क्या जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव और हिंदू धर्म भगवान शिव जी एक ही है ?

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वैदिक दर्शन में ऋग्वेद, अथर्ववेद, अठारह पुराणों व मनुस्मृति
अधिकाँश ग्रंन्थो मे ऋषभदेव का वर्णन आता है | ऋषभदेव को विष्णु के 24 अवतारों में से एक के रूप में संस्तवन किया गया है। वहीं शिव पुराण मे इन्हे शिवजी के अवतार के रुप मे स्थान दिया गया है |

भागवत में अर्हन् राजा के रूप में इनका विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत् के पाँचवें स्कन्ध के अनुसार मनु के पुत्र प्रियव्रत के पुत्र आग्नीध्र हुये जिनके पुत्र राजा नाभि थे। राजा नाभि के पुत्र ऋषभदेव हुये जो कि महान प्रतापी सम्राट हुये।

आइये अब अनेकों समानताओ की बात कर लेते है:—

भगवान ऋषभदेव का निर्वाण स्थल मोक्ष भूमि है वही अष्टापद् पर्वत (कैलाश पर्वत) । भगवान शिव का भी कैलाश ही बताया गया है धाम।

शिव को जाना गया है योगिराज, आदिनाथ इत्यादि नामों से, भगवान ऋषभदेव को भी ना केवल जैन साहित्य बल्कि वैदिक साहित्य मे भी इन्ही नामों से जाना गया है।

दोनों का ही संबंध बैल से है। शिव नंदी पर सवारी करते है व ऋषभदेव का चरण चिन्ह बैल है।

दोनों मयुर पिच्छिकाधारी है।

दोनों की मान्यताओं में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी और चतुर्दशी का महत्व है। (भगवान ऋषभदेव का मोक्ष का दिन)

दोनों ही जटाधारी और दिगंबर है। भार्तुहरी ने ‘वैराग्य शतक’ में शिव को दिगंबर लिखा है। वेदों में भी वे दिगंबर कहे गए हैं।”नम: शिवाय” एक प्रसिद्ध स्तोत्र है ! उसमे शिव कि दिगंबर मुद्रा का उल्लेख है “दिव्याय देवाय दिगम्बराय !” भार्तुहरी ने ‘वैराग्य शतक’ में लिखा है – “एकाकी नि:स्पृह: शांत: पानिपात्रो दिगंबर:!” इसी प्रकार “लिंगपुरान” में लिखा मिलता है – “नग्नो जटो” निराहारो$चिरी ध्वांतगतो हि स:, निराशस्त्यसंदेह शैवमाप परं पद्म !! (४७/१९-२२)

जैन ग्रन्थो में दोनो को एक माना गया है ! भट्टाकलंक एक प्रसिद्ध आचार्य थे ! उनका एक लोकप्रिय काव्य है – अकलंक स्तोत्र उसमे लिखा है –

सो$स्मान्पातू निरंजनो जीन्पती: सर्वत्र सूक्ष्म शिव: !” (अकलंक स्तोत्र – १०)

मनतुन्गाचार्य के भक्तामर स्तोत्र का आज भी घर-घर में पाठ होता है ! उन्होने एक स्थान पर कहा है –
नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्रपंथ:!! (भक्तामर स्तोत्र -२३)

डॉ. लक्ष्मिनारायण साहू इतिहास के अधिकारी विद्वान है ! उनके कथन से मालूम होता है कि तीर्थंकर ऋषभदेव और शिव दोनो अभिन्न है और एक हि ही है ! उन्होने अपने “उन्दिसा में जैन धर्म” नामक ग्रंथ में लिखा है , “ऋग्वेद (मं. ५,सू. १०) में केशी तथा दिगंबर का जो वर्णन है, वह जैनियो के भगवान ऋषभदेव और हिंदुवो के शिवजी को अभिन्न सिद्ध करता है !

जैनेद्र व्याकरण (२/२/१९) में लिखा हुआ मिलता है – “शांकरी जीनविद्या” ! नाथ पंथ का प्रारंभ भगवान शंकर से माना जाता है ! अनेक कोशकारो ने शंकर शब्द दिगंबर जैन अर्थ में लिया है ! वाचस्पत्य कोशकार ने शंकर को दिगंबर जैन से साम्भाधित बताया है ! मेदिनी कोषकार का कथन है, “दिगंबर: स्यात क्षपणे नग्ने तमसी शंकरे !” महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय १४, श्लोक १८ में कहा गाय है ! “ऋषभ: पवित्राना योगिना निष्कल: शिव:”! हलायुधकोष में भी ऐसा हि लिखा हुआ मिलता है !

डॉ. रामधारीशिंह दिनकर एवं वाचस्पती आदि ने स्पष्टत: शंकर और शिव को दिगंबरत्व से संबंधित बताया है ! ये शिव ऋषभदेव के अतिरिक्त अन्य नही थे ! ऋषभदेव का एक नामांतर शिव था ! हर, शंकर और शंभू भी उनके हि नामांतर थे ! श्री दिनकर कि तो मान्यता है कि शैव मार्ग का विकास जैन साधना से हि हुआ है ! वाचस्पत्य ने शिव को जैन का भेद माना है !

ऋग्वेद में ऋषभदेव की चर्चा वृषभनाथ के नाम से की गई है। शिव महापुराण में उन्हें शिव के 28 योगावतारों में गिना गया है। अंतत: माना यह जाता है कि ऋषभनाथ से ही श्रमण परंपरा व्यवस्थित शुरुआत हुई और इन्हीं से सिद्धों, नाथों तथा शैव परंपरा के अन्य मार्गों की शुरुआत भी मानी गई है। इसलिए ऋषभनाथ जितने जैनियों के लिए महत्वपूर्ण हैं, उतने ही हिन्दुओं के लिए भी परम आदरणीय इतिहास पुरुष रहे हैं।