राग-द्वेष से जुड़ जाते हैं रिश्ते,स्वर्ग में जुड़े, आहार दान से, फल जाते रिश्ते- श्री आदिनाथ भगवान के 10 भव

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25 मार्च 2022//चैत्र कृष्णा अष्टमी /चैनल महालक्ष्मीऔर सांध्य महालक्ष्मी/

पहला : भोगी राजा 10 भव में तीर्थंकर बनेगा
1. दस भव पूर्व जब प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ जी का जीव महाबल राजा के रूप में था, तब उनके स्वयं बुद्ध नामक एक ज्ञानी मंत्री ने आकाशगामी दो चारण ऋद्धिधारी आदित्यगति और अरिंजय नामक महामुनिराजों से शंका पूछी थी कि भोगों में लिफ्त हमारे महाराज भव्य जीव हैं या अभव्य। तब महामुनिराज अवधि ज्ञानी आदित्यगति मुनिराज ने कहा कि पिछले भव में भोगों की इच्छा की भावना से ये भोगों में लिप्त हैं, पर चिरकाल धर्म-तप साधना के बल पर ये दस भव बाद तीर्थंकर बनेगा। यानि प्रथम तीर्थंकर के बनने की सूचना करोड़ों-करोड़ों वर्ष पूर्व ही हो गई थी। महाबल ने पूर्व भव में जयवर्मा के रूप में दीक्षा के बाद विद्याधरों की भांति भोगों की आकांक्षा की थी।

दूसरा भव : स्वर्ग में बना रिश्ता
2. स्वयंबुद्ध मंत्री के द्वारा सही राह दिखाने से, गृहस्थ रूप में ही तब मानो निर्यपाकाचार्य की तरह भूमिका निभाते हुए महाराज का समाधिमरण कराया तथा फिर वह ऐशान स्वर्ग में ललितांग देव हुआ। यह हमारी तरह हर समय नहीं, एक हजार वर्ष बाद मानसिक आहार लेता था, 15 दिन बाद श्वासोच्छास, 4 हजार देवियां थीं और उनमें खास थी स्वयंप्रभा – इस ललितांग-स्वयंप्रभा की देव-देवी जोड़ी ने स्पष्ट कर दिया कि रिश्ते स्वर्ग में बनते हैं।

तीसरा भव : स्वर्ग में देव, धरा पर भी मिले
3. स्वर्गों में निश्चित आयु मिलती है, बहुत ज्यादा, तभी तो देवताओं को अमर कहा जाता है, पर जब आयु पूर्ण होने लगती है तब गले में पड़ी माला 6 माह पहले से मुरझाना शुरू कर देती है, संकेत दे देती है। इसी तरह ललितांग देव भी आयु पूर्ण कर विदेह क्षेत्र के पुष्कलावती देश के महाराज वज्रबाहु की महारनी वसुन्धरा के गर्भ में ‘वज्रसंघ’ नाम का पुत्र होता है। और उसकी खास महादेवी ‘स्वयंप्रभा’ भी उसको याद करते, विदेह क्षेत्र के पुण्डरीकिणी नगरी के महाराज वज्रदंत की महारानी लक्ष्मीपति के गर्भ से ‘श्रीमती’ के रूप में जन्म लिया। युवा हो गये, तब एक दिन यशोधर मुनि को केवलज्ञान प्राप्ति पर स्वर्ग से देव पूजा करने आये, बस उसी क्षण श्रीमती को पूर्व भव के ललितांग देव की याद आ गई। पगला गई, मुझे बस वो ही पति के रूप में चाहिए। खाना-पीना छोड़, बेसुध हो गई। वह अपनी खास पंडिता धाय को उस देव की पहचान के लिए एक पहेली बुझा कर तलाशने को कहती है। इसके लिए वह पूर्व भव संबंधी चित्र बनाकर उसे देती है और इसमें छिपे गूढ़ विषयों को केवल वही बता सकेगा, जो पूर्व भव में ललितांग देव रहा होगा।

कैसे मिला पूर्व भव का देव?
पण्डिता धाय सीधा जिनालय पहुंच गई और बाहर प्रांगण में उस चित्रपट को बिछाकर श्रीमती राजकुमारी के लिये उस पूर्व के देव की तलाश में अर्थ पूछती। अनेकों अर्थ बताते, पर सही नहीं, कि तभी एक दिन वज्रसंघ उधर आया, उसने चित्र देखा और देखते-देखते मूर्च्छित हो गया। होश में आने पर उसने पूछा – यह चित्र किसने बनाया है। पण्डिता के कहने पर उन्होंने चित्र का भाव बता दिया और अपना चित्र उसके हाथ में दे दिया। पण्डिता उल्टे पांव खुशी से लौट, उदास बैठी श्रीमती को वृतांत बताती है और उसका दिया चित्र सौंप देती है। चित्र देखकर श्रीमती समझ गई, यही पूर्व भव के ललितांग देव हैं। विवाह होता है और एक दिन वन के रास्ते से अपने पिता द्वारा दीक्षा लेने के समय सेना सहित जा रहे थे कि तभी वन में दो ऋद्धिधारी दमधर-सागरसेन मुनिराज उधर आते दिखाई दिये, उनकी प्रतिज्ञा थी कि वे केवल वन में ही आहार लेंगे।

वन में आहार से जंगल में मंगल
वज्रसंघ ने श्रीमती के साथ दोनों को नवधा भक्ति से पड़गाहा। श्रीमती ने ही नहीं, उस जंगल में नकुल, सिंह, वानर और शूकर ने भी आहार के दृश्य को कमोल दृष्टि से देखते रहे। क्या होता है आहार देने-देखने का फल – यह आगे पता चलेगा। पर इतना स्पष्ट हो गया कि जो रिश्ते स्वर्ग में बने, वो अब आगे कैसे चलते हैं।
एक दिन दोनों शयनकक्ष में सो रहे थे, सुगन्धित धूप जल रही थी, सेवक उस दिन झरोखा खोलना भूल गये। धूप के धुएं से श्वास रुक गया और मूर्छित हो सदा के लिये दीर्घ निद्रा में समा गये। इसी भव में वज्रसंघ के महामंत्री मतिवर, पुरोहित आनंद, राजसेठ धनमित्र और सेनापति थे, जिन्होंने भी आहार की अनुमोदना की थी और अब वे भी कैसे जुड़े, आगे देखते हैं।

चौथा भव : जोड़ी का जन्म भोगभूमि में
4. दोनों ने पुण्यबंध से उत्तर कुरु भोगभूमि का आयुबंध किया। वहां दम्पत्ति के रूप में जन्म होता है और उनके जन्म के साथ ही माता को छींक और पिता को जंभाई लेने मात्र से देहांत हो जाता है। 36 हजार फुट ऊंचा कद, न कोई रोग, न वृद्धता, चक्रवर्ती से भी ज्यादा सुख। सूर्यप्रभ देव को देखते उन्हें जाति स्मरण हुआ और पिछले भव जान गये। उधर आये दो चारण मुनिराज ने उनको पूर्व के भव और बताया कि तेरे पूर्व भव महाबल के समय का ही मैं स्वयंबुद्ध मंत्री का जीव हूं। मुनिराज ने बताया कि हम तुझे सम्यग्दर्शन देने की इच्छा से आये हैं। उपदेश मिला और विशुद्ध सम्यग्दर्शन धारण किया। दोनों पति-पत्नी का स्वभाव एक-सा था, इसलिए दोनों में एक-सी अखण्ड प्रीति रहती थी। प्रीतिपूर्वक भोग भोगते हुए दोनों दम्पत्तियों का तीन पल्य प्रमाण भारी काल व्यतीत हो गया।

पांचवां भव : दोनों के साथ आहार देखने वाले भी बने देव
5. दोनों ने सुख पूर्वक प्राण छोड़कर पुण्य से ऐशान स्वर्ग में जा पहुंचे। वज्रसंघ ऐशान स्वर्ग में श्रीधर नामक ऋद्धिधारी देव हुआ और आर्या श्रीमती सम्यग्दर्शन के प्रभाव से स्त्री पर्याय छोड़ ऐशान स्वर्ग के स्वयंप्रभ विमान में स्वयंप्रभ नामक उत्तम देव हुई। यही नहीं चारों तिर्यंच, जिन्होंने जंगल में मुनिराजों को आहार करते देखा था, वे भी स्वर्ग लोक में देव हुए। यह है निर्मल भालों से मात्र आहार देखने का फल। आहार देने से क्या फल मिलता है, ये आगे जान पाएंगे।

छठां भव : दम्पत्ति से बनी अब पिता-पुत्र की जोड़ी
6. स्वर्ग से च्युत होकर श्रीधर देव पूर्व विदेह क्षेत्र के महावत्स देश के सुसीमा नगर में सुंदरनंदा महारानी से सुविध नामक पुत्र हुआ। इस जितेन्द्रिय राजकुमार के मामा अभयघोष चक्रवर्ती थे, जिनकी बेटी मनोरमा से उनका विवाह हुआ और पुत्र केशव का जन्म हुआ। यह केशव, वही श्रीमती का जीव, ऐशान स्वर्ग में आयु पूर्ण कर आया था। पिता पुत्र में अगाध प्रेम था। वो चारों तिर्यंच सिंह, नकुल, वानर और शूकर भी द्वितीय स्वर्ग में आयु पूर्ण करवत्स-काकली देश में राजपुत्र हुए। इन चारों ने फिर अभयघोष चक्रवर्ती के साथ विमल-वाहन जिनेन्द्र देव की वंदना कर दीक्षा ग्रहण कर ली। उधर पिता सुवधि व पुत्र केशव ने स्नेहवश गृहस्थ अवस्था में रहकर अणुव्रत ग्रहण किये और बाद में दिगंबर दीक्षा ग्रहण की।

सातवां भव: तोड़े से भी टूटे ना यह दोनों की जोड़ी
7. स्वर्ग लोक में जो देव-देवी का रिश्ता बना, वो अटूट रहा, तिर्यंच जीव भी उस आहार दृश्य से मानो इससे जुड़ गये। अब सुवधि दीक्षा के बाद समाधिमरण से अच्युत स्वर्ग में देव हुए, वहीं केशव ने दीक्षा केबाद आयु पूर्ण कर अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद प्राप्त किया।

आठवां भव : आठों बने चक्रवर्ती के पुत्र और वो बने रत्न
8. अच्युतेन्द्र ने अंतिम समय में पंचपरमेष्ठि में ध्यान लगाया और आयु पूर्ण कर पूर्व विदेह क्षेत्र के पुण्डरीकिणी नगरी के महाराज वज्रसेन-महारानी श्रीकांता वज्रनाभि नामक पुत्र हुए। जंगल में मिले चारों तिर्यंच भी महाबल राजा के पहले भव के चारों मंत्री विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित, बाहु, सुबाहु, पीठ व महापीठ हुए। एक बार जुड़े रिश्ते लंबे समय तक जुड़े रहते हैं, यह स्पष्ट करता है। वज्रसेन ने दीने से पूर्व सारा राजपाट वज्रनाभि को सौंप दिया। सभी भाइयों के साथ कुशलता से राज्य चलाने लगा। आयुध शाला में एक दिन चक्ररत्न प्रकट हुआ। उसके सहारे वज्रनाभि ने छह खण्ड पर विजय पाई तथा चक्रवर्ती की निधियों में धनदेव नामक रत्न भी मिला, वह और कोई नहीं, पूर्व का श्रीमती – केशव का ही जीव था। राज्य को निसार मानते अपने पिता जो दीक्षा ग्रहण के बाद केवलज्ञान प्राप्ति कर तीर्थंकर वज्रसेन बन गये थे, उनके पास जाकर आठों भाइयों, धनदेव, एक हजार पुत्रों व 16 हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की। फिर अपने पिता तीर्थंकर के समक्ष सोलह भावनाओं का चिंतवन कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया। चार ऋद्धियों को भी प्राप्त किया। 7वें से 11वें गुणस्थान में पहुंचे। प्रायोवेशन धारण कर शरीर व आहार से ममत्व छोड़ दिया। प्रायोगमन कर पृथ्क्त्ववितर्क शुक्ल ध्यान को पूर्ण कर उत्कृष्ट समाधि को प्राप्त हुए।

नौवा भव : सभी 10 स्वर्ग लोक में
9. समाधि के बाद महाबल-ललितांग-वज्रसंघ – सुवधि – वज्रनाभि का जीव सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र पद को प्राप्त हुआ। बस उसी के ऊपर सिद्धालय,स वही तो पहुंचने का अंतिम लक्ष्य। 33 हजार वर्ष बाद मानसिक दिव्य आहार ग्रहण करता, 16 माह 15 दिन बाद श्वासोच्छास लेता। उनके साथ वो आठों भी विजय, वैजयन्त, जयंत, अपराजित, बाहु, सुबाहु, पीठ, महापीठ नाम के पूर्व भव के आठों भाई भी सर्वार्थसिद्ध में वज्रनाभि के समान अहमिन्द्र हुए। रिश्ते भी भव-भव के और कर्मानुसार चलते रहते हैं। भोगी मंत्री के चार सहपाठी और आहार देखने वाले चारों तिर्यंच, कैसा है यह कर्मों का खेल, जो हम अपने-अपने अनुसार स्वयं ही रचते हैं।

दसवां भव : बने तीर्थंकर और आठों पुत्र आहार प्रदाता
10. अब तो सब जानते ही हैं, अयोध्या के महाराज अंतिम कुलकर नाभिराय की महारानी मरुदेवी के गर्भ में सर्वार्थ सिद्धि में आयु पूर्ण कर अहमिन्द्र का जीव आ पहुंचता है। ऋषभ जिन्हें तीर्थंकर होने के कारण पूरा लोक भी आदिनाथ से भी जानता है।

वज्रसंघ के समय महामंत्री मतिवर, जो प्राणों से प्यारा था, वह बनता है भरत चक्रवर्ती, (उससे पूर्व भव में सिंह की पर्याय में)। सभी वज्रसंघ श्रीमती के भव्य चारों प्रिय मंत्री, सेनापति, पुरोहित, सेठ व चारों तिर्यंच- सिंह, शूकर, वानर, नकुल भी अब भव-भव के बाद वृषभदेवजी की यशस्वती देवी के पुत्र हुए। ‘पीठ’ भरत का छोटा भाई वृषभसेन, जो वृषभदेव जी से दीक्षित होकर सबसे पहले तीसरे काल में मोक्ष जाते हैं। राजश्रेष्ठी महापीठ – अनंतविजय, विजय नामक व्याघ्र जीव अनंतवीर्य, वैजयंत नाम का शूकर अच्युत, जयंत नाम का वानर जीव वीर, अपराजित नाम का नेवला का जीव वरवीर, परोहित का जीव महाबाहु से सुनंदा देवी से बाहुबली के रूप में पुत्र हुआ।

और ‘श्रीमती’ का जीव उन नजदीकी रिश्ते के क्रम को तोड़ते हुए हस्तिनापुर में राजकुमार श्रेयांस के रूप में जन्म लिया और महामुनिराज के रूप में तब के ललितांग-वज्रसंघ के जीव ऋषभदेव जी को प्रथम आहार देकर इस युग में ‘आहार’ की जो परम्परा शुरू की, वो आज भी चल रही है, और वह आहार का दिन अक्षय तृतीया के रूप में मनाते हैं।
ये दस भव प्रथम तीर्थंकर के स्पष्ट संकेत करते हैं कि किसी के प्रति राग या द्वेष करने से भव-भव चलते हैं रिश्ते। उसी में अगर श्रद्धा, भक्ति, वात्सल्य, प्रेम की मिठास भगवान के साथ जोड़ दो, फिर वह दिन दूर नहीं, जब भक्त की भगवान से नजदीकी बन ही जाती है।