राष्ट्र गौरव चतुर्थ पट्टाचार्य श्री सुनीलसागर जी गुरुराज के रजत संयम वर्ष महोत्सव के उपलक्ष्य में विशेष प्रस्तुति-
महाराष्ट्र अंकली रियासत के महाराजा देशाई जिनकी अनुशासन प्रियता तो सर्व विदित थी,उनके अनुशासन में सर्व प्रजा संतुष्ट थी ,दूसरे राज्यो में भी उनके न्यायशीलता के गुण गाये जाते थे,जब किन्ही दो राज्यो में भी विवाद हो जाता तो उसका निर्णय महाराज देशाई करते थे।इनकी सैन्य शक्ति के सामने अच्छे अच्छो को झुकना पड़ता था।
महाराजा देसाई का नियम था की वे अपने राजकीय ध्वज, देव-शास्त्र -गुरु के अलावा किसी के आगे मस्तक नही झुकाते थे, हमेशा न्याय पूर्वक शासन करते हुए प्रजा का पुत्रवत पालन करते थे उनके राज्य में कभी भी अन्याय व अनीति ने स्थान प्राप्त नहीं किया था
एक बार जब अंग्रेज दक्षिण महाराष्ट्र के सत्ता धारियों की सत्ता हथियाने दक्षिण महाराष्ट्र गए तो कई शासकों ने भयभीत होकर अपनी सत्ता उन्हें सौंप दी, कितने ही राजाओं ने अंग्रेजो से युद्ध भी किया पर उनकी मजबूत शक्ति के आगे सिर नीचा करना पड़ा
सारा महाराष्ट्र भयावह स्थिति में था, अधिकांश राजा अंग्रेजों का संदेश पाते ही राज्य त्याग चुके थे
एक बार अंग्रेजी शासकों द्वारा भेजा हुआ एक संदेश वाहक महाराजा देसाई के पास पहुंचा और जो संदेश उसने अन्य राजाओं को सुनाया था वह सन्देश महाराजा देसाई को भी सुनाया,संदेशवाहक की बातें सुनकर महाराजा बोले-संदेशवाहक जाओ और अभी जाओ जाकर अपने अधिकारियों से कह दो कि ना तो देसाई अपना राज्य ही छोड़ सकता है और ना ही तुम्हारी पराधीनता स्वीकार कर सकता है महाराज की बात सुनकर संदेशवाहक बोला की तुम अभी हमारी शक्तियों को नहीं जानते,सैकड़ों तुमसे बड़े बड़े राजा भी हमारी पराधीनता स्वीकार कर चुके हैं फिर तुम किस खेत की मूली हो
महाराजा देसाई कुछ क्रोध में बोले संदेशवाहक ज्यादा वाचाल मत बन जो कुछ मैंने कहा है वह अपने आकाओं को कह दे उन अंग्रेजी की दुष्टता का सबक उन्हें अवश्य ही सीखा दूंगा
संदेशवाहक बोला देसाई क्यों जबरन मौत को सामने बुला रहे हो क्या हाथी का भी मच्छर कुछ बिगाड़ सकते हैं “नहीं” न फिर तुम हमारे सामने मच्छर से अधिक कुछ नहीं है
महाराजा चिल्लाते हुए बोले मूर्ख वाचाल जबान को लगाम दे वरना सिर कलम कर दूंगा अगर अपनी खैरियत चाहता है तो जो कुछ तुन्हें कहा गया है जाकर अपने अधिकारियों को कह दो और कह देना कि आज तक तुम दूसरों को युद्ध में ललकारते रहे हो लेकिन आज महाराजा देसाई ने तुम्हें ललकारा है
महाराजा की ललकार सुनकर आग बबूला हो संदेशवाहक राज्यसभा से बाहर निकल गया उसने जाकर संपूर्ण समाचार गवर्नर को कह सुनाया सुनते ही उसने कल ही अंकली की ओर प्रस्थान करने की घोषणा कर दी वहां महाराजा देसाई भी अपने सैन्य शक्ति सहित तैयार थे,जब अंग्रेजों से उनकी मुठभेड़ हुई तो उनके सैनिकों ने बड़े उत्साह से शौर्यता पूर्वक युद्ध किया,युद्ध कुछ समय तक चलता रहा अंततः अंग्रेजों को घुटने टेकने पड़े वहां उनकी सेना में भगदड़ मच गई और यहां महाराजा देसाई की जय जय कार होने लगी
एक बार पराजित होने के बाद अंग्रेजों ने पुनः आक्रमण किया लेकिन पुनः महाराजा देसाई की विजय हुई अब अंग्रेजों ने उन की अंदरूनी कमजोरी ढूंढना प्रारंभ किया क्योंकि वे जानते थे कि किसी व्यक्ति की मुख्य कमजोरी उसे हमेशा हमेशा के लिए खत्म कर देती है बहुत प्रयास करने के बाद उन्हें महाराजा देसाई के इस नियम व प्रतिज्ञा के बारे में पता चला कि वह अपने राजकीय ध्वज, देव- शास्त्र -गुरु के अलावा किसी के आगे सिर नहीं झुकाता था
तो उन्होंने एक षड़यंत्र पूर्वक तीसरा युद्ध किया इस युद्ध में उन्होंने जहां जहां से निकलने के रास्ते से उन्होंने उन स्थानों पर अंग्रेजी हुकूमत के चिन्हों वाली तलवारे इस प्रकार बांधी कि किसी भी घुड़सवार को निकलने के लिए सिर झुकाना पड़े और नही झुकाए तो आराम से सिर कट जाए
महाराजा इस तथ्य से अनभिज्ञ थे वे रण हेतु निकल पड़े उन्हें मार्ग में अंग्रेजी हुकूमत की तलवारे बंधी हुई मिली लेकिन पीछे लौटना क्षत्रियों चित न समझा और आगे तलवारे बंधी थी फिर भी वे युद्ध के लिए उद्यत हुए,युद्ध करते करते उन तलवारों से उनका सिर तो कट गया पर उन्होंने किसी दूसरे के सामने अपना सिर नहीं झुकाया यह उनकी प्रतिज्ञा व नियम था
जिससे उन्होंने अपना गर्दन कटवा दी लेकिन अंग्रेजों के आगे सर नहीं झुकाया
अंग्रेजों के प्रमुख गवर्नर ने भी दांतो तले उंगली दबाते हुए कहा था महाराजा देसाई मरे नहीं अमर हो गए
उनके वीरगति को प्राप्त हो जाने पर अंकली का प्रतिनिधित्व उनके वंश से क्रमशः पुत्र राजगौड़ा व उनके बाद उनके पुत्र शंकरगौड़ा, के बाद सिद्धगौड़ा हुए और इन्ही सिद्धगौड़ा के सूर्य समान तेजस्वी पुत्र शिव गौड़ा हुए जो आगे चलकर अंकलिकर श्रमण परम्पराजनक “आचार्यदेव श्री आदिसागर जी भगवन्त” के नाम से जग पूज्य हुए
पूज्यवर चतुर्थ पट्टाचार्य श्री सुनीलसागर जी गुरुराज द्वारा रचित विश्व सूर्य ग्रन्थ के पृष्ठ न.3 से 5 में से प्रेषित
-शाह मधोक जैन चितरी