ऐसा क्यों हुआ कि सबसे ज्यादा चले 4000 तप करने के लिये, पर असमर्थ होकर ठहरा ना कोई, उनके साथ बढ़ने के लिए

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2 मई 2022/ बैसाख शुक्ल दौज /चैनल महालक्ष्मीऔर सांध्य महालक्ष्मी/
केवल एक बार इतने ज्यादा ने ली दीक्षा। पर सब हिम्मत हार गए , टूट गए । आखिर ऐसा क्या हुआ, जो सब श्रेष्ठ मार्ग से वापस लौट गए।

चैत्र कृष्ण नवमी, वही पावन दिन, जिस दिन प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव ने अयोध्या में मरुदेवी के गर्भ से जन्म लिया था, उसी दिन, सर्वाधिक 4000 राजाओं के साथ अयोध्यापुरी से थोड़ी दूरी पर सिद्धार्थ वन में दीक्षा ली।

शरीर से ममत्व छोड़, तपो योग में सावधान हो वृषभदेव महामुनिराज ने योग की एकाग्रता से, मन तथा बाह्य इन्द्रियों के समस्त विकारों को रोक, धीर-वीर, महासन्तोषी होकर 6 माह के उपवास की प्रतिज्ञा लेकर स्थिर हो गये। दोनों पैरों के अग्रभाग के बारह अंगुल का और एड़ियों में चार अंगुल का अंतर रख महामुनिराज कठिन शिला पर भी अपने चरण कमल रखकर इस प्रकार खड़े हुए थे, मानो लक्ष्मी के द्वारा लाकर रखे हुए गुप्त पदमासन पर खड़े हों।

मति, श्रुत, अवधि ज्ञान, जन्म से धारी और दीक्षा के बाद मन: पर्यय ज्ञान के धारी, ऐसे महल स्वरूप दिख रहे थे, जो दीपकों से जगमग कर रहा हो। आप में स्थिरता, अन्य 4000 में अस्थिरता, 2-3 माह में ही स्पष्ट दिख रही थी। अनेक दीनवृति धारण करने को तैयार, कई उनके चारों ओर हाथ जोड़कर खड़े हो गये, व्याकुलता कहने के लिए। एक को क्षुधा, तृषा दूर-दूर तक नहीं, अन्य सभी व्याकुल, घर-बार की चिंता, मृत्यु का डर, महामुनिराज के उस मार्ग पर असमर्थ होकर, उस खोटे ऋषि तपस्या से भ्रष्ट हो गए। वन देवता ने उन सबको दिगम्बरत्व में भ्रष्टता से रोका, मजबूरत सबने वेष बदला।

6 माह पूरे, संकल्प अवधि पूरी, पर धीरता आश्चर्यजनक, देदीप्यमान शरीर, मानो यह समय क्षणभर में बीत गया। न क्षुधा, न तृषा, पर कितने दुख की बात है कि कितने बड़े-बड़े वंशों में उत्पन्न हुए, ये नवदीक्षित साधु समीचीन मार्ग का परिज्ञान न होने के कारण, इन क्षुधादि परिषहों से शीघ्र भ्रष्ट हो गये। इसलिये अनमोल मार्ग बतलाने के लिये और सुखपूर्वक मोक्ष की सिद्धि के लिए, शरीर की स्थिति अर्थ, आहार लेने की विधि दिखलाता हूं।

मोक्षाभिलाषी मुनियों का यह शरीर, न तो केवल कृश करना चाहिए और न ही रसीले तथा मधुर मनचाहे भोजनों से इसे पुष्ट ही करना चाहिए। काय क्लेश भी उतना ही करना चाहिए, जितने से संक्लेश ना हो, क्योंकि संक्लेश हो जाने पर चित्त चंचल हो जाता है और मार्ग से च्युत होना पड़ता है। इसीलिये संयमी रूपी यात्रा की सिद्धि के लिए, शरीर को सिद्धि चाहने वाले मुनियों को रसों में आसक्त न होकर, निर्दोष आहार ग्रहण करना चाहिए।

बस यही निश्चय कर धीर-वीर वृषभदेव जी चार ज्ञानों के धारक, महामुनिराज के रूप में, योग समाप्त करके, अपने चरण डगों के द्वारा, समस्त पृथ्वी को कम्पायमान करते हुए विहार करने लगे।