17 फरवरी 2024/ माघ शुक्ल अष्टमी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/शरद जैन /
The more you give, more you get, भी कहा और फिल्मी गाना भी सुना – गरीबों की सुनो, वो तुम्हारी सुनेगा, तुम एक पैसा दोगे, वो दस लाख देगा। पर क्या एक के बदले दस लाख ही काफी है, या फिर इस धन का पुण्य में इतना बदले कि 84 लाख योनियों के चक्कर को कुछ भवों में ही सिमेट कर अनंत गुना फलदायी हो।
‘अहो दानम्’ – पुण्य से मिला नर तन-मन-धन, अनुग्रह करना ही दान है, कहा भी है दान चार प्रकार चार संघ को दीजिए। यह दान श्रमण संस्कृति संवर्धन-संरक्षण हेतु, जीर्ण जिनालयों के पुनरुद्धार हेतु, जिनालय-जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, विधान, शोभायात्रा, धर्म प्रभावना में, सच्चे शास्त्र प्रकाशन में, पाठशाला, धर्म संस्कार शिविर, प्रभावना शिक्षा हेतु और इन सबसे अग्रणी हैं चार प्रकार का दान – आहार, औषधि, शास्त्र और अभय दान। साधु संतों को दिया गया यह दान, अनंत पुण्यों का अर्जन कराता है।
थोड़ा पुण्य अर्जन तो करुणा दान (भूखे इंसान या पशु को शाकाहारी भोजन) से मिल जाता है और दान देकर भी पाप अर्जन होता है जब कुपात्र को दिया जाये। इसलिए दान से पहले, पात्र की पात्रता को पहचान लें। दान के लिए एक नहीं, अनेक सावल जहन में आते हैं, जिन्हें जानना समझना जरूरी है जैसे – कौन खरा दाता, कौन बन सकता है दाता, कैसी शुद्धि हो, दाता कैसा हो, सर्वगुण-सम्पन्न कैसा होता है, ‘दाणं पूयं मुक्खं’ यानि दान के लिये क्या आवश्यक है, दान में कृत, कारित, अनुमोदना अलग-अलग पुण्य फल देता है।
धनवान होना सुलभ है, पर साथ में धर्मवान होना दुर्लभ है
ध्यान रखें, एक बारगी दरिद्र होना अच्छा है, पर दानहीन होना कदापि नहीं। इसके लिये किचन की किच-किच नहीं, चौके को समझना होगा, कहते हैं जैसे ही मिले मौका, तुरंत लगा लो चौका, संतों के आहार के लिए नवधा भक्ति क्या होती है, द्रव्य शुद्धि और मर्यादा, इसका जानना भी बहुत जरूरी है, जिससे आप आदर्श गुरु के आदर्श भक्त बन सकें। आहार-जल शुद्ध है, कथनी में ही नहीं, करनी में भी आवश्यक है, इसके लिए प्रमाद भाव नहीं, प्रमोद भाव चाहिए। जिस घर में साधु का निरन्तराय-आनंदमय वातावरण में आहार हो जाये, वहां के सारे आधि-व्याधि कष्ट कम हो जाते हैं, परिवार में सुख, शांति और धरा भाग्यशाली हो जाती है। धनवान होना सुलभ है, पर साथ में धर्मवान होना दुर्लभ है।
दान देने से पुण्य ही पुण्य मिलता है, यह तो समझ गये, पर दान न देने से क्या होता है, शायद इस बारे में कभी सोचना नहीं होगा। ध्यान रखना, पूर्व पुण्य से धन हो सकता है, पर चैन नहीं होता। तनाव, बीमारी, क्लेश बढ़ जाता है, मनुष्य भव निष्फल हो जाता है और तो और, सच्चा मोक्ष सुख तो असंभव है।
ऐसी बहुत सारी जानने योग्य बातें, जो हम नहीं जानते, इतना बारीकी से विश्लेषण किया है 162 पेजों में कम्प्यूटर इंजीनियरिंग में बी.ई. की डिग्री प्राप्त करने वाली विदुषि आर्यिका श्री सुदृढ़मति माताजी ने ‘अहो दानम्’ पुस्तक में। यह पुस्तक हर जैनी श्रावक-श्राविका के लिये पठनीय ही नहीं, पालन करने योग्य है।
आचार्य श्री सुनील सागरजी मुनिराज का जिसके साथ सदा आशीर्वाद रहे, उनके लेखन, चिंतन किस गहराई का हो सकता है, वो साक्षात् इस पुस्तक से ज्ञात होता है। बस यह ध्यान रखना, जीवन में कभी Millionaire बनो या ना बनो, Donor जरूर बनना।