कहते हैं कि प्रेम करने से रिश्ता उस जन्म का नहीं सात जन्मों का हो जाता है और कहते तो यह भी हैं कि रिश्ते इस लोक में नहीं स्वर्ग से बन जाते हैं।
यह सत्य कथा है भगवान वृषभदेव के जन्म से करोड़ों वर्ष पहले स्वर्ग लोक की। श्रीप्रभ नाम के सुंदर विमान में बड़ी ऋद्धि का धारक ललितांग नाम का उत्तम देव हुआ, जब आयु पृशव्यपल्प के बराबर शेष रह गई तब चार में से एक स्वयं प्रभा महादेवी प्राप्त हुई पुण्योदय के योग से।
आयु के अंत में धर्म ध्यान से आयु पूर्ण कर वह विदेह क्षेत्र के पुष्कल्पवती देश के अल्पखेटक नगर में राजा वज्रबाहु व रानी वसुन्धरा के वज्रसंघ नाम का पुत्र हुआ। पर स्वर्ग में स्वयंप्रभा देवी उसके बिना संताप करते आयु पूर्ण कर पुण्डरीकिणी नगर में राजा वज्रदंत व रानी लक्ष्मीमती के घर श्रीमती नाम की पुत्री हुई। एक दिन यशोधर गुरु को केवलज्ञान प्राप्त हुआ तो देव धरती पर अवतरित हुये, बस यह देख श्रीमती को पूर्व जन्म का स्मरण हो गया। वह पागल हो गई अपने ललितांग देव के लिये। मौन धारण कर लिया और कुछ पहेलीनुमा चित्र बनाकर अपनी सखी पण्डिता को उसकी तलाश में भेज दिया। वज्रसंघ ने उस चित्र की पहेली को खोलकर सब कहानी बता दी पूर्व भव की। बस दोनों की शादी हो गई।
कुछ समय बाद, श्रीमती के पिता चक्रवर्ती वज्रदंत ने 60 हजार रानियों व एक हजार पुत्रों के साथ दीक्षा ले ली और छोटे से पोते पुण्डरीक को सारा राज सौंप दिया। सूचना मिलने पर राजा वज्रसंघ रानी श्रीमती के साथ उधर चले तो वन में डेरा डाला। वहीं आकाश में गमन करने वाले मुनिराज-दमधर व सागरसेन उनके डेरे की ओर आये, क्योंकि उन्होंने वन में ही आहार लेने की प्रतिज्ञा की थी। तब राजा वज्रसंघ व रानी श्रीमती ने नवधा भक्ति के साथ दोनों मुनिराजों को आहार कराया।
एक दिन दोनों शयनागार में उत्कृष्ट धूप की धूम जला कर लेटे हुए थे, सेवादार झरोखे खोलना भूल गये और दोनों गहरी नींद से हमेशा की निंद्रा में सो गये। दोनों ने उत्तम पात्र को दान देने के कारण उत्तर कुरु भोग भूमि की आयु का बंध किया। वहां स्त्री-पुरुष साथ-साथ उत्पन्न होते हैं और दम्पत्ति के रूप में ही रहते हैं। दोनों ने वहीं दम्पत्ति के रूप में जन्म लिया और सुख पूर्वक रहकर प्राण त्यागे और एशान स्वर्ग में जा पहुंचे।
वहां वज्रसंघ का जीव श्रीधर नाम का ऋद्धिधारी देव हुआ और श्रीमती का जीव स्वयंप्रभ विमान में स्वयंप्रभ नाम का उत्तम देव हुआ।
स्वर्ग से च्युत होकर वज्रसंघ का जीव पूर्व विदेह के महावत्स देश के सुसीम नगर में सुदृष्टि राजा की सुंदर नंदा रानी से सुविधि पुत्र हुआ और राजा सुविधि व रानी सती मनोरमा के श्रीमती का जीव स्वर्ग से च्युत होकर केशव नाम का पुत्र हुआ। राजा सुविधि ने दीक्षा धारण कर समाधिमरण कर अच्युत स्वर्ग में देव हुआ, वहीं पुत्र केशव ने भी निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहण कर अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद प्राप्त किया।
आयु पूर्ण कर वज्रसंघ का जीव पुण्डरीकिणी नगर में राजा व वज्रसेन-रानी श्रीकान्ता के वज्रनाभि पुत्र हुए। वहीं श्रीमती का जीव स्वर्ग से आयु पूर्ण कर उसी नगरी में कुबेर दत्त वणिक के धनदेव पुत्र हुआ। वज्रनाभि को चक्ररत्न की प्राप्ति हुई और धनदेव उनकी निधियों व रत्नों में शामिल होकर राज्य का अंगभूत गृहपति नाम का तेजस्वी रत्न हुआ।
फिर चक्रवर्ती वज्रनाभि ने अपने पुत्र वज्रदंत को राज्य और धनदेव सहित 16 हजार राजाओं, एक हजार पुत्रों व 8 भाइयों के साथ दीक्षा ले ली, फिर 11वें गुणस्थान में प्राण छोड़कर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया। श्रीमती के जीव धनदेव ने भी यह पद प्राप्त किया।
और फिर वज्रसंघ का जीव सर्वार्थसिद्धि से आयू पूर्ण कर महाराज नाभिराय व महारानी मरुदेवी के वृषभदेव के रूप में जन्मे और श्रीमती का जीव हस्तिनापुर में राजकुमार श्रेयांस बना। इसके बाद की कहानी आप सभी जानते हैं।
देखा आपने स्वर्ग में हुआ प्रेम 8वें भव में दोनों के मोक्ष की मंजिल बन गया। वह ललितांग देव वृषभदेव के रूप में इस काल के प्रथम तीर्थंकर बने और उनकी महादेवी स्वयंप्रभा राजकुमार श्रेयांस के रूप में आहार दान तीर्थ की शुरूआत करने वाले बने।