखते हुए कल्पवृक्ष को छोड़कर सामान्य वृक्ष की सेवा करेगा। क्या भरत और भगवान वृषभदेव में भारी अंतर नहीं है? दोनों के तर्कों से धरणेन्द्र प्रभावित तो हुआ, वृषभदेव जी के प्रति भक्ति भी अनुकरणीय है, धीर-वीर हो।

असल रूप में आते हुए फिर अपना परिचय देते हुए धरणेन्द्र ने कहा – मैं धरण हूं। नाग कुमार जाति के देवों का मुख्य इन्द्र हूं। समझें कि पाताल लोक में रहने वाला भगवान का किंकर। मैं आप दोनों को भोगोपयोग सामग्री से युक्त करने ही आया हूं। अपनी इस युक्ति से भगवान के ध्यान में, अपनी भक्ति से ही चाहें, भंग करने वाले दोनों कुमारों का युक्तिपूर्वक इस प्रकार अलग कर विामन में बैठाकर आकाशमार्ग से विजयार्ध पर्वत पर ले गया।

इसलिए, अब आप कभी यह ना समझें कि धरणेन्द्र पहली बार ध्यान में विघ्न रोकने के लिए पारस प्रभु के समय ही आया था। जी नहीं, वह प्रथम तीर्थंकर के तप के समय भी आया था।